रविवार, 25 नवंबर 2012

आया है एक नया सवेरा



चातुरमास
सोनल भट्ट कक्षा-12

हे ! चातुरमास तू हर वर्ष आना
मेरी धरती को उसका गहना देना
खेतों में झूमती फसलें लाना
कृषकों को उनकी मेहनत का फल देना।

देना तू हमको सब कुछ
परंतु कभी भी किसी को आपदा मत देना
किसी की बस्ती मत उजाड़ना
ना ही किसी को अपनों से बिछुड़ाना

हे ! चातुरमास तू ऐसे आना
सबके चेहरे में खुशियाँ लाना
ना किसी के घर तोड़ना
ना जमीन खिसकाना
ना किसी का परिवार लूटना
देना तो बस खुशियाँ देना।

हे!चातुरमास तू ऐसे आना
मानो जैसे बहार आई हो
आना तो बस खुशियाँ लाना
हे ! चातुरमास हर वर्ष आना।

सुबह-सवेरे
दीपक सिंह सामंत कक्षा-12

प्रातः अंबर होता सुनहरा निराला
धरती पर घटाओं ने ऐसा डेरा डाला
मानो हो गया है धरती के कण-2 में गीला
चारों ओर पवन का हो गया बसेरा।
हर पत्ती डाली झूम रही है
ऐसा लगता है जैसे हो समंदर का किनारा
मग्न हैं सभी  इस सुनहरी पुरवाई में
झूम रहा हो जैसे जग सारा
पनघट आँखें खोल रहा हो
मानो जगमगाने को हो जग सारा
गगन अब बोल रहा हो
सूर्योदय होने को है
आया है एक नया सवेरा


प्रस्तुति. महेश चंद्र पुनेठा 


बुधवार, 21 नवंबर 2012

धन्नासेठ प्रकाशक और हिन्दी कवि की विपन्नता का आख्यान: सौदा



  








