मंगलवार, 20 मार्च 2018

विस्थापन का दर्द आज भी सालता है : साक्षात्कार




             बाएं से श्री रामदेव धुरंधर जी दाएं गोवर्धन यादव

     मारीशस के प्रख्यात साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी को श्रीलाल शुक्ल स्मृति इफ़को साहित्य सम्मान जिसमें उन्हें ग्यारह लाख  रुपये एवं प्रश्स्ति पत्र देकर 31 जनवरी 2018 को दिल्ली में सम्मानित किया गया।
उनका साक्षात्कार इंटरनेट के माध्यम से लिया है गोवर्धन यादव ने । प्रस्तुत है साक्षात्कार की कड़ियां ……क्रमश:

गोवर्धन यादव - लगभग देढ़-दो सौ साल पहले बिहार से कुछ लोगों को बतौर ठेके पर/मजदूर बनाकर मॉरिशस लाया गया था संभवतः आपकी यह चौथी अथवा पांचवीं पीढी होगी क्या विस्थापन का दर्द आज भी आपको सालता है?

धुरंधर जी - भारतीय मज़दूरों का पहला जत्था सन् 1834 में मॉरिशस लाया गया था। मेरे पिता का जन्म - वर्ष 189था। प्रथम भारतीयों का मॉरिशस आगमन [1834] और मेरे पिता के जन्म के बीच 63 सालों का फासला है। तब भी भारत से लोगों को इस देश में लाया जाना ज़ारी था। इस दृष्टि से मेरे पिता मेरे लिए इतिहास के सबल साक्षी थे। भारतीयों को लाकर गोरों की ज़मींदारी के झोंपड़ीनुमा घरों में बसाया जाता था। तब भारतीयों के दो वर्ग हो जाते थे। एक वर्ग के लोग वे होते थे जिन्हें जहाज़ से उतरने पर गोरों की ओर से बनाये गये झोंपड़ीनुमा घरों में रखा जाता था। वे गोरों के बंधुआ जैसे मज़दूर होते थे। दूसरे वर्ग के लोग वे हुए जो भारत से सब के साथ जहाज़ में आते थे, लेकिन काट - छाँट जैसी नीति में पगे होने से वे गोरों के खेमे में चले जाते थे। वे सरदार और पहरेदार बन कर अपने ही लोगों पर कोडों की मार बरसाते थे। 
विस्थापन का दर्द तो उन अतीत जीवियों का हुआ जो इस के भुक्तभोगी थे। मैं उन लोगों के विस्थापन वाले इतिहास से बहुत दूर पड़ जाता हूँ। परंतु मैं पीढ़ियों की इस दूरी का खंडन भी कर रहा हूँ। कहने का मेरा तात्पर्य है उन लोगों का विस्थापन मेरे अंतस में अपनी तरह से एक कोना जमाये बैठा होता है और मैं उसे बड़े प्यार से संजोये रखता हूँ। इसी बात पर मेरा मनोबल यह बनता है कि मैं भारतीयों के विस्थापन को मानसिक स्तर पर जीता आया हूँ। यहीं नहींबल्कि मैं तो कहूँ अपने छुटपन में मैं अपने छोटे पाँवों से इतिहास की गलियों में बहुत दूर तक चला भी था।

गोवर्धन यादव कहावत है कि धरती से एक पौधे को उखाड़ कर दूसरी जगह लगाया जाता है तो उसे पनपने में काफ़ी समय लगता है / कभी पनप भी नहीं पाता शायद यही स्थिति आदमी के साथ भी होती है कि उसे विस्थापन का असह्य दर्द झेलना पडता है और अनेक कठिनाइयों / अवरोधों के बाद वह सामान्य जिंदगी जी पाता है उन तमाम लोगो के पास वह कौनसा साधन था कि वे अपने को जिंदा रख पाए और अपनी अस्मिता बचाए रख सके?

