रविवार, 7 सितंबर 2014

इस रक्तरंजित सुबह का मौसम बदलना

















इस रक्त रंजित 
सुब्ह का 
मौसम बदलना |
या गगन में 
सूर्य कल 
फिर मत निकलना |

द्रौपदी 
हर शाख पर 
लटकी हुई है ,
दृष्टि फिर 
धृतराष्ट्र की 
भटकी हुई है ,
भीष्म का भी 
रुक गया 
लोहू उबलना |

यह रुदन की 
ऋतु  नहीं ,
यह गुनगुनाने की ,
तुम्हें 
आदत है 
खुशी का घर जलाने की ,
शाम को 
शाम -ए -अवध 
अब मत निकलना |

1 टिप्पणी:

  1. द्रौपदी
    हर शाख पर
    लटकी हुई है ,
    दृष्टि फिर
    धृतराष्ट्र की
    भटकी हुई है ,
    भीष्म का भी
    रुक गया
    लोहू उबलना

    सधी हुई और मंजी हुई कविता है. बधाई.

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