अनवर सुहैल



धन्नासेठ प्रकाशक और हिन्दी कवि की विपन्नता का आख्यान: सौदा
 




बाबा नागार्जुन के सृजन के केन्द्र में था आम-आदमी, खेतिहर किसान, मजदूर, हस्तशिल्पी, विकल्पहीन मतदाता, स्त्रियां, हरिजन और हिन्दी का लेखक। बाबा ने बड़ी आसान भाषा में अपनी बात कही ताकि बात का सीधा अर्थ ही लिया जाए। जिस तरह बाबा नागार्जुन अपनी वेशभूषा, रहन-सहन, खान-पान और बोली-बानी में भदेस और सहज थे उसी तरह उनका समूचा लेखन प्रथम दृष्टया तो सरल-सहज-सम्प्रेषणीय नज़र आता है किन्तु उनकी अलंकारहीन भाषा का जादू देर तक पाठक-श्रोता के मन-मष्तिस्क में उमड़ता-घुमड़ता रहता है। नागार्जुन की यही विशेषता उन्हें क्लासिक कवियों की श्रेणी में खड़ा करती है।
मैं सोचता हूं कि आधुनिक हिन्दी का काव्य कितना अपूर्ण होता यदि निराला, मुक्तिबोध, अज्ञेय, केदार और नागार्जुन जैसे लेखकों का सृजन-सहयोग हिन्दी-कविता को न मिला होता। आज का कवि जाने क्यों अपनी परम्परा से दूरी बनाना चाहता है। नागार्जुन की कविता इतनी मारक है कि सीधे टारगेट पर प्रहार करती है और बिना किसी दम्भ के मुस्कुराकर अपनी जीत का ऐलान करती है। शब्द की मारक क्षमता का आंकलन बाबा की विशेषता थी। बाबा जानते थे कि सब कुछ खत्म हो जाएगा लेकिन कविता में फंसे हुए शब्द हमेशा लोगों के दिलों में जिन्दा रहेंगे और ताल ठोंक कर कहेंगे-
‘‘बाल न बांका कर सकी, शासन की बंदूक’’
शब्द की शक्ति यही है।
बक़ौल ग़ालिब-‘‘जो आंख से टपका तो फिर लहू क्या है?’’
नागार्जुन के शब्द बड़े पावरफुल हैं। उनमें ग़ज़ब की धार है, पैनापन है और ज़रूरत पड़ने पर खंज़र की तरह दुश्मन के सीने में उतरने की कला है।
अपने परिवेश की मामूली से मामूली डिटेल बाबा की नज़रों से चूकी नहीं है। बाबा सभी जगह देखते हैं और तरकश से तीर निकाल-निकाल कर प्रत्यंचा पर कसते हैं। इसी तारतम्य में लेखक और प्रकाशक के बीच समीकरण की भी उन्होनें दिलचस्प पड़ताल की है।
हिन्दी के लेखक की दरिद्र आर्थिक-स्थिति और प्रकाशकों की सम्पन्नता को विषय बनाकर बाबा नागार्जुन की एक कविता है ‘सौदा’। ‘सौदा’ यानी ‘डील’। लेखक और प्रकाशक के अंतर्संबंधों की पड़ताल करती कविता ‘सौदा’ में बाबा ने बड़ी सहजता से लेखकों की निरीह-दरिद्रता और प्रकाशकों के काईयांपन को बयान किया है। इस कविता में यूं कहें कि धूर्त प्रकाशकों को बड़े प्यार से चांदी का जूता मारा है। कवि ने प्रकाशक को जो कि मूलतः विक्रेता होता है किन्तु कच्चे माल के रूप में उसे पाण्डुलिपियां तो खरीदनी ही पड़ती हैं। इस हिसाब से ‘सौदा’ में प्रकाशक एक ऐसे खरीददार के रूप में प्रस्तुत किया गया है जिसे प्रत्यक्षतः रचनाओं की ज़रूरत है लेकिन वह विक्रेता पर अहसान भी जताना चाहता है कि न चाहते हुए, घाटे की सम्भावना होते हुए भी वह कवि का तैयार माल खरीदने को मजबूर है। ऐसा इसलिए है कि दुर्भाग्यवश प्रकाशक इस धंधे में फंसा हुआ है। अच्छे करम होते तो वह कोई और काम न कर लेता। काहे रद्दी छापने के काम में फंसा होता। प्रकाशक का दृष्टिकोण पता नहीं दूसरी भाषाओं में कैसा है, किन्तु हिन्दी में तो जो नागार्जुन का अनुभव है वैसा ही खट्टा-कसैला अनुभव कमोबेश तमाम लेखकों को होता है। लेखकों को प्रकाशक की चौखट में माथा रगड़ना ही पड़ता है। सिद्ध करना पड़ता है कि ‘‘हां जनाब, आपने अभी तक जो छापा, वाकई कूड़ा था, लेकिन आप मेरी कृति को तो छापिए, देखिएगा हाथों-हाथ बिक जाएंगी प्रतियां और धड़ाधड़ संस्करण पे संस्करण निकालने होंगे। ये किताब छपेगी तो जैसे प्रकाशन जगत में क्रांति आ जाएगी। आप एक बार हमारे प्रस्ताव पर विचार तो करें।’’
जवाब में प्रकाशक यही कहता रहेगा--
‘‘लेकिन जनाब यह मत भूलिए कि डालमिया नहीं हूं मैं,
अदना-सा बिजनेसमैन हूं
खुशनसीब होता तो और कुछ करता
छाप-छाप कर कूड़ा भूखों न मरता’’
ये हैं मिस्टर ओसवाल, हिन्दी की प्रगतिशील पुस्तकों के पब्लिशर मिस्टर ओसवाल। जिनकी नामी दुकान है ‘किताब कुंज’। मिस्टर ओसवाल का चरित्र-चित्रण जिस तरह नागार्जुन ने किया है उससे हिन्दी के अधिकांश लेखक परिचित हैं। देखिए मिस्टर ओसवाल नामक प्रकाशक जो कैप्सटन सिगरेट का पैकेट रखता है, जिसकी कलाई पर है ‘स्वर्णिम चेन दामी रिस्टवाच की’,
जिसने
‘‘अभी अभी ली है ‘हिन्दुस्तान फोर्टीन’