धुरंधर जी - जहाज़ में तमाम उत्पीड़न झेलते ये लोग मॉरिशस पहुँचे थे। अपना जन्म देश पीछे छूट जाने का दर्द इन के सीने में सदा के लिए रह गया था। इस देश में आने पर सब से पहले इन की महत्त्वाकाक्षाएँ ध्वस्त हुई थीं इसलिए विस्थापन इन्हें बहुत सालता रहा होगा। बहुत से लोग तो बंदरगाह में डाँट - फटकार और तमाम शोषण जैसी प्रवृत्तियों से टूट कर रोने लगते थे और उन के ओठों पर एक ही चीत्कार होता था मुझे मेरे देश वापस भेज दिया जाए। यह मान्यता अब भी मॉरिशस में पुख्त ही चलती आई है कि भारतीयों को इस ठगी से लाया गया था वहाँ पत्थर उलाटने पर सोना पाओगे। उन लोगों की महत्त्वाकाक्षाओं में से यह एक रही होलेकिन इस का विखंडन तो तभी शुरु हो गया होगा जब वे जहाज़ में सवार होने पर अत्याचार से चिथड़े हो रहे होंगे। ओछी मानसिकता के बंधन में यहाँ आने पर कौन याद रखता। क्या - क्या पाने इस देश में आए थे। बल्कि जो मन का संस्कार थाइज्ज़त आबरू का अपना जो अपार पारिवारिक वैभव था सब दाव पर ही तो लगते चले गए थे। तब तो दर्द यहाँ ज्यों - ज्यों गहराता होगा विस्थापन की आह प्रश्न बन कर ओठों पर छा जाती होगी --अपनी मातृभूमि छोड़ने की मूर्खता भरी अक्ल किस स्रोत से आई होगी?
भारत से विस्थापित लोगों का 1834 के आस पास मॉरिशस आगमन शुरु जब हुआ था तब उन में ऐसे लोग तो निश्चित ही थे जो भारतीय वांङ्मय के अच्छे जानकार थे। उन्हीं लोगों ने तुलसी मीरा कबीर तथा अन्यान्य कवियों की कृतियों का यहाँ प्रचार किया था। शादी के गीतभक्ति काव्य और इस तरह से भारतीय कृतियों और संस्कृति का इस देश में विस्तार होता चला गया था। जो साधारण लोग थे उन के अंतस में भी समाने लगा था कि अपने भारत की इतनी सारी धरोहर होने से हम इस देश में अपने को धन्य पा रहे हैं। कालांतर में भोलानाथ नाम के एक सिक्ख सिपाही ने सत्यार्थ प्रकाश ला कर यहाँ के लोगों को उस से परिचित करवाया। इस देश में यथाशीघ्र आर्य समाज की लहर चल पड़ी थी। यह सामाजिक चेतना की कृति थी। इस की आवश्यकता थी और यह सही वक्त पर लोगों को उपलब्ध हुई थी।

गोवर्धन यादव - मॉरिशस गन्ने की खेती के लिए मशहूर रहा है निश्चित ही आपके पिताश्री भी गन्ने के खेतों में काम करते रहे होंगे वे बीते दिनों की तकलीफ़ों के बारे में आपको सुनाते  भी रहे होंगे कि किस तरह से उन्हें पराई धरती पर यातनाएं सहनी पड़ी थी ?

धुरंधर जी - मेरे किशोर काल में मेरे पिता मुझे इस देश में आ कर बसे हुए भारतीयों की वेदनाजनित कहानियाँ सुनाया करते थे। अपने पिता से सुना हुआ भारतीयों का दुख - दर्द मेरी धमनियों में बहुत गहरे उतरता था। यह तो बाद की बात हुई कि मैं लेखक हुआ। परंतु कौन जाने मेरे पिता अप्रत्यक्ष रूप से मुझे लेखन कर्म के लिए तैयार करते थे। वे मेरे लिए अच्छी कलम खरीदते थे। पाटीपुस्तक और पढ़ाई के दूसरे साधनों से मानो वे मुझे माला माल करते थे। मेरे पिता अनपढ़ थेलेकिन उन्हें ज्ञात था सरस्वती नाम की एक देवी है जिस के हाथों में वीणा होती है और उसे विद्या की देवी कहा जाता है। मेरे पिता ने सरस्वती का कैलेंडर दीवार पर टांग कर मुझ से कहा था विद्या प्राप्ति के लिए नित्य उस का वंदन करूँ। वह एक साल के लिए कैलेंडर थालेकिन उसे मूर्ति मान कर हटाया नहीं जाता था। वर्षों बाद हमारा नया घर बनने के बाद ही किसी और रूप में मेरे जीवन में सरस्वती की स्थापना हुई थी।

गोवर्धन यादव - निश्चित ही उनकी उस भयावह स्थिति की कल्पना मात्र से आप भी विचलित हुए होंगे और एक साहित्यकार होने के नाते आपने उस पीडा को अपनी कलम के माध्यम से व्यक्त करने की कोशिश की है?

