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शनिवार, 31 अगस्त 2013

हिंदी हाइगा के लिए महायज्ञ

संपादिका ऋता शेखर का हिंदी हाइगा के लिए महायज्ञ-"हिंदी-हाइगा"

-डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

हाइकु, हिंदी हाइकु, हाइगा और अब हिंदी हाइगा. जापान से नि:सृत यह विधा अब केवल जापानी भाषा की ही नहीं रह गयी, बल्कि दुनिया की अन्य भाषाएँ भी इस पर अपना प्यार छलका रही हैं. जिस प्रकार अरबी भाषा की काव्य-विधा ग़ज़ल ने अपने मोहपाश में विभिन्न भाषाओँ को क़ैद कर लिया, वही कशिश हाइकु में भी है. हिंदी के साहित्यकार भी हाइकु काव्य-विधा के आकर्षण, भाव ग्राह्य-क्षमता, गंभीरता तथा गहराई से प्रभावित हुए और हाइकु हिंदी साहित्य में उपस्थित हो गया. आज विपुल मात्रा में हाइकु लिखे जा रहे हैं. पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रहे हैं. नए-नए संकलन आ रहे हैं. आज हाइकु पर गोष्ठियां व सेमिनार आयोजित हो रहे हैं। ये सब निश्चित रूप से हाइकु की दिनोंदिन बढ़ती जा रही लोकप्रियता के प्रमाण हैं.
जापानियों की हर तकनीक का विकास नैनो टेक्नोलोजी अर्थात सूक्ष्म तकनीक पर आधारित है और उनके निरंतर विकास करने व गतिशील होने का सर्वाधिक प्रबल प्रमाण यह 'सूक्ष्म से सूक्ष्मतम की ओर प्रवाह' है। संभवत: इसी सोच का परिणाम हाइकु भी रहे होंगे. जब जापानी साहित्य के अभियंताओं ने सूक्ष्मतम छंद की कल्पना की होगी तो निश्चित रूप से 'गागर में सागर' या 'बिंदु में सिन्धु' की तलाश में  हाइकु ने अपना आकार ग्रहण कर लिया होगा. इस सूक्ष्मतम छंद को प्रतिष्ठा प्रदान करने का श्रेय मात्सुओ बाशो (१६४४-९४) को जाता है. सत्रहंवी सदी में जापान में उद्भूत इस छंद को वर्तमान में अनेक भाषाओँ ने आत्मसात कर लिया है. भारत में हाइकु लाने का श्रेय कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर को जाता है. वर्तमान में हिंदी ने हाइकु के साथ-साथ हाइगा का भी अनुकरण किया है. हाइगा जापानी चित्रकला तकनीक की एक विशिष्ट शैली है, जिसका तात्पर्य है- 'चित्र हाइकु'. इसे हम इस प्रकार से भी कह सकते हैं की हाइकु को उसी के अनुकूल चित्र के साथ समायोजित कर देने की कला हाइगा है. हाइगा की शुरुवात भी सत्रहंवी सदी में जापान में ही हुई. अत: हाइगा को हाइकु आधारित चित्रमय कविता कह सकते हैं.