सो उसमें यदा-कदा साथ बिठाते हैं
पान खिलाते हैं, गोल्ड फ़्लेक पिलाते हैं
मंजुघोष प्यारे और क्या चाहिए बेटा तुमको???’’
है न प्रकाशकीय पात्र की अद्भुत सम्पन्नता। इसी के बरअक्स आप ज़रा लेखक की विपन्नता का दृश्य देखें-
‘‘बेटा जकड़ा है बान टीबी की गिरफ़्त में
पचास ठो रूपइया और दीजिएगा
बत्तीस ग्राम स्टप्टोमाईसिन कम नहीं होता है
जैसा मेरा वैसा आपका
लड़का ही तो ठहरा
एं हें हें हें कृपा कीजिएगा
अबकी बचा लीजिएगा...एं हें हें हें
पचास ठो रूपइया लौंडे के नाम पर!’’
लेखक प्रकाशक के आगे अपनी व्यथा को किस तरह गिड़गिड़ाकर व्यक्त कर रहा है-
‘‘जिएगा तो गुन गाएगा लौंडा हिं हिं हिं हिं....हुं हुं हुं हुं
रोग के रेत में लसका पड़ा है जीवन का जहाज़-’’
प्रगतिशील प्रकाशक मिस्टर ओसवाल के सामने लेखक नतमस्तक है। वह नहीं चाहता कि प्रकाशक उसकी पाण्डुलिपि वापस करे।
‘‘जितना कह गया, उतना ही दूंगा
चार सौ से ज़्यादा धेला भी नहीं
हो गर मंजूर तो देता हूं चैक
वरना मैनस्कृप्ट वापस लीजिए
जाइए, गरीब पर रहम भी कीजिए’’
बस प्रकाशक का ये जवाब लेखक की कमर तोड़ देता है। अच्छे अच्छे लेखक की हवा निकल जाती है जब प्रकाशक सिरे से पाण्डुलिपि को नकार दे। किसी भी लेखक के लिए सबसे मुश्किल क्षण वह होता है जब किसी कारण से उसका लिखा ‘अस्वीकृत’ हो जाए या ‘वापस लौट आए’।
इस कविता में तीसरा पात्र ‘पाण्डुलिपि’ है। पाण्डुलिपि यानी लेखक का उत्पाद। इस उत्पाद के सहारे प्रकाशक युगों-युगों तक कमाता है लेकिन लेखक के रूप में पाण्डुलिपि को लेकर नागार्जुन के मन की व्यथा-कथा का एक बिम्ब-
‘‘बिदक न जाएं कहीं मिस्टर ओसवाल?
पाण्डुलिपि लेकर मैं क्या करूंगा?
दवाई का दाम कैसे मैं भरूंगा?
चार पैसे कम....चार पैसे ज्यादा....
सौदा पटा लो बेटा मंजुघोष!
ले लो चैक, बैंक की राह लो
उतराए खूब अब दुनिया की थाह लो
एग्रीमेंट पर किया साईन, कापीराइट बेच दी’’
मसीजीवी लेखक के लिए कालजयी सृजन बेहद सरल है लेकिन उस कालजयी सृजन के एवज़ धनार्जन बेहद कठिन है। क्या मिलता है लिखने के बदले? कितना कम मिलता है और वह भी अनिश्चित रहता है मिलना-जुलना। पता नहीं लेखन किसी को पसंद भी आएगा या नहीं? संशय बना रहता है।
लेखक अक्सर कहते हैं कि सृजन एक तरह से प्रसव पीड़ा वहन करने वाला श्रमसाध्य काम है। इस प्रसव पीड़ा से लेखक हमेशा जूझता है। कितना मुश्किल काम है किसी कृति को सृजित करना। चाहे वह एक कविता हो, कहानी हो, उपन्यास हो या अन्य कोई विधा। क्लासिक तेवर के कवि बाबा नागार्जुन तक जब प्रकाशक के समक्ष अपनी रचना और व्यथा के साथ खड़े होते हैं तो सृजन के दर्द को भूल कर प्रकाशक के साथ बाबा नागार्जुन ने कितनी बारीकी से सृजन की शिद्दत को व्यंग्य से बांधा है-
‘‘दस रोज़ सोचा, बीस रोज़ लिखा
महीने की मेहनत तीन सौ लाई!
क्या बुरा सौदा है?
जीते रहें हमारे श्रीमान् करूणानिधि ओसवाल
साहित्यकारों के दीनदयाल
नामी दुकान ‘किताब कुंज’ के कुंजीलाल
इनसे भाग कर जाउंगा कहां मैं
गुन ही गाउंगा, रहूंगा जहां मैं
वक़्त पर आते हैं काम
कवर पर छपने देते हैं नाम’’
‘सौदा’ कविता का यही मर्म है। प्रकाशक ऐन-केन प्रकारेण, लेखक की पाण्डुलिपि पर क़ब्ज़ा कर लेता है और फिर छापने में मुद्दत लगा देता है। गरजुहा लेखक यानी मसिजीवी लेखक तो लिखने के लिए अभिशप्त होता ही है, दिन-रात आंखें फोड़कर, कमर तोड़कर वह लिखेगा ही।
यही नागार्जुन की शैली है। बाबा अपनी बात इस साफ़गाई से कहते हैं कि सामने वाला चारों खाने चित हो जाए और नाराज़ भी न हो। वाकई, इतिहास गवाह है कि हिन्दी का लेखक ग़रीब से ग़रीब होता गया है और प्रकाशक हिन्दुस्तान के कई शहरों के अलावा विदेशों में भी अपनी शाखाएं खोल रहे हैं। जब भी उनके पास ज़रूरी लेखन लेकर जाओ तो पहला वाक्य यही रहेगा-
‘‘मार्केट डल है जेनरल बुक्स का
चारों ओर स्लंपिंग हैं...’’
और प्रकाशक की गर्जना का एक चित्र देखिए-
‘‘फुफ् फुफ् फुफकार उठे
प्रगतिशील पुस्तकों के पब्लिशर मिस्टर ओसवाल
नामी दुकान ‘किताब कुंज’ के कुंजीलाल
यहां तो ससुर मुश्किल है ऐसी कि....
और आप खाए जा रहे हैं माथा महाशय मंजुघोष!’’
ऐसी बात, इतनी सादगी से और इतनी ताक़त से बाबा नागार्जुन ही कह सकते हैं...सिर्फ और सिर्फ नागार्जुन.....




