बुधवार, 17 दिसंबर 2014

नीलम बिष्ट की तीन कविताएं





        राजकीय इंटर कालेज देवलथल में कक्षा दस में अध्ययनरत नीलम बिष्ट ने यह कविताएं उन्होंने अपने स्कूल की दीवार पत्रिका के लिए लिखी हैं।आशा है आपको कविताएं जरूर पसंद आयेंगी । आप सुधीजनों के विचारों की हमें प्रतीक्षा रहेगी।
 
मेरे प्यारे पापा

सबसे प्यारे , सबसे न्यारे
सबसे अच्छे, सबसे सच्चे।
सारे दुनिया में प्यारे पापा
सारी दुनिया में अच्छे पापा।
मुझे अच्छे-अच्छे खेल खिलाते
ढेर सारे खिलौने मुझे दिलाते।
अच्छी-अच्छी बातें सिखाते
मीठे-मीठे सपने दिखाते।
कांटों से लड़ना सिखाते
फूलों सा खिलना सिखाते।
चिड़ियों सा उड़ना सिखाते
मुझे मेरी राह दिखाते।
नटखट गुड़िया मुझे पुकारते
पापा की लाडली मुझे बुलाते।
मुझे कठिन मेहनत करना सिखाते
सागर की लहरों से लड़ना सिखाते।
सबसे प्यारे एसबसे न्यारे
सबसे अच्छे, सबसे सच्चे।
मेरे हैं वो प्यारे पापा
सारी दुनिया से न्यारे पापा।

पिंजड़े में बंद परी

पिंजड़े में बंद परी ने कहा -
ओ ! दुनिया के जुल्मी लोगो
क्यों बंद रखा है मुझे
इस पिंजड़े में
लोगों की सेवा करूं
क्या इतना ही मेरा काम है
मैं एक परी हूं
मुझे एक नई दुनिया में जाना है
पापा की राजकुमारी बनना है
भाई से पहले राकेट चलाना है
स्वच्छ हवा में सैर को
मेरे पंख तरसते हैं
स्वच्छ जल में तैरने को
मेरी छड़ी व्याकुल है
क्यों झरने से बहते जीवन
को रोकते हो
रूके पानी से बदबू उठने लगी है
बहुत हुआ इसे  बहने दो
अब वक्त है बसंत का
कली को बगिया में खिलने दो
अब वक्त है बरसात का
मोरनी की तरह नाचने दो
अब वक्त है बंद पंखों के खुलने का
इसे आसमान में उड़ जाने दो।
पिंजड़े में बंद परी ने कहा .
ओ !दुनिया के जुल्मी लोगो
क्यों बंद रखा है मुझे
इस पिंजड़े में।

कठपुतली

कठपुतली सा उसका जीवन
कितना निर्मम लगता है
क्यों रोज वही रोटी सेके
क्यों रोज चहर दीवारी में बंद रहे
क्यों सभी जिम्मेदारी उठाए
क्यों सभी की चिंता करे
क्यों सभी की जली-कटी सुने
क्यों उसे बोलने से रोके दुनिया
क्यों नहीं ले सकती वह
अपने जीवन के फैसले खुद
क्यों बेगारी करे इस दुनिया की
क्यों कमजोर समझते लोग उसे
इतना सब कुछ करने पर भी।
क्यों तब ही वह
आदर्श स्त्री कहलाती है
जब खुद को आघात पहुंचाती है
क्यों नहीं कह सकती वह अपनी बात
क्यों नहीं कर सकती है
वह थोड़ी सी मनमानी
क्यों वह थोड़ा सा दौड़ी तो
बुरी स्त्री कहलाती है
क्या उसे हक नहीं कि
वह भी जिए इस दुनिया में
क्यों नहीं आने देते
उसे इस संसार में
क्यों  देती है वह थमा
अपने जीवन के धागों को इस संसार को
जो उसे कठपुतली की तरह नचाते हैं
तब उसका जीवन
कठपुतली - सा बन के रह जाता है। 

प्रस्तुति- महेश चंद्र पुनेठा

         रा00का0 देवलथल पिथौरागढ़

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू' की लघुकथाएं-




 
                                                                    पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू'
                                                                     03/07/1993


संबल
  छाया ने अपने भाई से पूछा-"भइया!क्या बात है?दिन-ब-दिन सूखते चले जा रहे हो।क्या हॉस्टल में खाना मिलना बंद हो गया है?" पंकज ने क्षीण मुस्कान के साथ उत्तर दिया-"बहन!ऐसी कोई बात नहीं है,इन मैं बहुत अपसेट रहता हूँ।" छाया ने गंभीर होकर कहा-"भाई!क्या हुआ?मुझे नहीं बताओगे?" पंकज ने नतानन जवाब-"बहन!बात दरअसल यह है कि मैं लगातार चार बार से प्री-मीँस तो निकाल लेता हूँ पर इंटरव्यू में असफल हो जाता हूँ।लगता है डीएम बनना नसीब में नहीं है।ऐसा लग रहा है आत्महत्या कर लूँ।" छाया ने रुँधे कंठ से बोली-भइया।ऐसी बात दुबारा मुँह से मत निकालना,खासकर मम्मी के सामने।जानते हैं?उन्होंने किस मुसीबत से आपको पढ़ाया।उन्होंने जितने सपने देखें हैं खुली आँखों से,उन सबका संबल आप हो।पापा तो यह काम करके जा चुके हैं।अब और दुख मत देना मम्मी को।" छाया अपने आँसू रोक न सकी और दौड़कर अपने कमरे में घुस गई।पंकज के कानों में
'संबल-संबल'......गूँजने लगा।

