शनिवार, 5 मार्च 2016

राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं-

  


           हिमाचल प्रदेश के सुदूर पहाड़ी गांव से कविताओं की अलख जगाए राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं किसी पहाड़ी झरने की तरह मंत्र मुग्ध कर देने के साथ आपको यथार्थ के धरातल सा वास्तविक आभास भी कराती हैं। कवि के कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं है। बिल्कुल पहाड़ी नदियों की तरह निश्चल और पवित्र हैं इनकी कविताएं। गांव, नदी, पहाड़  ,जंगल , घाटियां नया आयाम देती हैं इनकी कविताओं कोे । बकौल राजीव कुमार त्रिगर्ती-
   
     गांव से हूं,आज भी समय के साथ करवट बदलते गांव से ही वास्ता है। जीवन का वह हिस्सा जब हाथ लेखनी पकड़ने के लिए बेताब था, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के माहौल में बीता। वाराणसी की खरपतवार और रासायनिक उर्वरक- रहित साहित्य की भूमि में कब कवित्व का बीज अंकुरित हुआ कुछ पता ही नहीं चला। भीतर के उद्गारों को अपने ढंग से व्यक्त कर पाने की हसरत से ज्यादा आत्मसंतुष्टि शायद ही कहीं होती हो। असल में पहाड़  ,जंगल , घाटियों , कलकलाती नदियां हैं तभी तो पहाड़ में प्रेम है। इनके होने से ही जीवन जटिल है तभी तो पहाड़ में पीड़ा है। यहां प्रेम और पीड़ा का सामांजस्य अनंत काल से सतत प्रवाहित है। प्रकृति के सानिध्य में सुख दुख के विविध रूपों को उभारना अच्छा लगता है। मेरे लिए यह बहुत है कि प्रकृति के सानिध्य में भीतर के उद्गारों को व्यक्त करने का एक खूबसूरत तरीका मिल गया है। भीतर के उद्गार को अपने ही शब्दों में व्यक्त करने के आनंद की पराकाष्ठा नहीं और यह आनंद ही मेरे लिए सर्वोपरि है।

राजीव कुमार त्रिगर्ती की कविताएं-

 


अभी समय है   


हो इक दिन ऐसा कि
इस नाले को बहने के लिए मिले खुली जगह
खुलकर चढ़ सके दोनों पाटों पर
ले सके मर्ज़ी की गति

हवा बह सके पेड़ों और सिर्फ़ पेड़ों के बीच
तरह-तरह के परागों से लदी हुई
भरपूर सुगंधित

एक दिन आए ऐसा
कि हम अपने से हटकर सोचें
पेड़-जंगल कटान पर
पत्थर-बालू खनन पर
नदी-नहर, औद्योगिक अवकरों के बारे में
बैंगन-लौकी, दूध-तेल
जहरीले टीकों, घटिया मिलावट के बारे में
यह भी तो सोचें हम
कि यही सोचना हमारे हित में है
ज़िन्दगी के बारे में सोचने से
हम बच सकते हैं
एक घटिया इतिहास बनने से
अगली सभ्यताओं के सामने।


 सार्थक मृत्युओं के बाद भी

पढ़ते हुए
कभी सूंघी है नई किताब की खश्बू
एकदम ताज़ा किताब
छप-छपाके, सिल-सिलाके
ज़िल्द में लिपटी
हाल ही मैं छपी हुई
बिलकुल ताज़ा नई किताब
कड़कड़ाते हों जिसके कागज़
खोलने पर संगीत की तरह
बजते हों जिसके सुर
हर पन्ने से आए एक अलौकिक गंध
सिलाई पर लगी गोंद
छपाई के रंग के साथ
पेड़ की गंध सनी
कि पढ़ने से ज़्यादा
हौले-हौले नाक से
खश्बू पीने का मन हो,

पढ़ते हुए
कभी सूंघी है पुरानी किताब की खश्बू
पुरानी बहुत पुरानी किताब की
उससे आती है किसी बूढे़ की
गर्म रजाई की खश्बू
गर्म सा हो उठता है
भीतर कुछ बहुत गहरे
आती है उससे वनौषधियों की खश्बू
और महसूसा जा सकता है बाहर-भीतर
कुछ स्वस्थ होता हुआ
पुरानी किताब की गर्द से
झरती है फूलों की खश्बू अनवरत
कि बैठे हों फूलों का कोई झाड़ थामे
छायादार पेड़ की उड़ती हुई छाया
बन जाती है लकड़ी का फर्श और दीवारें
तन जाती है छत की तरह,

दुआ करो कि
जब तुम्हारी अलमारियों की किताबें
पुरानी हो जाएं
तुमसे बहुत पुरानी
तो सूंघी जाएं
और भी ज़्यादा खुश्बुओं के साथ
जीते रहें कुछ पेड़
अपनी सार्थक मृत्युओं के बाद भी।



जादुई स्पर्श


खेत , खेत नहीं रहते
भवनों के नीचे दब ताने पर
उभर आने पर किसी भी तरह की
स़ड़क-पटरी या कोई रास्ता
कोई भी अनपेक्षित निर्माण

खेत सूख जाने पर भी
दह जाने पर भी
बहुत कुछ सह जाने पर भी
किसान का हाथ लगते ही
बन जाते हैं फिर खेत
अगली फसल के लिए।

संपर्क-
राजीव कुमार त्रिगर्ती
गांव- लंघु डाकघर -गांधीग्राम
तहसिल- बैजनाथ
जिला - कांगड़ा,हिमाचल प्रदेश 176125

मोबा0-09418193024

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