सम्पर्क: टाईप 4/3, ऑफीसर्स कॉलोनी, बिजुरी

       जिला अनूपपुर .प्र.484440
              फोन 09907978108

गुरुवार, 8 नवंबर 2012

मेला ------रिया पाटनी

  
 मेला

 









 
 



------रिया पाटनी 

मेला  है भाई मेला है
जगह-जगह पर ठेला है
बच्चे-बूढ़े सभी भरे हैं,
ये तो सबका मेला है।
कोई खाता चाट-पकौड़ी
कोई खाता पेड़ा है।
किसी को भाती लाल जलेबी ,
कोई खाता केला है
मेला है भाई मेला है
जगह-जगह पर ठेला है
मम्मी हमको वहाँ ले जाती
चाट-पकौड़ी हमें खिलाती
झूले पर भी हमें बिठाती
और प्यार से गले लगाती
सब लोगों को भाता मेला
सबसे प्यारा-प्यारा मेला। 


------रिया पाटनी
कक्षा-8 एम स्क्वायर पब्लिक स्कूल पिथौरागढ़

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

रावण के पुतले

रावण के पुतले


 
 

















  











डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’

मत जलाओ जगह-जगह
रावण के पुतले
आख़िरकार, क्या बिगाड़ा है
रावण ने तुम्हारा!