प्रसाद

रेखा मंदिर से आई तो उसके हाथ रिक्त थे।माँ ने आश्चर्य से पूछा-"बेटी!तू मंदिर गई थी न?"
"हाँ,माँ मैं मंदिर गई थी।क्यों?"रेखा ने मुस्कुराकर कहा।
माँ ने कहा-"बेटी!तुझे पैसे भी दिए थे लेकिन प्रसाद नहीं लाई?" रेखा ने जवाब दिया-"माँ!जब मंदिर जा रही थी,रास्ते में मोहन काका मिल गए।मैंने नमस्ते किया तो वह बोले बेटी कल से मुझे खाना नहीं मिला।जान निकल रही है। माँ! मैंने उन्हें उन्हीं पैसों से भरपेट भोजन करा दिया।" माँ ने रेखा का माथा चूमकर बोली-"बेटी! आज तूने सच्ची पूजा की है और सच्चा आशीर्वाद का प्रसाद प्राप्त किया है।" रेखा की आँखें छलक पड़ीं।

परिचय-

पीयूष कुमार द्विवेदी 'पूतू'
विकलांगता -शत प्रतिशत विकलांग 14माह की अवस्था से
शिक्षा-स्नातकोत्तर (हिंदी साहित्य स्वर्ण पदक सहित),यू.जी.सी.नेट (चार बार)
प्रकाशन-महानगर(कलकत्ता),विकलांग पाथेय(चित्रकूट),गुफ़्तगू(इलाहाबाद),शेषामृत(मथुरा),गुलाल(सीतापुर),अखंड भारत(दिल्ली),शब्द सरिता(अलीगढ़),प्रभात केसरी(राजस्थान,दैनिक पत्र),अभिनव इमरोज(दिल्ली),अन्वेषी(फतेहपुर)।
ई.पत्रिकाओं में रचनाएँ शामिल-प्रयास(कनाडा),प्रवक्ता,स्वर्ग विभा(मुम्बई),आशना,अनुभूति,साहित्य
रागिनी(मनकापुर),वेबदुनिया(ई.पत्र),अक्षय गौरव,हाइकुकोश,मेलेनियम दर्पण(ई.पत्र)
संप्रति-अध्यापनरत जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय चित्रकूट में।  
संपर्क- ग्राम-टीसी,पोस्ट-हसवा,जिला-फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)-212645 मो.-08604112963 ई.मेल-putupiyush@gmail.com

शनिवार, 29 नवंबर 2014

पहाड़ में खुलती एक खिड़की: अकुलाए हुए निकलते शब्द



                                                    आरसी चौहान
                                  मोबा0-08858229760   

         आज हिन्दी साहित्य उस चौराहे पर खड़ा है जहां से सड़कें चकाचौंध कर देने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियों , सिनेमा, बाजार और सच्चे-झूठे दावा करने वाले विज्ञापनों की ओर जाता है और इन सड़कों पर आम आदमी आतंकवाद ,उग्रवाद ,भ्रष्टाचार और बलात्कार जैसे धिनौने पहियों के निचे कुचला जाता है। ऐसे में दूर-दराज क्षेत्रों में रचनारत रचनाकारों की आवाज की अवहेलना बहुत दिनों तक नहीं की जा सकती। इनकी आवाज को सार्थक दिशा देने के लिए राष्ट्रीय स्तर की तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने एक बड़ा मंच प्रदान किया है।

      वागर्थ, नया ज्ञानोदय, हंस ,कथादेश, युद्धरत आम आदमी ,समसामयिक सृजन ,परिकथा, युवा संवाद ,संवदिया, कृतिओर ,जनपथ और इसी कड़ी को एक कदम आगे बढा़ते हुए “अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य विशेषांक
प्रकाशित करने वाली हिमालयी पत्रिका -हिमतरू का जुलाई-2014 अंक शीतल पवन के झोंके की तरह आया है। यह शोधार्थियों के लिए महत्वपूर्ण दस्ताावेज तो है ही ,खासकर दूर-दराज क्षेत्रों में रचनारत युवा रचनाकारों को चिह्नित कर उन्हें उत्प्रेरित करने का एक महायज्ञ भी है। जिसकी खुशबू और आंच देर-सबेर हिन्दी साहित्य के गलियारों में बड़े धमक के साथ सुंघी व महसूस की जाएगी। ऐसा मुझे विश्वास  है।

         हिमतरू का यह अंक अपनी विशिष्टताओं के लिए जाना जाएगा । कुल्लू जैसी विषम परिस्थियां ,जहां का धरातल करैले की तरह उबड़-खाबड़ तो है ही अगर कुछ रचनाओं के स्वाद में कसैलापन लगे तो मुंह बिचकाने की जरूरत नहीं है। हिमतरू के इस“अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य विशेषांक”में  देश-विदेश के लगभग अड़सठ रचनाकारों की उनकी विभिन्न रचनाओं को प्रकाशित किया है। किशन श्रीमान के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका के इस अंक का अतिथि सम्पादन युवा कवि गणेश गनी ने किया है। इस अंक में रचनाकारों की वरिष्ठता क्रम को ध्यान में न रखकर उनकी रचनाओं को किसी भी पेज में स्थान दिया गया है। इसी अंक में मेरी एक कविता-