हिंदी में हाइकु के जितने प्रयास हुए हैं, उस दृष्टि से हाइगा के प्रयास बहुत नहीं हुए हैं. हिंदी हाइगा के क्षेत्र में किये जा रहे प्रयास व कार्य अभी भी न्यून हैं. इस क्रम में सुश्री ऋता शेखर 'मधु' का नाम आज की तारीख में अग्रणी है, जिन्होंने इंटरनेट में एक ब्लॉग (www.hindihaiga.blogspot.com) के माध्यम से हिंदी हाइगा के उन्नयन का बीड़ा उठाया है. विभिन्न हाइकुकारों के हाइकुओं को हाइगा का रूप प्रदान कर ब्लॉग के माध्यम से पूरी दुनिया के समक्ष परोसने का यह श्रमसाध्य कार्य वह पूरी तन्मयता एवं सक्रियता से पिछले दो वर्षों से निरंतर कर रही हैं. उनकी इस लगन एवं समर्पण का ही प्रतिफल है कि उनके संपादन में 'हिंदी हाइगा' पुस्तक का प्रकाशन संभव हो सका. जहाँ तक मेरी जानकारी है हिंदी हाइगा के सन्दर्भ में इस प्रकार का यह प्रथम प्रयास है। यह एक समवेत संकलन है, जिसमें देश-विदेश के हिंदी के छत्तीस उत्कृष्ट हाइकुकारों के चुनिन्दा हाइगा सम्मिलित किये गए हैं। वरिष्ठ हाइकु-लेखिका एवं उत्कृष्ट चित्रकारा ऋता शेखर जी के संपादन एवं संयोजन में प्रकाशित यह पुस्तक 'हिंदी हाइगा' अपने आप में अनूठी एवं विशिष्ट है.   
हिंदी हाइगा के क्षेत्र में छिटपुट प्रयासों से दूर यह पुस्तक एकदिशीय लक्ष्य एवं पूर्ण समर्पण का परिणाम हैं. इस सार्थक परिणाम का पूरा श्रेय नि:संदेह 'मधु' जी को जाता है, जिन्होंने एक-एक हाइकुरूपी मनकों को इस प्रकार से इस मालारूपी पुस्तक में पिरोया है कि इस पुस्तक का पाठक-दर्शक पढ़कर-देखकर न केवल 'वाह-वाह' कह उठता है, बल्कि दांतोंतले उंगली दबाने को भी मज़बूर हो जाता है. उत्कृष्ट कार्य सदैव स्वयं बोलता है और यही कार्य इस हिंदी हाइगा पुस्तक में भी किया गया है, जिसकी आभा से चकाचौंध हुए बिना रह पाना मुश्किल है.
इस संकलन में जहाँ एक ओर हिंदी हाइकु के शलाका-पुरुष रामेश्वर कम्बोज 'हिमांशु' जी के हाइगा हैं, वहीँ वरिष्ठ हाइकु-लेखिकाओं डॉ. सुधा गुप्ता, डॉ. हरदीप संधू व डॉ. भावना कुंवर के भी हाइगा भी शामिल हैं. कुछ अन्य स्थापित हाइकुकारों एवं प्रतिभावान नए हाइकूकारों को भी इस संकलन में स्थान मिला है. हाइकु के अन्य स्थापित रचनाकारों में स्वयं संपादिका ऋता शेखर 'मधु', डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति, रवि रंजन, डॉ. अनीता कपूर तथा  प्रियंका गुप्ता आदि के नाम प्रमुख हैं. हाइकुकार दिलबाग विर्क, प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, रचना श्रीवास्तव, डॉ. जेन्नी शबनम, रश्मिप्रभा, नवीन सी. चतुर्वेदी तथा एम. कुश्वंश आदि के हाइगा भी संकलन की आभा में वृद्धि करते हैं.
बड़े आकार की तिरपन पृष्ठ की यह पुस्तक विद्या प्रेस, पटना से प्रकाशित है, जिसके सभी पृष्ठ पूर्णतया रंगीन एवं लेमिनेटेड हैं. पुस्तक का मूल्य पांच सौ उञ्चास रुपये मात्र है.
हिंदी हाइगा के विकास-क्रम में इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए सुश्री ऋता शेखर 'मधु' जी को कोटिक बधाइयाँ। हिंदी हाइकु और हिंदी हाइगा जगत को भविष्य में भी उनसे इस तरह के और संकलनों की अपेक्षा रहेगी।