शताब्दियों पूर्व
भगवान के हाथों मरकर
उसने मोक्ष प्राप्त कर लिया,
वह मुक्त है जन्म-मरण के बंधन से।

रावण का पुतला जलाकर
क्या साबित करना चाहते हो तुम?
........रावण तो तुम्हारे मन में है
अहंकार के वशीभूत हो तुम
रावण को जला पाने की सार्म्थ्य
तुममें नहीं
क्या फ़र्क़ है तब
तुममें और रावण के अहंकार में
सदियों पहले जो
मुक्त हो चुका है
भवसागर के बंधन से
हर साल उसका पुतला
अग्नि को समर्पित कर
आख़िरकार, क्या साबित करना
चाहते हो तुम लोग?
पहले जलाओ
अपने मन के रावण को
पहले मारो
अपने मन के रावण को
अपना अहं त्याग कर सीखो मानवता
अपना चरित्र ऊँचा उठाओ
समाज में समरूपता लाओ।

साल में एक बार
रावण का पुतला जलाकर
साल भर
रावण बने फिरते हो
अपने कुकर्मों से लज्जित
करते हो मानवता को
जातिवाद-वर्गवाद-भाषावाद
के बीज बोते हो
वैमनस्यता की फसल सींचते हो
माँ-बहन-बेटी की आबरू से
खेलते हो......
रहजनी-हत्या-लूट-फिरौती
क्या-क्या नहीं करते हो!
मत जलाओ रावण के पुतले
बार-बार,
पहले शुद्ध करो अपना अन्तःकरण।

रावण तुम सबसे बहुत भला था
सीता मैया को
कभी ग़लत दृष्टि से
नहीं देखा था उसने।
वह खोज रहा था
उनके माध्यम से अपनी मुक्ति।
रावण बहुत ईमानदार था
अपने वचन के प्रति......
विश्वासघात करने पर
कितने राजाओं ने
अपने बन्धु-सहोदरों को
दी हैं क्रूर-यातनायें
और उतार दिया है मौत के घाट,
रावण ने तो विभीषण को
लात मारकर ही भगाया था......
और एक बात सोचो-
कोई काट ले तुम्हारी बहन के
नाक-कान,
क्या तुम माफ़ कर पाओगे उसे?
आखि़रकार, किस प्रकार जी पायेगी
तुम्हारी बहन ताउम्र, सोचो!
अपने मन का अहंकार मिटाओ
रावण के पुतले मत जलाओ।

      सम्पर्क:-  अध्यक्ष - ‘अन्वेषी’
                      24/18, राधानगर, फतेहपुर (उ.प्र.)-212601
                      वार्तासूत्र - 9839942005, 857400635

बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

शिरोमणि महतो की कविताएं



शिरोमणि महतो की कविताएं

जन्म      ः    29 जुलाई 1973

शिक्षा      ः    एम.ए. (हिन्दी) प्रथम वर्ष

सम्प्रति   ः    अध्यापन एवं ‘‘महुआ’’ पत्रिका सम्पादन

प्रकाशन  ः    कथादेश, हंस, कादम्बिनी, पाखी, वागर्थ, कथन, समावर्तन,
द पब्लिक एजेन्डा, समकालीन भारतीय साहित्य, सर्वनाम, युद्धरत आम आदमी, शब्दयोग, लमही, पाठ, पांडुलिपि, हमदलित, कौशिकी, नव निकश, दैनिक जागरण ‘पुनर्नवा’ विशेषांक, दैनिक हिन्दुस्तान, जनसत्ता विशेषांक, छपते-छपते विशेषांक, राँची एक्सप्रेस, प्रभात खबर एवं अन्य दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाषित।

                 उपेक्षिता (उपन्यास) 2000
                 कभी अकेले नहीं (कविता संग्रह) 2007
                 संकेत-3 (कविताओं पर केन्द्रित पत्रिका)2009 प्रकाशित।
                 करमजला (उपन्यास) अप्रकाशित।