जूता

लिखा जाएगा जब भी
जूता का इतिहास
सम्भवतः,उसमें शामिल होगा कीचड़

और कीचड़ में सना पांव
बता पाना मुश्किल होगा
हो सकता किसी ने
रखा हो कीचड़ में पांव
और कीचड़ सूख कर
बन गया हो जूता सा
फिर देखा हो किसी ने कि
बनाया जा सकता है
पांव ढकने का एक पात्र
फिर बन पड़ा हो जूता
और तबसे उसकी मांग
सामाजिक हलकों से लेकर
राजनैतिक सूबे तक में
बनी हुई है लगातार
घर के चौखट से लेकर
युद्ध के मैदान तक
सुनी जा सकती है
उसकी चौकस आवाज
फिर तो उसके ऊपर गढे गये मुहावरे
लिखी गयी ढेर सारी कहानियां
और इब्नबतूता पहन के जूता
भी कम चर्चा में नहीं रही कविता
कितने देशों की यात्राओं में
शामिल रहा है ये
शुभ काम से लेकर
अशुभ कार्यो तक में
विगुल बजाता उठ खड़ा होता रहा है यह
और अब ये कि
वर्षों से पैरों तले दबी पीड़ा
दर्ज कराते ये
जनता के तने हुए हाथों में
तानाशाहों के थोबड़ों पर
अपनी भाषा,बोली और लिपि में
भन्नाते हुए......।

हिमतरू (मासिक) जुलाई-2014, अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक-गनेश ग़नी
प्रधान सम्पादक-इन्दू पटियाल
इस अकं का मूल्य-101 रूपये
संपर्क सूत्र- 201, कचोट भवन,नजदीक मुख्यडाक घर,ढालपुर,कुल्लू हि0प्र0
मोबा0-09736500069, 09418063231

रविवार, 23 नवंबर 2014

पुस्तक समीक्षा - माफ करना हे पिता



   
            

दिनेश चन्द्र भट्ट गिरीश




         नैनीताल मुद्रण एवं प्रकाशन सहकारी समिति से प्रकाशित शंभु राणा की पुस्तक माफ करना हे पिता’ 36 व्यंग्यों का संग्रह है। संस्मरणात्मकता व्यंग्यों की प्रमुख विशेषता है। बहुत तल्ख अंदाज में सामाजिक विद्रुपताओं पर जबरदस्त ढंग से प्रहार किया गया है। समाज के जो आवरण समाज की सुन्दरता का आभास कराते हैं आवरण मुक्त होने पर स्थिति को घृणास्पद बना देते हैं। छद्म आदर्शों पर लेखक का रोष मुखर हो उठता है-‘‘........युद्ध के वास्तविक कारणों, जो कि अमूमन कुछ लोगों के अपने स्वार्थ होते हैं, पर तर्क संगत बात करें, वह गद्दार है। सामान्य दिनों में देश को अपनी माँ कहकर उसके साथ बलात्कार करने वाले अपनी माँ के खसम उन दिनों खूब भक्ति का दिखावा करते हैं।Þ

            हर युग में व्यवस्था के विरूद्ध अभिव्यक्ति व्यंग्यकार का काम्य है। व्यवस्थाएँ बदलती हैं विद्रूपताएँ नई-नई आकृतियाँ ग्रहण कर समाज को प्रभावित करती हैं। कबीर से लेकर वर्तमान तक व्यवस्थ्काओं पर व्यंग्यकार मुखर रहे हैं। शिक्षा व्यवस्था जिसे एक संवेदनशील व्यक्ति समाज का आधार बताता आया है लेकिन हमारी व्यवस्था उसे किस ढंग से नेस्तनाबूत करने पर तुली हुई है। मध्याह्न भोजन व्यवस्था जिसके कारण शिक्षण पर कितना दुष्प्रभाव पड़ रहा है; इसकी बाननी देखिए-‘‘रेत में सर छिपा लेने से तूफान की ताकत कम नहीं होती...........। शिक्षा को तो साँस लेने की तरह स्वाभाविक होनी चाहिए। लानत भेजिए इस व्यवस्था को जहाँ शिक्षा देने और मछली फाँसने में फर्क न हो कि लालच देना पड़े, चारा डालना पड़े। आओ बच्चों, अ आ पढ़ो फिर हम तुम्हें भात देंगे अहा यम-म-म।Þ .................. इस स्यवस्था का तो मतलब हुआ कि बच्चा खा-पीकर संड मुसंड हो जाए, मानसिक विकास की जरूरत नहीं। 
 
