गुरुवार, 20 मार्च 2014

जयकृष्ण राय तुषार की कविताएं-


 
      जयकृष्ण राय तुषार का जन्म  01-01-1969 को ग्राम -पसिका जनपद आज़मगढ़ में  |  उच्च शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी में [M.A.LL.B] वर्तमान में उच्च न्यायालय इलाहाबाद में वकालत | कुछ वर्षों तक राज्य विधि अधिकारी पद पर उत्तर प्रदेश सरकार के लिए भी कार्य करने का सुयोग मिला था |कविता लेखन इनका सबसे उम्दा और अनिवार्य शौक है |दस्तावेजों में नाम जयकृष्ण नारायण शर्मा है |देश की विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में गीत एवं ग़ज़लें प्रकाशित   |साहित्य अकादमी के प्रथम समकालीन हिंदी ग़ज़ल संग्रह ,ज्ञानोदय के ग़ज़ल महाविशेषांक में ग़ज़लें प्रकाशित | इनका प्रथम गीत संग्रह 'सदी को सुन रहा हूँ मैं ' साहित्य भंडार इलाहाबाद से प्रकाशित |

प्रस्तुत है इनकी  कविताएं-

हम भारत के लोग


रातें होतीं कोसोवो-सी
दिन लगते हैं
वियतनाम से
डर लगता है
अब प्रणाम से
  हवा बह रही
चिन्गारी-सी
दैत्य सरीखे हँसते टापू,
सड़कों पर
जुलूस निकले हैं
चौराहों पर खुलते चाकू,
धमकी भरे पत्र
आते हैं कुछ नामों से
कुछ अनाम से


फूल सरीखे बच्चे
अपनी कॉलोनी में
अब डरते हैं
गुर्दा, धमनी, जिगर आँख का
अपराधी सौदा करते हैं,
चश्मदीद की
आँखों में भय
इन्हें कहाँ है डर निजाम से


महिलाओं की
कहाँ सुरक्षा
घर में हों या दफ़्तर में, 
बम जब चाहे फट जाते हैं
कोर्ट कचहरी अप्पू घर में
हर घटना पर
गिर जाता है तंत्र
सुरक्षा का धड़ाम से


पंडित बैठे
सगुन बाँचते
क्या बाज़ार हाट क्या मेले ?
बंजर खेत
डोलते करइत
आम आदमी निपट अकेले,
आज़ादी है मगर
व्यवस्था की निगाह में
हम गुलाम से


हो गया मुश्किल शहर में डाकिया दिखना


फ़ोन परबातें करना
चिट्ठियाँ लिखना
हो गया

मुश्किल शहर में

डाकिया दिखना



चिट्ठियों में
लिखे अक्षरमुश्किलों में काम आते हैं,
हम कभी रखते
किताबों में इन्हें
कभी सीने से लगाते हैं,
 चिट्ठियाँ होतीं

सुनहरे

वक़्त का सपना



इन चिट्ठियों
से भी महकतेफूल झरते हैं,
शब्द
होठों की तरह ही
बात करते हैं
ये हाल सबका

पूछतीं

हो गैर या अपना



चिट्ठियाँ जब
फेंकता है डाकिया
चूड़ियों-सी खनखनाती हैं,
तोड़ती हैं
कठिन सूनापन
स्वप्न आँखों में सजाती हैं,
याद करके

इन्हें रोना या

कभी हँसना



वक़्त पर
ये चिट्ठियाँ
हर रंग के चश्में लगाती हैं,
दिल मिले
तो ये समन्दर
सरहदों के पार जाती हैं,
चिट्ठियाँ हों

इन्द्रधनुषी

रंग भर इतना


 

तारीख़ें बदलेंगी सन भी बदलेगा



तारीख़ें
बदलेंगी
सन् भी बदलेगा
सूरज
जैसा है
वैसा ही निकलेगा
 
नये रंग
चित्रों में
भरने वाले होंगे,
नई कहानी
कविता
नये रिसाले होंगे, 
बदलेगा
यह मौसम
कुछ तो बदलेगा

