रविवार, 4 सितंबर 2016

अनगढ़ शिलाओं पर समय का हस्ताक्षर है शिक्षा : आरसी चौहान



शिक्षक दिवस की पूर्व संध्या पर एक आलेख

संक्षिप्त परिचय
आरसी चौहान
Aarsi chauhan

शिक्षा- परास्नातक-भूगोल एवं हिन्दी साहित्य,पी0 जी0 डिप्लोमा-पत्रकारिता, बी0एड0, नेट-भूगोल
सृजन विधा-गीत,  कविताएं, लेख एवं समीक्षा आदि
प्रसारण-आकाशवाणी इलाहाबाद, गोरखपुर एवं नजीबाबाद से
प्रकाशन-नया ज्ञानोदय, वागर्थ, कादम्बिनी, अभिनव कदम,इतिहास बोध, कृतिओर ,जनपथ, कौशिकी , हिमतरू, गुफ्तगू ,  तख्तोताज, अन्वेषी , गाथान्तर , र्वनाम  ,  हिन्दुस्तान , आज , दैनिक जागरण ,अमृत प्रभात, यूनाईटेड भारत, गांडीव, डेली न्यूज एक्टिविस्ट, प्रभात खबर एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाएं तथा बेब पत्रिकाओं में
संकेत 15 के कविता केन्द्रित अंक में कविताएं प्रकाशित
अन्य- 1-उत्तराखण्ड के विद्यालयी पाठ्य पुस्तकों की कक्षा-सातवीं एवं आठवीं के सामाजिक विज्ञान में लेखन कार्य 
2- ड्राप आउट बच्चों के लिए , राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान की पाठ्य पुस्तकों की कक्षा- छठी , सातवीं एवं आठवीं के सामाजिक विज्ञान का लेखन व संपादन
3- हिंदी साहित्य कोश, भारतीय भाषा परिषद  -    
 पहला खंड : उत्तराखण्ड: लोक परम्पराएं सुधारवादी आंदोलन 
 दूसरा खंड : सिद्धांत,अवधारणाएं और प्रवृत्तियां - प्रकृति और पर्यावरण 
 4- “पुरवाई  पत्रिका का संपादन         
Blog - www.puravai.blogspot.com

अनगढ़ शिलाओं पर समय का हस्ताक्षर है शिक्षा
आरसी चौहान
Aarsi chauhan

        किसी भी देश के विकास का मूलमंत्र शिक्षा है। शिक्षा से ही हम साकारात्मक दिशा में कदम बढ़ा सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति शिक्षा के प्रति जिम्मेदाराना रवैया अपनाते हुए ज्ञान के प्रकाश से अज्ञानता के अंधकार को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है़ । यह हर व्यक्ति की नैतिक जिम्मेवारी बनती है कि अच्छे संस्कार और आचरण हर नागरिक में पुष्पित और पल्वित करे जिससे देश स्वंमेव बुलंदियों पर पहुंच सके। यह तभी सम्भव हो सकता है जब हम आतंकवाद, भ्रष्टाचार, क्षेत्रवाद व साम्प्रदायिक जैसी ताकतों को जड़ से समाप्त करने हेतु दृढ़ संकल्प रत हों।

          आज हम भागम दौड़ के जिस वैश्विक चौराहे पर खड़े हैं उसकी सड़कों के आदि और अंत का कोई मुकम्मल ठौर-ठिकाना नहीं है। हम अपने ज्ञान को विश्व का सबसे बड़ा संसाधन मानकर सिर आसमान में टांग दिये हैं। हमारी शिक्षा व्यवस्था में खतरनाक शतरंजी चालों का जो दौर जारी है वह आने वाले समय के लिए शुभ संकेत तो कत्तई नहीं कहा जा सकता। तथा कथित अपने को बौद्धिक कहलाने वाले शतरंज की विशात में प्यादों की भूमिका से ज्यादा कुछ नहीं हैं। इनकी शहादत पर ही किसी राजा की हार और जीत सुनिश्चित होती है। इस शतरंजी विशात में राजा को कभी मरते हुए नहीं देखा है मैंने।