            बेरोजगारी का दंश झेल रहे पढ़े लिखे नौजवानों पर लेखक पुनः व्यवस्था की असफलता तथा बेरोजगार नौजवानों की व्यथा को प्रस्तुत करता है। जहाँ भी बेरोजगार जाता है वहीं उसे अनचाही सलाओं का सामना करना पड़ता है। हमारी व्यवस्था के नीति निर्धारक उन्हें नौकरी न कर व्यवसाय करने की सलाह देते रहते हैं। वहीं पारिवारिक सदस्यों का स्वभाव भी उन्हें विचलित करने के लिए कम नहीं है। साथ ही साथ एन0जी00 वालों पर करारा प्रहार किया है कि लोगों को जागरूक करने का जिम्मा आम व्यक्ति का और मलाई खाने का हमारा-‘‘हाय रे सादगी से लिपटा कमीनापन, तू खुद विश्वभ्रमण कर और मैं अपने घर खाकर बाजार में दुकानदारों से मार खाऊँ और लिफाफे बनाऊँ।Þ पिता के रिटायर हो जाने पर बेरोजगार पर क्या असर होता है-‘‘उनकी चुप्पी बोलने से ज्यादा चुभती है......... और आज पिताजी ने अर्थपूर्ण ढंग से अपनी बात भी कह दी एक सूचना के रूप में कि आज से ठीक एक वर्ष बाद मैं रिटायर हो जाऊँगा।Þ जो व्यक्ति भी बोराजगारी के दौर से गुजरा हो वही जानता है कि यह अच्छा समय तो नहीं ही होता-‘‘आज एक लतीफे नुमा कहावत सुनने को मिली कि जब आदमी का समय विपरीत चल रहा हो तो ऊँट की सवारी करते हुए भी कुत्ता काट लेता है।........... हमारी पीढ़ी एक दुर्घटना का नतीजा है..... वर्ना हमारी ऐसी कुकुरगत नहीं होती।Þ

            पुस्तक की प्रतिनिधि व्यंग्य माफ करना हे पिता में पिता की मृत्यु के बाद उन्हें उनके गुणों एवं दोषों सहित याद किया गया है। भावुकता की बिल्कुल गुंजाईश नहीं है। अपने पिता को कहीं भी आदर्श न मानकर अच्छाई और बुराई का सम्मिश्रण ही माना गया। जबकि होता यह है कि मृत्यु के बाद पिता देव-सम ही हो जाते हैं लेकिन लेखक के लिए उनका रोल घटिया अभिनेता की तरह ही है-‘‘लेकिन मैं उन्हें एकदम ही पीता नहीं कहने जा रहा। इसलिये नहीं कि मेरे बाप लगते थे बल्कि इसलिए कि चाहे जो हो आदमी कुल मिलाकर कमीने नहीं थे।Þ पिता के साथ बिताए 36 वर्षों का संस्मरणात्मक व्यंग्य में लेखक के पिता सांख्यकी विभाग में चपरासी थे। संस्मरणों का सिलसिला देहरादून और अल्मोड़ा का है। माता हमेशा बीमार रहने वाली जिस कारण पिता को ही बच्चों का ख्याल रखना पड़ा था। माता की मृत्यु के एक वर्ष बाद पिता द्वारा किए गए पुनः विवाह लेखक के जीवन की एक जबरदस्त फँास थी जिसे वह कभी अपने पिता को क्षमा नहीं कर पाया। ‘‘इसके पीछे सबसे बड़ा कारण मुझे बताया गया कि मेरी देखभाल कौन करेगा!........ कारण शुद्ध रूप से शारीरिक था इतनी समझ मुझमें तब भी थी (बाकी आज भी नहीं)। पिता अपने नीजी, क्षणिक सुख के लिए शादी करना चाह रहे थे। ............ मैं उनकी इस हरकत (शादी) को कभी भी नहीं पचा पाया।Þ विमाता से भी चार सन्तानों का जन्म होता है। ‘‘उन्होंने सन्तति के रूप में अपनी अन्तिम रचना रिटायरमैण्ट के बाद प्रस्तुत की। गोया रिटायर कर दिए जाने से खुश न हो और अपनी रचनात्मक क्षमता साबित कर उन्हें सरकार को मुहतोड़ जवाब दिया हो।Þ 

        रिटायरमैण्ट के बाद उन्हें लॉटरी के चस्के तथा लॉटरी का ज्ञाता होने का दर्प पिता हँसी के पात्र ही ज्यादा नजर आते हैं। रचना यत्र-तत्र हँस-हँसकर लोटपोट कर देने के साथ ही लेखक की आन्तरिक व्यथा, उसके एकाकीपन तथा अपने मित्रों पर बोझ बन जाने वाली स्थिति लेखक के प्रति संवेदना जगाती है। स्वप्न विश्लेषण के आधार पर नंबर बताने की सिद्धहस्तता की बानगी देखिए-‘‘सपने में अगर शादीशुदा औरत दिखे तो मतलब है कि आज जीरो खुलेगा, क्योंकि औरतें बिन्दी लगाती है। कुँवारी लड़की का नम्बर अलग बनता था और अगर प्रश्नकर्ता सपने में महिला के साथ कुछ ऐसी-वैसी हरकरत कर रहा हो उससे कुछ और नम्बर निकलता था।Þ
 
            सभी गुणों (कर्मठता, हुनरमंद, खिलाने-पिलाने के शौकीन आदि) एवं अवगुणों का समुच्चय माफ करना हे पिताव्यंग्य रचना लेखक के अनुसार-पिता जैसे थे मैंने ठीक वैसे ही कलम से पेंट कर दिए। न मैंने उनका मेकअप किया, न उनपर कीचड़ उछाला’- अक्षरशः सही साबित होता है।