वही
प्रथाएँ
वही पुरानी रस्में होंगी,
प्यार
मोहब्बत --
सच्ची, झूठी क़समें होंगी,
जो इसमें
उलझेगा
वह तो फिसलेगा

राजतिलक
सिंहासन की
तैयारी होगी,
जोड़- तोड़
भाषणबाजी
मक्कारी होगी,
जो जीतेगा
आसमान
तक उछलेगा

धनकुबेर
सब पेरिस
गोवा जाएँगे,
दीन -हीन
बस
रघुपति राघव गाएँगे,
बच्चा
गिर-गिर कर
ज़मीन पर सम्हलेगा


संपर्क- 63 G / 7बेली कालोनी ,स्टैनली रोड , 
        इलाहाबाद पिन -211002 MOB.09005912929

शनिवार, 8 मार्च 2014

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस – संघर्ष और चुनौतियाँ : रामजी तिवारी









हमारे समय के महत्वपूर्ण युवा हस्ताक्षर। आज ही इस लेख को मांगा और राम जी भाई ने सहर्ष स्वीकारते हुए मेल किया। इस पोस्ट को 'अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस'   पर प्रकाशित करते हुए हमें खुशी हो रही है।आपके महत्वपूर्ण विचारों की प्रतीक्षा में।





  अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस – संघर्ष और चुनौतियाँ 
 

                अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस ने सौ वर्ष से अधिक का सफ़र पूरा कर लिया है | ये सौ वर्ष उन महिलाओं के संघर्षों और उपलब्धियों के वर्ष हैं, जिन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद एक समतामूलक और बराबरी वाले समाज का सपना अपने दिलों में ज़िंदा रखा है | यह बड़ा अजीब लगता है, जब आज के दिन सरकारें, मीडिया और बाजार इस सम्पूर्ण आन्दोलन को अपने पाले में खींचकर दिग्भ्रमित करने का प्रयास करते हैं | ऐसा दिखाया जाता है, जैसे सरकारे ही महिला सशक्तीकरण की सबसे बड़ी हितैषी हैं, या कि मीडिया ही इसे अस्तित्व में लेकर आया है, या फिर यह बाजार ही है जो इसे प्रोत्साहित कर रहा है |

                 तो क्या संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की शुरुआत की थी ? या कि किसी सरकार ने ? आज जब हम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के सौ सालों का जश्न मना रहे हैं, तो सचमुच किस बात को याद कर रहे हैं ? क्या हम जानते हैं कि इस संघर्ष की शुरुआत उन आम-मेहनतकश महिलाओं ने की थी, जिन्होंने समानता और स्वतंत्रता की अपनी आकांक्षा और मांगो को प्रतीक के रूप में इस दिन को चुनते हुए इतिहास रच दिया था ? हकीकत तो यही है कि एक शताब्दी पूर्व सड़कों पर निकलकर प्रदर्शन करने वाली वे श्रमिक और मेहनतकश  महिलायें ही थीं, जिन्होंने इसका शंखनाद किया था | किन्हीं सरकारों, कारपोरेट मीडिया घरानों और बाजारों ने नहीं | उन्हें तो आज भी महिला दिवस की इस सच्चाई के सामने आने से उलझन होती है | इसलिए उनके द्वारा इस बात की लगातार कोशिश की जाती रही है कि अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को उसकी क्रांतिकारी कम्युनिस्ट विरासत और राजनितिक महत्व के सच्चे संदर्भो से काट दिया जाए और इसे एक निरर्थक बाजारू तमाशे में तब्दील कर दिया जाए |

