बुधवार, 8 मई 2013

कहानी:मिट्टी के ढेले और आम के बौर उर्फ़ जादू : शिवेंद्र



                                                                 शिवेंद्र

काशी की सरजमीं पर 06 अप्रैल 1987 को जन्में  युवा प्रतिभाशाली लेखक शिवेंद्र की कहानी अभी तद्भव के नये अंक में छपी है ।कुछ कहानियां हंस एवं अन्य पत्रिकाओं में प्रतिक्षित। फिलहाल  रोजगार की तलाश में मुम्बई रहनवारी।
कहानी और कहानी के बारे में लेखक की ही जुबानी-
आरसी जी
आपको यह कहानी भेजते हुए बेहद प्रसन्नता हो रही है। यह कहानी मुझे बेहद प्रिय है। कभी-कभी लगता है कि न केवल समाज बल्कि हमारा संविधान भी प्रेम के खिलाफ है! क्यों इस कहानी का लड़का अपनी प्रेमिका को जीते जी आम के बौर नहीं दे पाया और क्यों जब उसे पता चला कि वह गर्भवती है तो सबसे पहले उसे अस्पताल की याद आई क्या सिर्फ इसलिए कि उसकी उम्र अभी 2 1  की नहीं थी  । काश कि समाज में प्रेम और प्रेम के फल को लेकर ऐसा भय नहीं होता तो शायद अपनी प्रेमिका को और  अपने होने वाले बच्चे की माँ को  पोखर किनारे की सोंधी मिट्टी और आम के खट्टे बौर देने के लिए उसे मरना नहीं होता। तो शायद दुनिया का सबसे बड़ा जादू  एक गर्भस्थ शिशु । आप एक जीवन से बड़ा जादू क्या रच सकते हैं ! बच पाता !
  

कहानी:मिट्टी के ढेले और आम के बौर उर्फ़ जादू 

 
 शिवेंद्र 

 
यह बारिश वाले दिन थे और साईकिल वाले भी
चुक्कड़ की खारी चाय (आंसुओं की वज़ह से )पीते हुए और उस जादू के बारे में सोचते हुए जो मेरे
, तुम्हारे और बारिश के दरम्यान घट सकता था मैं उस गली में खड़ा था जहाँ से हर रोज़ भोर के अँधेरे में एक शायर गुजरता था।
यह सोनारपुरा मुहल्ले की आखिरी गली थी और इस गली के बाद किसी सम्मोहन की तरह गंगा की सीढियाँ शुरू हो जाती थीं।
बोर्ड के एक्जाम के साथ ही १८ की उम्र ख़त्म हो चुकी थी। अब हमने  भगवान से डरना बंद कर दिया था और माँ के लिए पत्थरों से दुवाएं मांगना भी।अब सोने के सिक्कों से भरे हुए घड़े आधी रात को तालाब में नहीं उतराते थे और ना ही सुनसान दोपहरी में वह औरत कुएं पर आती जिसकी पायलों की आवाज भर लोगों को सुनाई देती थी।

ये बारिश वाले दिन नहीं थे और ना ही साईकिल वाले। ये वो दिन थे जब दुनिया से जादू ख़त्म हो रहे थे।
जादू जो बचपन से हमारे साथ रहते आये थे। तितली के पंखों से नाजुक
, जुगनू से और अँधेरे बाथरूम में बिल्ली की आँखों से चमकते हुए।

 तू सारी रात रोता रहा हुटुक-हुटुक कर
मेरे घुटने माँ के पेट पर लगे थे,  जोर से। बस इतना ही मुझे याद है, फिर मै तीन-चार महीने का बच्चा बन गया था।
रात उनकी आँखों में अब भी थीए सुबह का इंतज़ार उसे अब भी था।‘ सुबह तो हो गई!’मैंने कहा।
‘अभी कहाँ’
‘पर बारह बज रहे है !’
‘ हाँ तो दोपहर हो गई होगी पर सुबह नहीं हुई’
‘ माँ !!!’ मैं जोर से चिल्लाया।

माँ पर आप चिल्ला सकते होए यह घरेलू हिंसा के अंतर्गत नहीं आता।
दूर कहीं स्कूल की घंटियाँ बज रही थीं, छुट्टियों सी। मैं स्कूल लौटना चाहता था, पर अब मेरे पास हाफ पैंट नहीं बचे थे ना ही वह करधन जिसके धागे से बटन टूट जाने के बाद पैंट को संभाला जाता है।
‘ तुझे ऐसा क्या दुःख है। इतना तो तू कभी नहीं रोया, बचपन में भी नहीं !’
एक माँ है जिसके पास हर चीज का हिसाब होता है बचपन का भी।

ये वो दिन नहीं थे जब दुनिया से जादू ख़त्म हो रहे थे
, ये वो दिन थे जब जादू को बचाए जाने की जरूरत थी।