            विवाह नामक संस्कार को भी बारीकी से देखने की जुर्रत लो साहब गुजर गये शादियों के भी दिन नामक व्यंग्य में की गई है। बाराती बनकर किया गया छिछोरापन परिणामस्वरूप पिटाई हो या दुल्हन की विदाई के समय रूलाई और उसी वीडियो को देखकर हँस-हँस कर दोहरी हो जाना या बैण्ड बाजे के साथ झुनझुना बजाने वाले की बेचारगी हो- ये सभी शादी के विविध रंग हैं जिनका चित्रण लेखक की पैनी नजर से कैसे बच सकते हैं। शादी के समय दुल्हा किसी संस्थान में अच्छे ओहदे पर स्थापित तथा लड़की कान्वेण्ट एजुकेटेड ही नजर आते हैं। समय बीतते-बीतते दूल्हा बेरोजगार तथा दुल्हन भी वैसी पढ़ी लिखी नहीं होती जैसे उसे बताया गया था। ‘‘तो साहब कुल मिलाकर आज तक न तो किसी को अपने ख्वाबों का हूबहू शहजादा मिला न शहजादी। ............. वैसे भी रील लाईफ और रियल लाईफ में धरती आसमान का अन्तर होता है ............ तो लड़कियाँ रोती हैं विदाई के समय तो ठीक ही रोती हैं और बाद में शादी की वीडियो की रिकार्डिंग देखते हुए हँसती हैं तो क्या बुरा करती हैं? Þ

     दो इकम दो ........ में अपने स्कूली दिनों की स्मृतियों से लबालब है कि किस प्रकार पढ़ाई की प्रक्रिया में यांत्रिकता तथा कतिपय शिक्षक-शिक्षिकाओं की फूहड़ता का संस्मरणात्मक चित्रण की बानगी देखए-‘‘एक दिन हेड टीचर जी ने दरवाजे से क्लास में झांका। अरे शीला सुन तो। शीला जी उनके पास गई-हाँ दीदी? हेड टीचर कहने लगी-हाय राम, मैं पेटीकोट उल्टा पहन लाई हूँ रे आज। क्या करूँ बतातो, सीधा पहन लूँ? शीला जी ने कहा-रहने दो दीदी कौन देख रहा है, घर जाकर पहन लेना। उन्हें बात पसंद आई, उल्टे से ही काम चला दिया।Þअध्ययन और अध्यापन का यथोचित सम्बन्ध सृजनात्मकता से है, जहाँ खानापूर्ति ही एक मात्र कार्य रह जाता है वहाँ यांत्रिकता और कृतिमता का आना स्वाभाविक है। तब शिक्षण सुचारू बनाने के लिए शारीरिक दंड ही अपनाये जाते रहे हैं। इस कारण शिक्षण प्रक्रिया एक बोझ बनकर ही रह जाती है। मार से बचने की नई-नई तकनीकें विद्यार्थी विकसित कर लेता है। ‘‘दिया हुआ काम बच्चे अगर न कर पाये तो उसे बिच्छू घास का जायका लेना पड़ता था या एक बड़ा सा पत्थर सर पर रखकर पीरियड भर धूप में खड़े रहना पड़ता था। ............... हमनें आत्मरक्षा के कुछ तरीके खोज लिए थे। मसलन वे गाल पकड़कर खींचे तो मुंह का सारा थूक खीचे जा रहे गाल की ओर शिफ्ट कर दो।Þ

            मनुष्य की आदम इच्छा रही है कि वह पूर्ण मर्द कहलाए। इसी लालसा को भड़काने और समग्रतः परितुष्ट कराने का दावा करने वाले दवा विक्रेता सड़क के किनारे मजमा लगाए हुए एक तथाकथित मर्द को हमेशा से आकर्षित करते आए हैं। मदारियों-दवाफरोशों का जमाना शीर्षक के अन्तर्गत लेखक ने दवा विक्रेताओं की विक्रय-शैली को व्यक्त किया है कि दवा से अधिक उनके डायलाग किस प्रकार आकर्षण के केन्द्र होते हैं। ‘‘बकौल उनके अक्सर भालू घास-लकड़ी को जंगल गयी महिलाओं पर क्यों झपटता है, क्योंकि वह शिलाजीत खाता है। कुछ मिलाकर वह चीज इतनी गर्म थी कि ग्रीन पीस वाले उन्हें बोलना सुन लेते तो पर्यावरण के नाम पर जरूर मुकदमा कर बैठते।Þ एक ही लक्ष्य और साधन कि किसी भी प्रकार स्वयं को सन्तुष्ट करने की अदम्य कामना का ईलाज-‘‘सभी दवाफरोशों की बातों का एक ही सार होता मानो औरत कोई अवैध निर्माण हो और पुरूष को चाहिए कि उसे ढहा दें।Þ सभी जानते हैं कि - दवाविक्रेता लोगों को ठग रहे हैं लेकिन आज उदारीकरण के नाम पर देश के करोड़ों का चूना लगाने वालों का तमाशा देखने के लिए देश अभिशाप है। करोड़ों का बजट अश्ली तमाशों में लिप्त हाइटैक तमाशागीर कब देश देश की छाती पर मॅूग दलते रहेंगे। ‘‘ इन बड़े मदारी जादूगरों का तमाशा, इस देश की जनता ने न जाने कब तक झेलने को अभिशाप है, जबकि इन छोटे सड़क छाप मदारियों की अब सिर्फ यादे ही बाकी रह गई हैÞ