                  हमारे सामने आज यह एक बड़ी चुनौती है कि अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के वास्तविक महत्व और इतिहास को धूमिल करने के प्रयासों का डटकर सामना किया जाए, और इसे गैर-बराबरी से मुक्त दुनिया के लिए संघर्ष और प्रतिरोध दिवस के रूप में ज़िंदा रखा जाए | यदि महिलाओं ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का इतिहास रचा है, तो महिला आन्दोलन को इस इतिहास को मिटाने और दिग्भ्रमित करने की हर साजिश का मुकाबला भी करना होगा |  हमें यह जानना होगा कि आज से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पहले न्यूयार्क शहर में परिधान और टेक्सटाइल्स कामगार महिलाओं ने विशाल जन-प्रतिरोध करते हुए संगठित होने और यूनियन बनाने के अधिकार को हासिल किया था | वे चाहती थीं कि काम करने की अमानवीय परिस्थितियों का खात्मा हों, समान काम के लिए समान वेतन हो और काम के घंटे तार्किक रूप से निर्धारित हों | फिर आठ मार्च 1908 को न्यूयार्क में ही लगभग 15000 हजार महिलाओं ने सोशलिस्टों के नेतृत्व में काम घंटों के निर्धारण, महिला मताधिकार और बाल मजदूरी के खात्मे के लिए प्रदर्शन किआ | 1909 और 1910 के लगातार विमर्शों और संघर्षों के बाद 1911 में कोपेनहेगन में 19 मार्च को पहला अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया | बाद में काफी विचार विमर्श के बाद 1913 में आठ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मानाने का फैसला किया गया, जो आज भी चलता आ रहा है |

                    भारत में भी इसका इतिहास उन्ही संघर्षों और चेतनाओं से विकसित होता है, जिनसे शेष दुनिया में यह विकसित होता आया है | उन्नीसवीं सदी में लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता सावित्री बाई फुले ने महिला शिक्षा के अभियान की शुरुआत करते हुए इसकी नींव रखी थी | उन्हें इससे विमुख कराने के लिए तरह-तरह से प्रताड़ित किया जाता था, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी | और फिर एक लम्बी विरासत को जन्म दिया, जिसने न सिर्फ स्वतंत्रता आन्दोलन वरन उसके बाद भी अपने संघर्षों के द्वारा समतामूलक और न्याय-प्रिय समाज का सपना देखना जारी रखा | ये महिलायें सिर्फ अपने हितों के लिए ही नहीं लड़ी, वरन उन्होंने अपनी लड़ाई को समाज के बृहत्तर हितों के लिए भी प्रयुक्त किया | नशा-विरोधी आंदोलन, राज्य की दमनकारी नीतियों के विरोध में किया जाने वाला आन्दोलन, दहेज़ विरोधी आन्दोलन, पर्यावरण को बचाने के लिए आन्दोलन, सती प्रथा और बाल विवाह के लिए किया जाने वाला आन्दोलन और सबसे बढ़कर साम्प्रदायिकता के विरोध में चलाये गए आन्दोलन इस बात की गवाही देते हैं |

                   प्रसिद्ध लेखिका सिमोन द बोउवार की उक्ति आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जिसमें वे कहती हैं कि “ स्त्री पैदा नहीं होती, वरन बनाई जाती है |” मतलब यह समाज है, जो स्त्री को दूसरे-तीसरे दर्जे का नागरिक बनाता है | वह जन्म से इस दूसरी-तीसरी नागरिकता को लेकर पैदा नहीं होती है | मसलन आज की तारीख में समाज को नियंत्रित करने वाली शक्तियां स्त्री के साथ कैसा व्यवहार कर रहीं हैं ? क्या वे स्त्री हितों की वास्तव में बात कर रही हैं या कि उनकी रक्षा कर रही हैं ? आज जब क़ानून उन्हें बराबरी का दर्जा दे रहा है, तो ये शक्तियां उस स्त्री को सिर्फ एक देह के रूप में दिखाने का कुत्सित प्रयास क्यों कर रही हैं ? उस एक अलग तरह के छलावे में बाँधने का प्रयास, जिसमें वह अपनी वास्तविक आजादी की तलाश को भूल जाए | मीडिया हो या फिर राजनीति, संस्कृति हो या फिर समाज, बाजार की शक्तियां आज की नारी को किन अर्थों में मुक्त करती हैं ? क्या गोरे रंग के हो जाने से किसी स्त्री को स्वतंत्रता हासिल हो जाती हैं ? या कि उसका नाक-नक्श तीखा हो जाए, तो उससे उसके बंधन कट जाते हैं ? बाजार की शक्तियां यह क्यों नहीं समझ पातीं कि प्रत्येक स्त्री के भीतर भी एक दिमाग होता है,जो उतना ही विवेकशील और चेतनासंपन्न होता है, जितना कि किसी पुरुष का ? यदि किसी पुरुष से यह सवाल नहीं पूछा जाता कि वह गोरा है या कि सांवला, वह लंबा है या कि नाटा, तो यह सवाल किसी स्त्री के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों कर दिया जाता है ? उसे घूमा फिराकर अपनी देह को सजाने-संवारने की तरफ ही क्यों धकेल दिया जाता है ? निश्चित तौर पर बाजार की यह कोशिश सम्पूर्ण महिला आन्दोलन को भटकाने के लिए है | सच तो यह है कि स्त्री की देह उसकी अपनी है, और उस पर उसी का हक़ भी होना चाहिए | उसने एक लम्बी लड़ाई के बाद अपने इस अधिकार को समाज से हासिल किया है, और इसे किसी भी कीमत पर बाजार के हाथों उसे नहीं गवाना चाहिए |