          हर घर तक शिक्षा की जोत जलाने की बात करने वाली केन्द्र सरकार व राज्य सरकारें भी क ख ग से ज्यादा कुछ नहीं कर पातीं। शिक्षकों की कमी से जूझ रहे प्राथमिक व जूनियर विद्यालयों की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। अधिकांश गांवों तक विद्यालयों को पहुंचाना सरकार के एजेण्डे में तो शामिल है लेकिन शिक्षा का कोई भी मानक पुरा होता हो कुछ अपवादों को छोड़कर ऐसा कहीं दिखता नहीं। ऐसी शिक्षा देना कहां तक समीचिन है जहां एक ही शिक्षक पांच पांच कक्षाओं को एक साथ देख रहा है। इसके अलावा भोजन की व्यवस्था भी तो इन्हें ही देखनी पड़ती है। आखिरकार हमारी सरकार का आम आदमी के बच्चों के साथ किस तरह की मंशा है। वह इनको किस तरह की शिक्षा देना चाहती है। आगे चलकर इन्हें वह क्या बनाना चाहती है। ऐसे कई सवाल हैं जो दिमाग को मथते रहते हैं। या क्या वह शिक्षा को बाजार की बिकाऊ माल बनाकर  बोली लगाने में ही अपना विकास समझती है।

                बेसिक व जूनियर स्कूलों में शिक्षा में आयी गिरावट एकल अध्यापक का होना है। जबकि कहीं कहीं तो अध्यापकपूर्ण विद्यालय भी अपवाद बने हुए हैं। अधिकारियों की निस्क्रियता भी कम जिम्मेवार नहीं है। अध्यापकों एवं अन्य कर्मचारियों का स्थानिय होना भी एक महत्वपूर्ण कारण है। इनके द्वारा लेट लतिफी व आए दिन स्कूल से गायब रहना एक कड़वी सच्चाई है जबकि स्कूल समय से पूर्व या बीच में स्कूल से भाग जाना भी एक समस्या है। कभी कभी बिना स्वीकृत अवकाश के घर रहना और स्कूल वापस आने पर उपस्थिति पंजिका में अपनी उपस्थिति बना देना भी कम गैर जिम्मदरानापूर्ण रवैया नहीं है। कई सारे अध्यापकों को मैं जानता हूं जो उपस्थिति पंजिका को अपने साथ लेकर चलते हैं। ऐसे अध्यापकों का आप क्या कर लेंगे। जहां इसे रखने के लिए स्कूल में आलमारी या बाक्स तक नहीं हैं। हैं भी तो जर्जर अवस्था या टूटी फुटी अवस्था में । अगर ठीक भी हैं तो जानबूझकर तोड़ दिया गया है। अपने को बचने बचाने लिए ऐसे हथियारों की लम्बी फेहरिश्त है।

            आए दिन उच्च अधिकारियों द्वारा स्कूलों का औचक निरिक्षण तो किया जाता है परन्तु वहां शिक्षा की गुणवत्ता पर कभी कोई बात नहीं होती। आपने रजिस्टरों के पेट भरे कि नहीं , डायरी बनायी कि नहीं , स्कूल में आयी विभिन्न धनराशि का सही प्रयोग हुआ कि नहीं आदि सवालों की अंधाधुंध गोलियां अध्यापकों के सीने में दाग दी जाती हैं। ऐसे में अधिकांश अध्यापक भी सरकारी आदेशों के पालन को ही अपना कर्तव्य समझते हैं और शिक्षा जाए चूल्हाभाड़ में जैसी कहावत को चरितार्थ करते हैं।

          सबको समान शिक्षा का अधिकार केवल चौदह साल तक के बच्चों के लिए ही क्यों ? बी0 टेक , एम0 टेक, एम0बी0बी0एस0,एम0डी0, पी0एच0डी0 करने वालों तक को क्यों नहीं ? जिसमें कंपीटिशन परीक्षा पास करने वालों को उपर्युक्त शिक्षा एवं अन्य शिक्षाएं जो भी हों निशुल्क उपलब्ध करायी जाएं और रोजगार की गारंटी भी दी जाए इस शर्त के साथ कि पढ़ाई में हुए खर्च के बराबर सेवाएं देश या राज्य के लिए देनी पड़ेगी। बाकि को उनकी योग्यता के अनुसार रोजगार उपलब्ध कराएं जाएं। अन्यथा कि स्थिति में वे अपनी इच्छानुसार काम कर सकते हैं।

               खैर चाहे जो भी हो, शिक्षा के स्तर को बनाने में शिक्षक,अभिभावक व छात्र तीनों के त्रिभुजीकरण की भूमिका से इन्कार नहीं किया जा सकता। सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों के अभिभावक या तो अनपढ़ होते हैं या काम की तलाश में घर से दूर होते हैं या दिहाड़ी मजदूर। ऐसे में इनके बच्चों में अभावों की अंतहिन श्रृंखला कुमार्ग की ओर ले जाने की ओर प्रेरित करती है। इनमें कई तरह की बुरी आदतें पड़़ती चली जाती हैं। फिर इनको इससे पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाता है। अधिकांश विद्यालयों में एकल शिक्षक का होना भी हमारी शिक्षा के साथ दुराचार ही है। वहीं दो चार बच्चों के सहारे विद्यालयों को चलाना भी कम अनैतिक नहीं है।