      व्यंग्य संग्रह माफ करना है पिता लेखक की व्यावहारिक सोच का परिणाम है कि कथनी और करनी के बीच का फासला है उसी की उपज है यह व्यंग्य रचना। व्यंग्य रचना कागद लेखी से ज्यादा ऑखन देखि का परिणाम है। भाषा में चुटीलापन है जिस भाषा की अभिव्यक्ति में संकोच हो सकता है उसे बेखौफ होकर व्यक्त किया गया है। वही भाषा जो आम जन के बीच व्यवह्त होती है अगर सहन करना मुश्किल हो जाता है तो वह स्वाभाविक तौर पर फट पड़ती है। उदाहरणार्थ- ‘‘तो यार कभी -कभार किसी न किसी बहाने साम्प्रयादिक फसाद कर लिया करो। बहाने बहुतेरे हैं। भारत-पाकिस्तान का क्रिकेट मैच ही सही। क्योंकि हमें अपने बाप के मरने का उतना अफसोस नहीं होता जितना सचिन के 99 पर आउट हो जाने पर होता है। तो यारो दंगा-संगा टाइप का कुछ न कुछ होता रहना चाहिये शहर में ।Þ

          ‘‘इस देश के अधिकांश बुद्धिजीवियों की कोई भी समस्या तब तक टच नहीं करती जब तक खुद उनकी छाती पर घूंसा न पड़े। गीदड़ों के दरवार में फर्जी सलाम करने वाले शेर हैं ये सब।Þ नये-नये मुहावरों के प्रयोग जो लिखित स्वरूप में नहीं ही होते उनका उपयोग लेखक ने शिद्द्त से किया है- यथा खुला खेल फरूखाबादी, गोली देना आदि। स्थानीय शब्दों (चुतिया के, कुकुरगत्त, लौंडे लफाड़े, शिबौशिब आदि ) का प्रयोग करके भाषा की स्वाभाविकता को बड़ा दिया है व्यंग्य संग्रह की पठनीयता जबर्दस्त है। अन्ततः कहा जा सकता है कि रचना पठनीय एवं संग्रहणीय है।


रविवार, 16 नवंबर 2014

राहुल देव की कहानी:अनाहत



                                                                      राहुल देव
 संक्षिप्त परिचय

उ.प्र. के अवध क्षेत्र के महमूदाबाद कस्बे में 20 मार्च 1988 को का जन्म | शिक्षा लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ और बरेली कॉलेज, बरेली से |
साहित्य अध्ययन, लेखन, भ्रमण में रूचि | अभी तक एक कविता संग्रह तथा एक बाल उपन्यास प्रकाशित | पत्र-पत्रिकाओं एवं अंतरजाल मंचों पर कवितायें/ लेख/ कहानियां/ समीक्षाएं आदि का प्रकाशन | इसके अतिरिक्त समकालीन साहित्यिक वार्षिकी ‘संवेदन’ में सहसंपादक | एक कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन |
वर्ष 2003 में उ.प्र. के तत्कालीन राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री द्वारा हिंदी के नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत, वर्ष 2005 में हिंदी सभा, सीतापुर द्वारा युवा कहानी लेखन पुरस्कार से तथा अखिल भारतीय वैचारिक क्रांति मंच, लखनऊ द्वारा वर्ष 2008 में विशिष्ट रचनाधर्मिता हेतु सम्मानित |
सम्प्रति उ.प्र. सरकार के एक विभाग में नौकरी के साथ साथ स्वतंत्र लेखन में प्रवृत्त |

कहानी:अनाहत

 
          “प्रशांत जी आपको मैनेजर साहब अपने कमरे में बुला रहे हैं |” चपरासी ने प्रशांत के केबिन का डोर खोलते हुए उससे कहा |
“क्यों ?”, प्रशांत ने न चाहते हुए भी पूछ लिया |
“पता नहीं”, चपरासी ने मुंह बिचकाकर कहा |
“ठीक है तुम चलो मैं आता हूँ |”, प्रशांत बोला |