धुरंधर जी - मैंने बहुत सी विधाओं में लेखन किया है और अपने देश से ले कर अंतरसीमाओं तक मेरी दृष्टि जाती रही है। यहाँ मेरे पूर्वजों के विस्थापन का संदर्भ अपने तमाम प्रश्नों के साथ मेरे साथ जुड़ जाने से मैं अपने उसी लेखन की यहाँ बात करूँगा जो विस्थापन से संबंध रखता है।
           मैंने ‘इतिहास का दर्द’ शीर्षक से एक नाटक  [1976 ] लिखा था जो पूरे देश में साल तक विभिन्न जगहों में मंचित होता रहा था। यह पूर्णत: भारतीयों के विस्थापन पर आधारित था। मेरे लिखे शब्दों को पात्र मंच पर जब बोलते थे मुझे लगता था ये प्रत्यक्षत: वे ही भारतीय विस्थापित लोग हैं जो मॉरिशस आए हैं और आपस में सुख - दुख की बातें करने के साथ इस सोच से गुजर रहे हैं कि मॉरिशस में अपने पाँव जमाने के लिए कौन से उपायों से अपने को आजमाना ज़रूरी होगा।
     अपने लेखन के लिए मैंने भारतीयों का विस्थापन लिया तो यह अपने आप सिद्ध हो जाता है मैंने उन के सुख - दुखआँसूशोषणगरीबीरिश्ते सब के सब लिये। मैंने लिखा भी है मैं आप लोगों के नाम लेने के साथ आप की आत्मा भी ले रहा हूँ। मैं आप को शब्दों का अर्घ्य समर्पित करना चाहता हूँअत: मेरा सहयोगी बन जाइए। उन से इतना लेने में हुआ यह कि मैं भी वही हो गया जो वे लोग होते थे। किसी को आश्चर्य होना नहीं चाहिए अपने देश के इतिहास पर आधारित अपना छ: खंडीय उपन्यास ‘पथरीला सोना लिखने के लिए जब मैं चिंतन प्रक्रिया से गुजर रहा था तब मैं उन नष्टप्राय भित्तियों के पास जा कर बैठता था जिन भित्तियों के कंधों पर भारतीयों के फूस से निर्मित मकान तने होते थे। जैसा कि मैंने ऊपर में कहा ये मकान उन के अपने न हो कर फ्रांसीसी गोरों के होते थे। उन मकानों में वे बंधुआ होते थे। मैंने उन लोगों से बंधुआ जैसे जीवन से ही तारतम्य स्थापित किया और लिखा तो मानो उन्हीं की छाँव में बैठ कर। बात यह भी थी कि भारतीयों के उन मकानों या भित्तियों का मुझे चाहे एक का ही प्रत्यक्षता से दर्शन हुआ होअपनी संवेदना और कल्पना से मैंने उसे बहुत विस्तार दिया है। तभी तो मुझे कहने का हौसला हो पाता है मैंने उसे भावना के स्तर पर जिया है। पर्वत की तराइयों के पास जाने पर मुझे एक आम का पेड़ दिख जाए तो मेरी कल्पना में उतर आता है मेरे पूर्वजों ने अपने संगी साथियों के साथ मिल कर इसे रोपा था। मेरे देश में तमाम नदियाँ बहती हैं जिन्हें मैंने मिला कर मनुआ नदी नाम दिया है। इसी तरह पर्वत यहाँ अनेक होने से मैंने बिंदा पर्वत नाम रख लिया और आज मुझे सभी पर्वत बिंदा पर्वत लगते हैं। मैंने सुना है दुखों से परेशान विस्थापित भारतीयों की त्रासदी ऐसी भी रही थी कि पर्वत के पार भागते वक्त उन के पीछे कुत्ते दौड़ाये जाते थे। कुआँ खोदने के लिए भेजे जाने पर ऊपर से पत्थर लुढ़का कर यहाँ जान तक ली गई हैं। बच्चे खेल रहे हों और कोई गोरा अपनी घोड़ा बग्गी में जा रहा हो तो आफ़त आ जाती थी। यह न पूछा जाता था स्कूल क्यों नहीं जाता। कहा जाता था बड़े हो गए हो तो खेतों में नौकरी करने क्यों नहीं आते हो। पर ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में यह लिखित मिलने की कोई आशा न करे,क्योंकि लिखने की कलम उन दिनों केवल फ्रांसीसी गोरों की होती थी।

