शनिवार, 10 जनवरी 2015

हरीश चन्द्र पाण्डे की कविताएं-


 


                                          हरीश चन्द्र पाण्डे 

थर्मस

बाहर मौसम दरोगा सा
कभी आंधियां कभी बौछारें
कभी शीत की मार कभी ताप की
अपनी शर्तों पर सभी कुछ

सभी कुछ झेल रही हैं बाहर की दीवारें
कुछ भी पता नहीं हैं भीतर की दीवारों को
भीतर कांच की सतह पर गर्म दूध
हिलोरे ले रहा है
एक दिव्यलोक जहां
ऊष्मा बांट ली जाती है भीतर ही भीतर

बाहर का हाहाकार नहीं पहुंच पाता भीतर
भीतर का सुकून बाहर नहीं झांकता

एक छत के नीचे की दो दीवारें हैं ये
जिनके बीच रचा गया है एक वैकुअम
बहुत बड़े वैकुअम का अंश है यह
संवाद के बीच पड़ी एक फांक है

इन्कार का एक टुकड़ा है।

हम मारेंगे

ज्ञान में बढ़ोगी
तो मनोविज्ञान से मारेंगे
मनोबल में बढ़ोगी
तो बल से मारेंगे
अस्त्र से बढ़ोगी
तो शस्त्र से मारेंगे
 

यहां मारेंगे वहां मारेंगे
कहां कहां नहीं मारेंगे
सभी जगहों सभी कालों सभी धर्मों में मारेंगे
ढंके चेहरे में मारेंगे
चीर हटाकर मारेंगे
रच लो तुम अपनी आजादी
बराबरी व उड़ने के सपने
किस किस दिशा किस किस गुफा में 
जाओगी बचाने अपने को
हम कोख के भीतर जाकर तुम्हें  मारेंगे।














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