                    महिला आन्दोलन के सामने आज भी कई वास्तविक चुनौतियाँ मुंह बाए खड़ी हैं, जिनसे उसे टकराना चाहिए | रोटी, जमीन और अमन का नारा 1917 की रुसी क्रान्ति के समय भी महिला आन्दोलन का नारा था, और आज भी वह किसी न किसी रूप में विद्यमान है | भूमि, संपत्ति और आजीविका के मामलों में गैर-बराबरी और बेदखली उसके उत्पीड़न का प्रमुख कारण है | हिंसा से मुक्त समाज की कामना भी महिला आन्दोलन की सबसे बड़ी जरुरत है | क्योंकि यह सर्वविदित तथ्य है कि समाज में घटित होने वाली हर तरह की हिंसा की सबसे आसान और बड़ी शिकार महिलायें ही होती हैं | वह चाहें राज्य की हिंसा हो, या फिर अराजक समूहों की | मणिपुर, कश्मीर, खैरलांजी, बस्तर, लालगढ़ या फिर दिल्ली की घटनाएं हमारे सामने उदाहरण के रूप में मौजूद हैं | वह आदिवासी सोनी सोरी के साथ भी घटित हो सकती है, और उच्च वर्गीय रुचिका गिरहोत्रा के साथ भी | महिला आन्दोलन को आज भी अपनी उचित राजनितिक भागीदारी का इंतजार है | संसद के गलियारों में उनके उम्मीदों की आत्माएं भटक रही हैं | और फिर जहाँ क़ानून बना भी है, वहां भी नरेगा जैसे कार्यक्रमों में 33 प्रतिशत के आरक्षण का अधिकार कागजों से जमीन पर नहीं उतर पाया है | भारतीय समाज में महिलाओं के प्रति पाए जाने वाले पूर्वाग्रह की सबसे स्पष्ट झलक हमें लिंगानुपात के आंकड़ों से मिल सकती है | और महिला आन्दोलन को किस दिशा में आगे बढ़ने की जरुरत है, इसका एक रोड-मैप भी | 

                    क्लारा जेटकिन, एलेक्सांद्रा क्लन्ताय और बहुत से देशो की उन महिला नेत्रियों ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस को संघर्ष दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत की थी, क्योंकि उनका मानना था कि महिलाओं को उत्पीडन से मुक्ति उसी दुनिया में मिल सकती है, जिसमें मनुष्य द्वारा मनुष्य का उत्पीड़न भी नहीं होता हो | महिला मुक्ति और सशक्तीकरण का संघर्ष और समाजवाद-कम्युनिजम का संघर्ष एक साथ ही चल सकता है, जिसमें महिलायें अगली कतार में शामिल रहेंगी | महिला आन्दोलन के हमारे अभी तक के अनुभव अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के प्रणेताओं के इसी विश्वास की पुष्टि करते हैं | आइये ...... हम इस दिन को उत्पीडन और गैर-बराबरी से मुक्त दुनिया को संभव करने के प्रयास के रूप में मनाएं | 


प्रस्तुतकर्ता .......
रामजी तिवारी
बलिया , उ.प्र.
मो.न. 09450546312

बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

आरसी चौहान की कविताएं -













   