गोवर्धन यादव -  भारत छॊडने से पहले लोग अपने साथ धार्मिक ग्रंथों को भी ले गए थे कठिन श्रम करने के बाद वे इन ग्रंथों का पाठ करते और अपने दुखों को कम करने का प्रयास करते थे इस तरह वे अपनी परम्परा और संस्कार को बचा पाए यह वह समय था जब क्रिस्चियन मिशनरी अपने धर्म को फ़ैलाने के लिए प्रयासरत थे निश्चित ही वे इन पर दबाव जरुर बनाते रहे होंगे कि भारतीयता छोड़कर ईसाई बन जाओ

धुरंधर जी - भारतीय मज़दूरों के मॉरिशस आगमन के उन दिनों में यहाँ विशेष रूप से धर्म,संस्कृतिआचरणपूजारामायण गानसंस्कारनीति जैसे बहुमूल्य सिद्धांतों पर विशेष रूप से बल दिया जाता था। उन दिनों की स्थिति को देखते हुए  ऐसा होना हर कोण से आवश्यक था। ऐसा न होता तो मॉरिशस का भारतीय मन डगमगा गया होता और तब अनर्थ की काली स्याही सब के चेहरे पर पुत जाती। इस देश के उस क्रूर इतिहास को आज भी याद रखता जाता है। ईसाईयत के प्रचार के लिए ईसाई वर्ग के लोग भारतीय वंशजों के घर पहुँचते थे और लंबे समय तक द्वार पर खड़े हो कर उन के दिमाग में डालने की कोशिश करते थे आप इतनी आज्ञा तो दें ताकि हम आप के घर में ईसाईयत का पौधा बो कर ही लौटेंगे। आप हमारे लिए इतना करें हमारे दिये हुए मंत्रों से उस पौधे का सींचन करते रहें। फिर एक दिन ऐसा आएगा जब ईसाईयत का वह पौधा बढ़ कर छतनार हो जाएगा तब बड़ी सुविधा के साथ आप के बच्चे उस की छाया में पनाह पाना अपने लिए सौभाग्य मानेंगे। ईसाईयत की उस लहर ने यदि अपनी चाह के अनुरूप हमारे घरों में प्रवेश पा ही लिया होता तो बहुत पहले मॉरिशस में भारतीयता की छवि धूमिल हो गई होती। सौभाग्य कहें कि भारतीय संस्कार लोगों के सिर पर चढ़ कर बोलता था तभी तो लोग बाहरी झाँसे में भ्रमित होने की अपेक्षा अपने संस्कार में और गहरी श्रद्धा से आबद्ध होते जाते थे। निस्सन्देह धार्मिक संस्थाओं ने इस क्षेत्र में बहुत काम किया था। प्रसंगवश यहाँ मुझे कहना पड़ रहा है आज की तरह विच्छृंखल संस्थाएँ न हो कर उस ज़माने की संस्थाएँ अपने लोगों के प्रति समर्पित और भाव प्रवण हुआ करती थीं। सेवा करो और बदले में फल की कामना मत करो। ईश्वर को इस बात के लिए आज हम धन्यवाद तो दें अपनी ही फूट और ईर्ष्या जैसे अनाचार के बावजूद हमारी सांस्कृतिक विरासत निश्चित ही व्यापक अडिग और सर्वमान्य चली आ रही है। विशेष कर धार्मिक कृतियाँ पूजा पाठ और धार्मिक वंदन की गरिमा को उच्चतर बनाने में अपना सहयोग ज्ञापित करने में कोई कमी नहीं छोड़तीं।
 ……क्रमश:

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