शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

नित्यानंद गायेन की कविताएं



                                                       नित्यानंद गायेन


          20 जनवरी 1981 को शिखरबाली, 0 बंगाल में जन्में नित्यानंद गायेन की कवितायें और लेख सर्वनाम, अक्षरपर्वकृति ओर, समयांतर, समकालीन तीसरी दुनिया, जनसत्ता, हिंदी मिलाप  आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन का शतक।

अपने हिस्से का प्रेम नाम से एक कविता संग्रह प्रकाशित  अनवर सुहैल के संपादन में संकेत द्वारा कविता केंद्रित अंक।

नित्यानंद गायेन की कविताएं 

शर्मिंदा नहीं होता सपने में प्रेम करते हुए 
 
मैं अक्सर खो जाता हूँ सपनों में
और कमाल यह होता है कि ये सपने मेरे नहीं होते
दरअसल सपनों में खो जाना कोई कला नहीं
न ही है कोई साज़िस
ये अवचेतन क्रिया है एक

मेरे सपनों में अचानक
उनका आगमन  बहुत सुखद है
मैं बहुत खुश होता हूँ उन्हें पाकर
सपनों में,
रेत पर खेलते उस बच्चे की तरह मैं भूल जाता हूँ
हक़ीकत को
और गढ़ता हूँ  प्रेम की हवाई दुनियां
एकदम फ़िल्मी

अभी यह सर्द मौसम है
रजाई की गर्मी में सपने भी हो जाते हैं गर्म और मखमल

 सपने में अचानक लगती है मुझे  प्यास
और फिर बोतल मुंह से लगाकर पीते हुए पानी
गिरता है सीने पर
टूट जाती है नींद

मैं हँसता हूँ खुद पर
पर शर्मिंदा नहीं होता
सपने में प्रेम करते हुए .


हंसाने वाले अब मुझे सताने लगे हैं 

 
मैंने गुनाह किया
जो अपना दर्द तुमसे साझा किया

अब शर्मिंदा हूँ इस कदर
कोई दवा नहीं

मुझ पर इतराने वाले अब कतराने लगे हैं
हंसाने वाले अब मुझे सताने लगे हैं

बातें अंदर की थीं
अब बाहर आने लगी हैं 


हमें भ्रम है कि हम जिंदा हैं आज भी 

 
आकाश पर काले बादलों का एक झुंड है
बिजली कड़क रही है
धरती पर आग बरसेगी
इस बात अनजान हम सब
डूबे हुये हैं घमंड के उन्माद में
हम अपना -अपना पताका उठाये
चल पड़े हैं
विजय किले की ओर

वहीँ ठीक उस किले के बाहर
बच्चों का एक झुंड
हाथ फैलाये खड़ा है
हमने उन्हें देखा बारी -बारी
और दूरी बना रखी
कि उनके मैले हाथों के स्पर्श से
गन्दे न हों हमारे वस्त्र
उनके दुःख की लकीर कहीं छू न लें
हमारे माथे की किसी लकीर को
हमने अपने -अपने संगठन के बारे में सोचा
सोचा उसके नाम और उद्देश्य के बारे में
हमें कोई शर्म नहीं आयीं

हमने झांक कर भी नहीं देखा अपने भीतर
हमारा  ज़मीर मर चुका  है
और हमें भ्रम हैं कि
हम जिंदा हैं आज भी ..??


उन्होंने मुझे बेवफ़ा करार दिया 

 
पिछले दिनों बहुत सोचा
कि कभी नहीं करूँगा खुलासा
उन अपनों के बारे में
जिन्हें मैंने अपना मान लिया था
बीतते वक्त के साथ हटता रहा धुंध
और साफ़ होता गया आइना
मैंने देखा अपना चेहरा
कई रात सोया नहीं मैं
और उन्हें लगा मैं अब तक नशें में हूँ
मैंने ग़ालिब को याद किया
खुद पर गर्व किया
और सोचता रहा जो होने वाला था
आज वही हुआ
उन्होंने मुझे बेवफ़ा करार दिया
और पुलिस ने दर्ज किया केस मेरे खिलाफ़
रिपोर्ट में मुझे देशद्रोही लिखा गया .


भाई मेरे कपड़े नहीं, मेरा चेहरा देखो

 
उसके ठेले पर हर सामान है
मतलब सुई -धागा से लेकर चूड़ी , बिंदी , नेल पालिस , आलता
कपड़े धोने वाला ब्रश
और उसके ग्राहक हैं -वही लोग , जो खुश हो जाते हैं
किसी मेले की चमकती रौशनी से , लाउड स्पीकर के बजने से
ये सभी लोग जो आज भी
दिनभर की जी तोड़ मेहनत के बाद
अपने शहरी डेरे पर पका कर
खाते हैं दाल -भात और चोखा
कभी -कभी खाते हैं
माड़ -भात नून से

इनदिनों जब कभी मैं पहनता हूँ इस्त्री किया कपड़ा
शर्मा जाता हूँ उनके सामने आने से
लगता है कहीं दूर चला आया हूँ अपनी माटी से

आज मैं भी था उनके बीच बहुत दिनों बाद
ठेले वाले से कहा उन्होंने - साहेब को पहले दे दो भाई।
मेरे पैर में जूते थे , हाथ में लैपटाप का बैग
मेरे कपड़े महंगे थे ,
मुझे शर्म आई , सोचा कह दूँ - भाई मेरे कपड़े नही
मेरा चेहरा देखो।

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत तड़प के साथ लिखी गई लगती हैं कविताएं... बधाई...।

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  2. नित्यानंद गायेन इस दौर के फक्कड़ कवि हैं और उनसे करंट मारती सी कविताओं की उम्मीद बनी रहती है..पुरवाई की कविताएँ वाकई ज़बरदस्त हैं

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