सम्मान    ः     कुछ संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
                 जनकवि रामबली परवाना स्मृति सम्मान (2010),खगड़िया
                            (बिहार)



               हम झारखण्ड के युवा कवि शिरोमणि महतो की कविताएं प्रकाशित कर रहे हैं। झारखण्ड में जीवन-यापन करते हुए वहाँ की जनपदीय सोच को अभिव्यक्त करना जोखिम भरा काम है, हमने शिरोमणि महतो की उन कविताओं को तरजीह दी है। जिसमें उनका जनपद, उनका परिवेश मुखर होता है। बेशक अपने परिवेश के शिरोमणि महतो अच्छे प्रवक्ता हैं। इस उत्तर आधुनिक समय में झारखण्ड और वहां की चिन्ताएं विश्व-पटल पर रखने का कौशल शिरोमणि महतो में है। वह बड़ी बारीकी से आस-पास विचरण करते समय की चुनौतियों को महसूस करते हैं और अपनी जिम्मेदारियां समझते हैं कि ऐसे कठिन समय में एक लोकधर्मी कवि की क्या भूमिका होनी चाहिए?

- अनवर सुहैल
, कवि-कथाकार, संपादक-संकेत


शिरोमणि महतो की कविताएं

 अकाल

पिछले साल सूखाड़ था
इस साल अकाल हो गया
सूखाड़ की नींब पर
अकाल का खूँटा खड़ा होता है

घर में एक भी
अनाज का बीटा नहीं
घड़े-हंड़े सब खाली-खाली
किसी में एक भी दाना नहीं
छप्पर से भूखे चूहे गिरते
और तडप कर दम तोड़ देते !

अकाल केवल अनाज का नहीं
पानी का भी अकाल है....
कुँआ पोखर नदी नाले
सब के सब सूख गये
भूखे-प्यासे पशु पक्षी
भटक रहे इधर-उधर
और तड़प-तड़प दम तोड़ रहे....

अकाल का मायने
‘अ-काल’
फिर यह क्यों सिद्ध हो रहा
-महाकाल !

रूप रंग आकार
एक होने के बावजूद
कितना अलग होता है-
आदमी का मिजाज
और उसका काम-काज !!

पिता की खांसी

पिता की खांसी
जैसे उठता-कोई ज्वार
मथता हुआ सागर को
इस छोर से उस छोर
दर्द से टूटते पोर-पोर

जब खांसी का दौरा पड़ता
थरथराने लगता-पिता का धड़
डोलने लगता-माँ का कलेजा
मानो खांसी चोट करती
घर की बुनियाद पर
हथौड़े की तरह....
और हिल उठता-समूचा घर !

अब सत्तर की उमर पर
दवाओं का असर
कम पड़ रहा
पिता की खांसी पर

डॉक्टर कहा करते-
यह खांसी का दौरा
दमा कहलाता है
जो आदमी का
दम तोड़कर ही दम लेता है !

लेकिन
अगर आदमी में दम हो
तो पछाड़ सकता है
-दमा को

दमा और दम की
लड़ाई अभी जारी है.....!


जूठे बर्त्तन

रात भर ऊँघते रहे
जूठे बर्त्तन
अपने लिजलिजेपन से

मुर्गे की बांग से
भोर होन की आस में
तारों को ताकते रहे
झरोखे की फांक से

सुबह होते ही
जूठे बर्त्तनों को
ममत्व भरे हाथों का
स्पर्थ मिलता....

घर की औरतें
जूठे बर्त्तनों को
ऐेसे समेटती/सहेजती
मानो उनका स्वत्व
रातभर रखा हो
इन जूठे बर्त्तनों में !

चाहे ये जूठे बर्त्तन
किन्हीं के हों

किसी भी जात/धर्म के
ऊँच-नीच/भेद-भाव
तनिक नहीं करतीं
घर की औरतें
इन जूठे बर्त्तनों से !



पता         ः    नावाडीह, बोकारो, झारखण्ड-829144

मोबाईल   ः    9931552982