संपर्क-
अध्यक्ष- अन्वेषी संस्था
24/18, राधा नगर, फतेहपुर (उ.प्र.)-212601
वार्तासूत्र- 9839942005, 8574006355
ई-मेल: doctor_shailesh@rediffmail.com

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ की ग़ज़लें



                                              डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’
(1)

कोस-कोस सरकार को कोस।

महँगाई की मार को कोस।



चुनकर नेता किसने भेजा,

संसद की तकरार को कोस।



लूट-डकैती-हत्या-चोरी,

लोकतंत्र की धार को कोस।



कहीं अयाशी कहीं ग़रीबी,

जी भर पालनहार को कोस।



नाव डुबो दी रामलाल ने,

नाविक की पतवार को कोस।



कंधे ढीले पहले से थे,

उम्मीदों के भार को कोस।



(2)



मन में बोझ लिये बैठा हूँ।

सारा ज़हर पिये बैठा हूँ।



थोड़ी-सी ही उमर बहुत है,

सदियाँ कई जिये बैठा हूँ।



पाप नहीं मिट पाये अब तक,

यूँ तो होम किये बैठा हूँ।



बची रहे मर्यादा तेरी,

अपने होंठ सिये बैठा हूँ।



ढूँढ़ रहा हूँ प्यार अभी तक,

चौवन इश्क़ किये बैठा हूँ।



नहीं हुई सुनवाई अब तक,

अर्ज़ी कई दिये बैठा हूँ।







   € अध्यक्ष - ‘अन्वेषी’

       24/18, राधानगर, फतेहपुर (उ.प्र.) - 212601

      वार्तासूत्र - 9839942005, 8574006355

 


बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

रावण के पुतले

रावण के पुतले


 
 

















  











डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’

मत जलाओ जगह-जगह
रावण के पुतले
आख़िरकार, क्या बिगाड़ा है
रावण ने तुम्हारा!

शताब्दियों पूर्व
भगवान के हाथों मरकर
उसने मोक्ष प्राप्त कर लिया,
वह मुक्त है जन्म-मरण के बंधन से।

रावण का पुतला जलाकर
क्या साबित करना चाहते हो तुम?
........रावण तो तुम्हारे मन में है
अहंकार के वशीभूत हो तुम
रावण को जला पाने की सार्म्थ्य
तुममें नहीं
क्या फ़र्क़ है तब
तुममें और रावण के अहंकार में
सदियों पहले जो
मुक्त हो चुका है
भवसागर के बंधन से
हर साल उसका पुतला
अग्नि को समर्पित कर
आख़िरकार, क्या साबित करना
चाहते हो तुम लोग?
पहले जलाओ
अपने मन के रावण को
पहले मारो
अपने मन के रावण को
अपना अहं त्याग कर सीखो मानवता
अपना चरित्र ऊँचा उठाओ
समाज में समरूपता लाओ।

साल में एक बार
रावण का पुतला जलाकर
साल भर
रावण बने फिरते हो
अपने कुकर्मों से लज्जित
करते हो मानवता को
जातिवाद-वर्गवाद-भाषावाद
के बीज बोते हो
वैमनस्यता की फसल सींचते हो
माँ-बहन-बेटी की आबरू से
खेलते हो......
रहजनी-हत्या-लूट-फिरौती
क्या-क्या नहीं करते हो!
मत जलाओ रावण के पुतले
बार-बार,
पहले शुद्ध करो अपना अन्तःकरण।

रावण तुम सबसे बहुत भला था
सीता मैया को
कभी ग़लत दृष्टि से
नहीं देखा था उसने।
वह खोज रहा था
उनके माध्यम से अपनी मुक्ति।
रावण बहुत ईमानदार था
अपने वचन के प्रति......
विश्वासघात करने पर
कितने राजाओं ने
अपने बन्धु-सहोदरों को
दी हैं क्रूर-यातनायें
और उतार दिया है मौत के घाट,
रावण ने तो विभीषण को
लात मारकर ही भगाया था......
और एक बात सोचो-
कोई काट ले तुम्हारी बहन के
नाक-कान,
क्या तुम माफ़ कर पाओगे उसे?
आखि़रकार, किस प्रकार जी पायेगी
तुम्हारी बहन ताउम्र, सोचो!
अपने मन का अहंकार मिटाओ
रावण के पुतले मत जलाओ।

      सम्पर्क:-  अध्यक्ष - ‘अन्वेषी’
                      24/18, राधानगर, फतेहपुर (उ.प्र.)-212601
                      वार्तासूत्र - 9839942005, 857400635