उस दिन जो तुम्हारी खिड़की बंद थी तो बंद ही रही । ना खुली
, ना झिझकी, ना हंसी ,ना शरमाई।  मैं भागता रहा था घाट-घाट,गली-गली और मुहल्ला-मुहल्ला पर ऐसा लग रहा था की पूरे बनारस का जादू ख़त्म हो चुका था।  एक दिन पहले हमने सब तय कर लिया था जब तुमने  गंगा की लहरों को एक दिया अर्पित किया था। पर अब मैं दुनिया के सारे अस्पतालों को मिटा देना चाहता था। हरे पत्ते के दोने में रक्खा हुआ दिया लहरों के साथ बहता चला जा रहा था। हम मुरझाये फूल की तरह लौटे थे। मुझे बाद में पता चला था की जब हम लौटते है तो अकेले होते हैं, ना जाने कब तुमने वैतरणी पार कर ली थी। कुछ देर बाद एक तैराक कूदा था। अरे ! दौड़ा हो...... कोई लड़की डूबी......   

उस रोज बारिश इतनी हुई थी की समुन्दर बनारस में किराये का मकान खोज रहा था।
मैं उस गली में खड़ा था जो थी ही नहीं।
साँसे अटक रही थीं।
चाय ख़त्म होते ही कुल्हड़ निर्जीव हो गया था।

यह एक हल्का सा स्ट्रोक था।माँ रो नहीं रही थी वह सदमे में थी। उसका चेहरा बिल्ली के पंजे से घायल हुई चिड़िया सा लग रहा था। कोमलए सर्द, भयभीतए भीगा हुआ। मेरे मुहं में गंगा जल डाला गया।पर भय अब तक मेरे भीतर काँप रहा था। पेट और पसलियों के बीच कहीं बिछुड़ने का भय।


  आज से ठीक तीसरे दिन मरे हुए लोग जिंदा हो जायेंगे।ईशु ने कहा।


परमपिता उन्हें ज़िन्दगी सौपेंगे ताकि वे अपनी आखिरी इच्छा पूरी कर सकें,

बेसब्र तीन दिन।  मंदिर के अहाते में साँसे गिनता और साईकिल की पीठ पर खानाबदोश की तरह भटकता हुआ।
पहली
,आखिरी और एकमात्र इच्छा तुम।
तुम्हारा मिलना एक प्राकृतिक षडयंत्र था।
मंदिर का दरवाजा। सामने किशन कन्हैया धोती पहन रहे थे।एक पंडित उनकी बासुरी धो रहा था। सुबह समय से पहले अंगड़ाई  ले रही थी। दरवाजे का हल्का सा झरोखा। अंत में  फुसफुसाती हवा। वह आ गई।  मै आगे बढ़ा। अलसाई पलकें, सपनों से भरी आँखें और जागती साँसेए बंद मुट्ठी की तरह ताला लगे होंठए गालों पर ठहरा हुआ हैरान गुलाबी रंग,गंभीरता के तल में नींद सी उचटी हुई अल्हड़ता। क्या लाये हो पोखर किनारे की सोंधी मिट्टी और आम के बौर  बचपन सी सुकुंवार हंसी। किशोर कल्पनाओं से सजा हुआ बचपन और जवानी को अलगाता और उन्हें जोड़ता मोड़।
  अगले जन्म में इसे याद रखना।इस मंदिर को और इस मोड़ को भी जहाँ ज़िन्दगी और कहानी ने आज मुहब्बत का फूल काढ़ा है।इस समय को भी मत भूलना जो इस मोड़ पर एक पल के लिए ठहर गया है । सिर्फ और सिर्फ मेरे और तुम्हारे लिए 

 रात के चुम्बन से संवलाए तुम्हारे होंठ उस दिन काँपे थे और बारिश के बावजूद इन्द्रधनुष एक उम्मीद की तरह ठीक हमारे ऊपर निकल आया था। कि यह वो  दिन था जब दुनिया में जादू लौट रहे थे।


 संपर्क-
फ्लैट.202बी विंग द्वितिय तल अपना घर बी सीएचएस लिमि,पिम्प्रिपदा, मलाड ईस्ट मुम्बई.400097,मो0.09930960657

बुधवार, 1 मई 2013

सुनील जाधव की कविताएं

        

                                                                            डॉ.सुनील जाधव


             आज के दौर में जो कुछ लिखा जा रहा है कोई जरुरी नहीं है कि वह रचना ही हो। कोई भी लिखित वस्तु कब रचना बन जाती है ] यह एक जटिल मनोविज्ञान है। फिर भी दूर दराज के क्षेत्रों में बहुत सारे ऐसे लेखक- कवि सक्रिय हैं जिनकी रचनाओं से गुजरना एक सुखद अनुभूति से भर जाना होता है।
               09 सितम्बर  1978 को महाराष्ट्र के नांदेड़ में जन्में सुनील जाधव ऐसे ही एक कवि हैं जिनकी रचनाओं में मानव में मानवता के लुप्त होते जाने की जो गहरी टिस है ] उसे बखूबी महसूस किया जा सकता है।अब तक इनकी &
कविता - मैं बंजारा हूँ ]रौशनी की ओर बढ़ते कदम ] सच बोलने की सजा
कहानी - मैं भी इन्सान हूँ ] एक कहानी ऐसी भी
शोध - नागार्जुन के काव्य में व्यंग ] हिंदी साहित्य विवध आयाम
अनुदित नाटक - सच का एक टुकड़ा
एकांकी - भ्रूण
पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
अलंकरण - सृजन श्री ताशकंद  ] सृजन श्री  दुबई  ] हिंदी रत्न नांदेड
 