           प्रशांत पिछले डेढ़ साल से शहर के इस निजी बैंक में सेल्स ऑफिसर की हैसियत से काम कर रहा था | काम ठीक-ठाक चल रहा था मगर अचानक आयी वैश्विक मंदी व बाज़ार में आयी गिरावट की वजह से पिछले तीन महीनों से उसके क्लाइंट्स उससे छूटते जा रहे थे | वह अपना टारगेट पूरा नहीं कर पा रहा था | चारों तरफ बेरोज़गारी का आलम था, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ लगातार अपने कर्मचारियों की छंटनी कर रहीं थीं | सामाजिक और आर्थिक संतुलन बिगड़ रहा था और ऐसे में लोगों की जेब से पैसे निकलवाना बहुत ही टेढ़ी खीर था |
          प्रशांत भी पिछले तीन महीनों से इन्हीं दबावों का सामना कर रहा था | प्रशांत जान रहा था कि हमेशा की तरह आज भी उसे बॉस की डांट का एक लम्बा डोज़ मिलने वाला है | हालाँकि वह यह भी जानता था कि उसका बॉस चीजों को समझने वाला एक अच्छा आदमी है | वह उसे तभी डांटता है जब खुद उसके ऊपर के अधिकारी उसके डंडा करते हैं | यों सोचते हुए थोड़ी देर बाद प्रशांत ब्राँच मैनेजर के केबिन में पहुंचा | जैसा कि उसने सोचा था ठीक वैसा ही था | मैनेजर का पारा गरम था | केबिन में घुसते ही वह प्रशांत पर बरस पड़ा-
          “मैं कई दिनों से तुम्हें देख रहा हूँ प्रशांत कि तुम्हारा ध्यान काम पर नहीं है | कहीं और ही खोए रहते हो तुम | याद है पिछले तीन महीनों से तुमने अपना टारगेट अचीव नहीं किया है !”
“सर....”, प्रशांत के कांपते हलक से सिर्फ इतना ही निकला |
“क्या सर-सर लगा रक्खा है यार, मैं कब तक तुम्हें बचाता रहूँगा | तुम्हीं बताओ पिछले तीन महीनों का तुम्हारा क्या आउटपुट है ? आखिर मुझे भी ऊपर जवाब देना पड़ता है |”, बॉस ने पानी का ग्लास हाथ में लेते हुए कहा, “जवाब दो मुझे मैं तुमसे पूछ रहा हूँ मिस्टर प्रशांत !”
“सॉरी सर मैं तीन महीनों का टारगेट इस महीने के आखिर तक पूरा करके दे दूंगा |”, प्रशांत ने एक साँस में कह दिया |  उसने क्या कह दिया है इस पर गौर करने के लिए उसके पास समय नहीं था | उसके दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था शायद !
“ओके, ठीक है जाओ और अपने काम पर ध्यान दो |”, बॉस ने नार्मल होते हुए कहा |
            बॉस की डांट सुनने के बाद प्रशांत वापस अपने केबिन में आकर कुर्सी में धंस गया | वह अपने हाथों को अपनी बंद आँखों पर रखकर सोचने लगा | हालांकि मैनेजर के सामने उसने कह तो दिया था लेकिन उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह अपना टारगेट कैसे पूरा करेगा ! उसकी नौकरी पर संकट के बादल मंडरा रहे थे | चारों ओर से लगातार बढ़ते जा रहे दबाव, चिंता और बेचैनी के बीच उसे अपना बीते हुए दिन याद आ रहे थे.....