सोमवार, 23 जनवरी 2012

शैलेष गुप्त ‘वीर’की कविता


                                                                                                                                                               
  संक्षिप्त परिचय

     उत्तर प्रदेश में फतेहपुर के जमेनी नामक गांव में 18 जनवरी1981 को जन्में शैलेष गुप्त ‘वीर’ की राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा संकलनों में गीत, ग़ज़ल, कविता, क्षणिका, हाइकू, दोहे, लघुकथा,   आलेख, आलोचना एवं शोधपत्र आदि का  प्रकाशन हो चुका है।
     इन्होंने प्राचीन इतिहास एवं पुरातत्व विज्ञान में परास्नातक तथा पुरातत्व विज्ञान में पी-एच.डी भी किया है।  बी.एड., एम.जे.एम.सी.(पत्रकारिता एवं जनसंचार) डिप्लोमा इन रसियन लैंग्वेज़, डिप्लोमा इन उर्दू लैंग्वेज़, ओरियन्टेशन कोर्स इन म्यूजियोलॉजी एण्ड कन्ज़र्वेशन में दक्षता के साथ शिक्षा प्राप्त की है।
            इन्होंन गुफ़्तगू (त्रैमासिक), इलाहाबाद, तख़्तोताज (मासिक), इलाहाबाद एवं  पुरवाई (वार्षिक)पत्रिकाओं में सक्रिय रहते हुए 2007 से अन्वेषी पत्रिका के संपादन के साथ- साथ  ‘उन पलों में’ (रागात्मक कविता संकलन)‘आर-पार’ (नयी कविताओं का संकलन)का संपादन भी किया है। 
      इनको हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, रूसी, गुजराती, उर्दू तथा भोजपुरी भाषा में एकाधिकार प्राप्त है।ये मेरे अभिन्न मित्रों में से एक हैं और बहुत निवेदन के बाद एक कविता भेंजी है जिसको पोस्ट करते हुए मुझे बहुत खुशी हो रही है। आप सुधिजनों के बेबाक राय की हमें प्रतीक्षा रहेगी।
 सम्प्रति  : अध्यक्ष-‘अन्वेषी’, साहित्य एवं संस्कृति की प्रगतिशील       संस्था, फतेहपुर।



 




  



















शैलेष गुप्त ‘वीर’की कविता 

वे और हम
1
वे आधुनिक हैं
क्योंकि उन्हें पसंद है
मूर का दर्शन,
इटैलियन फूड
और हालीवुड की हॉरर फ़िल्में।
वे आधुनिक हैं
क्योंकि उन्हें पसंद है
नाइटक्लबों में जाकर
कैबरे-डांस देखना
शैंपेन की बोतल खोलकर
जश्न मनाना।
वे आधुनिक हैं
क्योंकि उन्हें पसंद है
पीसा की झुकी मीनार,
टोरंटो का मौसम
और स्विटजरलैंड की ख़ूबसूरत वादियाँ।
वे आधुनिक हैं
क्योंकि उन्हें पसंद है
परिवार से विलग रहना,
विवाह-पूर्व सहवास
और शादी के बाद
आपसी रजामंदी से अलग रहना।
वे आधुनिक हैं
क्योंकि उन्हें पसंद है
बीवियों का बदलना
और बेटे की गर्लफेन्ड से
चक्कर चलाना।
वे आधुनिक हैं
क्योंकि उन्हें पसंद है
अन्तर्राष्ट्रीय ख़बरें/सिगरेट का धुआँ
और पेरिस की शराब।
वे सचमुच आधुनिक हैं
क्योंकि उन्हें पसंद है
वेस्टर्न कल्चर/वेस्टर्न लाइफस्टाइल
इसलिये उन्हें पसंद है
आधुनिक की बजाय
माडर्न कहलाना। 
2
हम पिछड़े हैं
क्योंकि हमें पसंद है
आचार्य शंकर का अद्वैत वेदान्त,
पाव-भाजी
और बालीवुड की सामाजिक फ़िल्में।
हम पिछड़े हैं
क्योंकि हमें पसंद है
देर रात तक
अम्मा-बाबू के पैर मींजना
और बग़ैर शैम्पेन के ही
जश्न मना लेना।
हम पिछड़े हैं
क्योंकि हमें पसंद है
आगरे का ताज/कुल्लू का दशहरा
और ऊटी की प्राकृतिक छटा।
हम पिछड़े हैं
क्योंकि हमें पसंद है
संयुक्त परिवार/शादी के बाद बच्चे
और सात जन्मों के रिश्ते।
हम पिछड़े हैं
क्योंकि हमें पसंद है
जीवन भर/एक ही स्त्री के साथ रहना
और बहू के सर पर/पल्लू का रिवाज़।
हम पिछड़े हैं
क्योंकि हमें पसंद है
अन्तर्राष्ट्रीय ख़बरों के साथ
आंचलिक व देशी समाचार,
पान का बीड़ा
और ताज़े दही की लस्सी।
हम वाकई पिछड़े हैं
क्योंकि हमें पसंद है
भारतीय संस्कृति,
भारतीय आचार-विचार।
  
  सम्पर्क&    24/18, राधानगर, फतेहपुर (उ.प्र.) - 212601
                    वार्तासूत्र - 9839942005, 8574006355