विदेश यात्रा &उजबेक ] रशिया ] वियतनाम ] कम्बोडिया ]थईलैंड
 
प्रस्तुत है मजदूर दिवस पर सुनील जाधव की कविताएं&

बची है कितनी इंसानियत
 
1&
उसने सोचा
आज मैं देखूंगा
लोगों के दिलों में
बची है कितनी इंसानियत
या फिर है सिर्फ
इंसानियत शब्द
मस्तिष्क कोष में
विभिन्न अर्थों वाला शब्द मात्र
बन कर रह चुका है
 
2&
मैले कुचैले
फटे वस्त्रों में लिपटे
मटमैले
पसीना रहित शरीर को
उसने भरी दुपहरी में
प्यासे गले के साथ
लोगों से भरे चौक में
बिचों&बीच फटेपुराने
टावेल पर रख दिया
 
3&
मशीन बन चुके मशीन
मशीन मानव मशीनों में
सवार होकर
देखते हैं हर वस्तु को
मशीन की नजर से सोचते हैं
वह भी तो हैं मशीन मानव
और फिर इंसानियत निकलती है
मशीनों में से काट&छाट कर
आकर्षक सुन्दर औपचारिक रूप में
 
4&
किसी के मस्तिष्क कोष से
उछल कर निकलेगा
एक&एक शब्द
सहज
या सोच -समझकर
या फिर जान बुझकर
अरे
बाप रे
हे भगवान आदि
 
5&
कोई बुदबुदा कर
तो कोई मन ही मन
दया वाले शब्दों को
इंसानियत का मुलम्मा चढ़ा कर
अपने शब्दों को चमकाएगा
और अपने ही शब्दों के
चमक को देखकर
प्रफुल्लित होते हुए
आनंदोत्सव मनायेगा
 
6&
या यंत्र बना मानव
अपनी कृत्रिम व्यस्तताओं के कारण
कुछ सेकेंडो के लिए
ऑफिसियल फिल्मी
या साहित्यिक शब्दों
में कहेगा
काश मेरे पास समय होता
काश मैं उसकी मदद करता
हे भगवान ऐसा दृश्य क्यों दिखाया
 
7&
अपने बुद्धिमान बुद्धि से
बुद्धिमानों के बीच चर्चाओं का
विषय बन जाएगा
और फिर घड़ी में घर जाने
सोने आदि का समय देखेगा
सुबह होने पर नया विषय
चाय का कप और अख़बार होगा
निकलेगा फिर से वह
घर के बाहर
 
8&
वह फिर तंग आकर
उठ गया अपने मैले कुचैले
बदबूदार शरीर के साथ
सताया हुआ
रो&रो कर भावनाहीन
उसने एक भूखे को
कूड़े से उठाकर खाना दिया तो
उसने कहा उससे
मुझे इन्सान मिल गया
मेरे छूटे हुए अमूल्य पल
 
1&
 
कौन देगा मुझे
मेरे छूटे हुए
अमूल्य पलों को
जो
रेत घड़ी की
फिसलने वाली रेत  की तरह
हाथ से फिसल गये
 
2&
या फिर मैं
मूल्यहीन था
सदा से ही
शिष्ट सदाचार
संवेदनशील एबुद्धिमान
संस्कार से युक्त
सभ्य समाज के लिए 
3&
मैं खोजता हूँ
अपना ही अस्तित्व
अपनी नजरों में
और
उनकी नजरों में
जिनके नजरों के चौखट में
इन्सान बैठते हैं 
4&
कितना कुछ हो सकता था
मेरे छूटे हुए पलों में
सृजन निर्माण
पर नहीं हुआ
वे क्षण
काल की लहरों के साथ
कब के बहकर चले गये
 
5&
कभी कभी जब
पीछे मुड़कर देखता  हूँ
तब महसूस करता हूँ
की व्यर्थ में
मैंने अपना समय गवां दिया है
वे हो सकते थे अविस्मरणीय
पर अब वे नहीं हैं
पता :-   महाराणा प्रताप हाउसिंग सोसाइटी
           हनुमान गड कमान के सामने
           नांदेड महाराष्ट्र  05 भारत
चलभाष:- 09405384672
ईमेल:-      suniljadhavheronu10@gmail.com
ब्लॉग :-    navsahitykar.blogspot.com