              आखिर शिक्षा के स्तर में हो रही निरंतर गिरावट के लिए जिम्मेवार कौन है। एक ओर हमारी सरकार घर घर तक शिक्षा पहुंचाने की बात करती है। गांव गांव स्कूल बनवाती है। लेकिन वही ढाक के तीन पात वाली कहावत चरितार्थ होती है। अगर हमारी सरकार नवोदय विद्यालय, केंद्रिय विद्यालय, कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय, माडल स्कूल बनवा सकती है तो संकुल विद्यालय बनवाने में क्या परेशानी है। आठ से दस किलो मीटर के दायरे में एक संकुल विद्यालय हो जहां कक्षा एक से बारहवीं तक की पढ़ाई की व्यवस्था एक ही कैम्पस में हो। जिनका बाडी गवर्नेंस एक हो । हास्टेल की व्यवस्था के साथ स्कूल बसें भी हों ताकि दूर दराज के गांवों के बच्चों को आसानी से लाया जा सके। अगर बड़ी गाड़ियों के संचालन की पहुंच न हो तो छोटी गाड़ियों की व्यवस्था की जा सकती है। अगर यह भी असंभव हो तो हास्टेल की सुविधा का लाभ लिया जा सकता है। अगर छोटे बच्चों के लिए यह भी असंभव सा लगे तो साथ में उनके एक अभिभावक को बच्चे की देख रेख के लिए कुछ दिनों के लिए रखा जा सकता है। जिसमें इनके लिए अलग से हास्टेल हो।

            तमाम संसाधनों के अभाव के बावजूद भी शिक्षा पाने की ललक व जागरूकता वालों को कुछ बाधाओं का जरूर सामना करना पड़ता है लेकिन लक्ष्य देर सबेर मिल ही जाता है। लेकिन ऐसे कारनामें कितने कर पाते हैं । कहीं न कहीं हमारी शिक्षा व्यवस्था में खतरनाक सूराख है जिसके निर्माता हमारे ही नौकरशाह हैं की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता।

        शिक्षा के विकास में आधारभूत संरचना जैसे साफ सुथरे कमरे, बैठने की उचित व्यवस्था, पढाई लिखाई में आने वाने वाले विभिन्न संसाधनों, स्वच्छ पेयजल , संतुलित आहार ,शौचालयों की व्यवस्था व खेलने के मैदान इत्यादि का भी महत्वपूर्ण स्थान है। लेकिन जब इनके व्यवस्थापक ही ऊपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार के समुद्र में आकंठ डूबे हों तो क्या कहा जा सकता है ?

           शिक्षा से सर्वांगिड़ विकास तभी हो सकता है जब हम अपनी इच्छाएं अपने बच्चों पर न थोपकर बल्कि बच्चों को अपना मार्ग स्वयं ही स्वतंत्र रूप से चुनने दें । हम उनकी मदद कर सकते हैं। उन्हें अध्यापक ,डाक्टर या इंजिनियर बनना है का विकल्प सुझा सकते हैं परन्तु जबरदस्ती उनपर थोप नहीं सकते। हमारी भूमिका टैªफिक पुलिस की तरह होनी चाहिए जिसमें किसी को लाल सिग्नल द्वारा हरा सिग्नल होने तक रोका जा सकता है लेकिन उसकी दिशा को नहीं बदला जा सकता ।

शिक्षा को सही पटरी पर लाने के लिए कुछ सुझावों पर विचार किया जा सकता है-

1.स्कूलों में विभिन्न कार्यों का सतत मूल्यांकन हो जिसमें लापरवाही न बरती जाए
2.गुणवत्ताहिन सरकारी विद्यालयों की जिम्मेदारी निजी क्षेत्र को सौंप दी जाए
3.सभी वर्ग के लोगों को एक समान शिक्षा दी जाए
4.रटने की प्रवृति से मुक्त रखा जाए
5.शैक्षिक पाठ्यक्रम की पुस्तकों में बच्चों के विचारों व रूचियों का भी ध्यान रखा जाए
6.शिक्षा का मुख्य उद्देश्य रोजगारोन्मुखी हो
7.बच्चे को किसी भी तरह के दबाव से मुक्त रक्खा जाए जिसमें शारीरिक व मानसिक दोनों हो सकते हैं
8.शिक्षा को आनंददायक बनाया जाए
सब पढ़ें सब बढ़ें जैसे नारों को आसमान की बुलंदियों तक तभी पहुंचाया जा सकता है जब हम सबके इरादे नेक हों और एक दूसरे के प्रति ईमानदार कोशिश  के साथ सहयोग की भावना बनाये रखें।

संपर्क   - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
मोबा0-08858229760 ईमेल- puravaipatrika@gmail.com

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