आरसी चौहान



उसकी आंखों में

सूर्य

सुबह शाम का

चश्मा लगाए

जब देखता है पृथ्वी को

उतर आती है

उसकी आंखों में

प्यार की लाल चुनरी

पृथ्वी की छाती पर लहराते हुए।

ढाई अक्षर

तुम्हारी हंसी के ग्लोब पर  
लिपटी नशीली हवा से  
जान जाता हूं  
कि तुम हो  तो   
समझ जाता हूं  
कि मैं भी   
अभी जीवित हूं  
ढाई अक्षर के खोल में।

 धागा

लोग कहते हैं प्रेम

एक कच्चा धागा है

मैं धागों का रोज

कपड़ा बुनता हूं

हम गांव के लोग

हम गांव के लोग

बसाते हैं शहर

शहर घूरता है गांव को

कोई शहर

बसाया हो अगर कहीं गांव

तो हमें जरूर बताना

 आदमी

 

पहला  
जुलूस में मारा गया 
वह आदमी नहीं था 
दूसरा  
आमरण अनशन में मारा गया    
वह भी आदमी नहीं था 
तीसरा भाषण देते सफेदपोश 
मारा गया  
 
वह आदमी था।


सच्चाई




उसने कहा-  

 तुम भविष्य के हथियार हो 
 बात तब समझ में आयी  
 जब    
मिसाइल की तरह  
 जल उठा मैं


संपर्क-   आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
                 राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल
                 उत्तराखण्ड 249121
                 मेाबा0-8858229760
                 ईमेल-chauhanarsi123@gmail.com

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

कपिलेश भोज की दो कविताएं-



          कपिलेश भोज का जन्म उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा जनपद के लखनाड़ी गाँव में 15 फरवरी 1957 में हुआ था। कुमाऊं विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त कर कुछ समय तक वर्तमान साहित्य और कारवां का सम्पादन। हिंदी के अलावा मातृभाषा कुमाउँनी में भी कहानियाँ कविताएँ एवं आलोचनात्मक लेखन। प्रकाशित कृतियाँ -यह जो वक्त है;कविता.संग्रह- श्लोक का चितेरा;  ब्रजेन्द्र लाल शाह;जीवनी।
फिलहाल प्रवक्ता पद से स्वैच्छिक सेवानिवृति के बाद स्वतंत्र लेखन। इनकी  कई पुस्तकें प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं।



















प्रस्तुत है इनकी दो कविताएं-

1-सभ्य शहर के लोग

सभ्य शहर के
सभ्य लोग हैं हम श्रीमान्
देश की राजधानी में रहते हैं
यहां की बसों में
देख सकते हैं श्रीमान् आप हमारा शौर्य
और हमारी फुर्ती
दसियों लोगों के पैरों को रौंदते हुए
निकलते हैं हम आगे
और पैण्ट झाड़ते  कालर ठीक करते हुए
उतर जाते हैं सही ठिकाने पर
देश के दूर - दराज इलाकों के गंवार लोग
बसों में टकराते हैं जब हमसे
तो उन्हें हिकारत से देखते हुए हम
बिचका लेते हैं मुंह
हंसते हैं और बुदबुदाते हैं उनकी मूर्खताओं पर
जाते हैं जाने किन जंगलों से
हमें गर्व है श्रीमान्
कि हम
राजधानी के सभ्य बाशिन्दे हैं


2.सपने में

कल सपने में देखा मैंने
जाने ही वाला था
एक बच्चा
अपने बाप के साथ
जूते खरीदने के लिए
बाजार
कि तभी आचानक
हमला हुआ उसके बाप पर
आर -पार हो गया चाकू
और देखता रह गया बच्चा
उस घटना के विषय में
डूब गया सोच में
मिनटों में खत्म हो गयी
बच्चे की
एक पूरी की पूरी दनिया
कितनी आसानी से
और भय गुस्से से थरथराता हुआ
सपने से जाग गया मैं
सोचता रहा देर तक
सपने के बारे में
बच्चे के बारे में

संपर्क - सोमेश्वरए अल्मोड़ा.263637 ;उत्तराखण्ड