           यहाँ-वहाँ पड़े हुए बगैर ढक्कन के पेन, पेंसिल की छिली हुई कतरनें और मेज पर बेतरतीब फैली हुई ढेरों किताबों और कापियों के बीच बैठा हुआ प्रशांत ज्योमेट्री के सवाल लगाने में व्यस्त था | उसे एक प्रश्न कुछ कठिन लग रहा था, वह बार-बार उस प्रश्न को हल करने की कोशिश करता पर उत्तर नहीं आ रहा था | तभी उसकी बहन बबली उसके लिए चाय लेकर आयी |
‘लो भईया गरमागरम चाय पियो’, बबली ने कहा |
‘नहीं बबली पहले मैं यह सवाल लगा लूँ तब चाय पियूँगा | तुम पी लो और अम्मा को भी दे दो’, प्रशांत ने शांत भाव से कहा |
             यह कहानी 20 मार्च 1999 की है जब प्रशांत इंटरमीडिएट का विद्यार्थी था | हाईस्कूल उसने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया था | उसके पिताजी एक कंपनी में साधारण वर्कर थे | लखनऊ में उनका अपना मकान था | परिवार में वह, उसकी एक बहन व उसके माता-पिता थे | प्रशांत शुरुआत से ही पढ़ने में बहुत होशियार था | हर बार परीक्षा में उसके सबसे अच्छे अंक आते थे | हाईस्कूल की परीक्षा उसने विज्ञान वर्ग से उत्तीर्ण की थी और आगे चलकर वह किसी नामी कंपनी में अधिकारी बनना चाहता था |
          प्रशांत के पिता बहुत कट्टर और सिद्धांतवादी थे | उनकी मर्ज़ी के खिलाफ घर में कोई काम नहीं होता था | उनकी इस आदत से घर के सभी सदस्य परेशान थे पर बेचारे मरते क्या न करते | उन्होंने जो भी तुगलकी फरमान एक बार सुना दिया वो सुना दिया फिर चाहे वह सही हो या गलत |
आज प्रशांत सुबह जल्दी ही नहा धोकर फ्रेश हो रहा था | बबली ने जब भाई को जल्दी तैयार होते देखा तो बोली, ‘भैया आज कहाँ जाने का इरादा है ? वैसे तो तुम जाड़े के दिनों में कभी इतनी जल्दी नहीं उठते फिर आज कैसे ? जरुर कोई बात है !’
‘नहीं बबली ऐसी कोई बात नहीं है |’
‘तो बात क्या हैं भैया कुछ बताओगे भी !’
‘दरअसल आज मेरे दोस्त के घर में न्यू इयर की पार्टी है इसलिए मुझे वहाँ जल्दी पहुंचना है |’
‘दोस्त या दोस्तिन’
‘ऐसा कुछ नहीं है बबली’
‘ओहो अब मैं समझी वैसे तो आप हफ़्तों नहीं नहाते थे और आज आपको ठंडे-ठंडे पानी से नहाते जाड़ा नहीं लगा ?’, बबली हँसते हुए बोली |
‘चुप कर कहीं अम्मा ने सुन लिया तो हजामत बना देगी |’, यूँ कहकर प्रशांत बाहर चला गया |
            प्रशांत के पेपर सिर पर थे इसलिए अब वह हर समय पढ़ाई में व्यस्त रहता था | उसकी बहन उसकी पढ़ाई में बहुत सहायता करती थी क्योंकि वह अपने भाई को बहुत प्यार करती थी | वह चाहती थी कि उसका भाई पढ़-लिखकर एक दिन बड़ा आदमी बने | वह प्रशांत के स्वास्थ्य का भी पूरा ख़याल रखती थी |
          कुछ दिनों बाद प्रशांत के पेपर प्रारंभ हो गए | पहला पेपर हिंदी का था | प्रशांत जल्दी-जल्दी तैयार होकर घर से निकला | पेपर सुबह की मीटिंग में था | प्रशांत रात भर पढ़ता रहा था इसलिए सुबह उसकी आँखें काफी सूजी हुई और लाल थीं |
          प्रशांत परीक्षा केंद्र पहुंचा | क्लासरूम खुल जाने पर सभी छात्र अपना-अपना रोल नंबर देखकर कक्षाओं में जाने लगे कि तभी चार-पांच लड़कियां डिस्प्ले बोर्ड की ओर आयीं और अपना-अपना रोल नंबर ढूँढने लगीं | शायद बहुत देर से उन्हें अपना रोल नंबर नहीं मिल रहा था | तभी पीछे से एक लड़की ने प्रशांत को पुकारा, ‘एक्सक्यूज मी ज़रा सुनिए !’
प्रशांत ने पीछे मुड़कर देखा | उस लड़की ने घबराते हुए जल्दी में कहा, ‘मेरा नाम अनुषा है ज़रा मेरा रोल नंबर ढूँढने में मेरी मदद करेंगे | मुझे मिल नहीं रहा है और पेपर शुरू होने में सिर्फ पांच मिनट शेष रह गए हैं |
प्रशांत ने उसे देखा, उसके चेहरे पर पसीने की बूँदें स्पष्ट रूप से झलक रहीं थीं | वह सफ़ेद रंग का सलवार सूट पहने हुए थी जिस पर पड़ा हुआ काला दुपट्टा उसके रूप की शोभा को और भी बढ़ा रहा था | उसने अपने घने काले बालों को कसकर चोटी बनाकर उसमे एक गुलाबी रंग का रिबन बांध रखा था |
           ‘प्लीज ज़रा जल्दी करिए’, अनुषा ने कहा |
शायद वह डर रही थी कि कहीं उसका पर्चा छूट न जाये | प्रशांत ने अपने होश सँभालते हुए उसके कांपते हाथों से उसका प्रवेश पत्र लिया और डिस्प्ले बोर्ड पर चस्पा लिस्ट में उसका नाम ढूँढने लगा | उसका रोल नंबर प्रशांत के रोल नंबर से कुछ ही अंक ज्यादा था | दोनों का रोल नंबर स्कूल के द्वितीय तल के कमरा नंबर 19 में था | अनुषा की सीट प्रशांत से तीसरे नंबर की लाइन में थी | वह चुपचाप जाकर अपनी सीट पर बैठ गयी | नियत समय पर बेल बजी और पेपर बंटने लगे पर प्रशांत की आँखों में वही सूरत याद आ रही थी हालाँकि अनुषा प्रशांत से पीछे की सीटों पर बैठी हुई थी परन्तु मुड़कर उसे दुबारा  देखने की सामर्थ्य प्रशांत में नहीं थी | उसे ऐसा लगा कि जैसे अनुषा मन ही मन उसे थैंक्स कह रही है |
             उस दिन प्रशांत ने जैसे-तैसे पेपर तो कर डाला था लेकिन घर आकर बार-बार उस लड़की की सूरत उसकी आँखों में आ जाती थी | वह सोच रहा था कि वह उसका नाम भी नहीं पूछ सका | शायद वह भूल गया था कि उसने अपना नाम उसके बगैर पूछे ही बता दिया था | प्रशांत सोच रहा था कि वह कौन है,कहाँ रहती है वगैरह वगैरह पर थोड़े ही दिनों बाद अपने कैरिअर का खयाल करके उसने उस लड़की के बारे में सोचना ही बंद कर दिया |
              समय बीतता गया और इन्टर का रिजल्ट भी निकल आया | प्रशांत ने पेपर में अपना रिजल्ट देखा तो वह प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ था | वह आज बहुत खुश था और इस समय उसे अनायास ही वह लड़की याद आयी जो उसे पेपर के समय मिली थी | प्रशांत सोच रहा था कि पता नहीं वह पास हुई या नहीं, वह उसका रोल नंबर याद करने की कोशिश करने लगा | उसे उसका रोल नंबर याद आया, देखा तो वह भी पास थी | यह देखकर पता नहीं क्यों प्रशांत को बहुत आत्मिक संतोष का अनुभव हुआ |
              प्रशांत ने अब बीएससी में एडमिशन ले लिया था | अब वह यूनिवर्सिटी का छात्र था | इतने समय बाद भी प्रशांत के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया था | उसके ज्यादा दोस्त नहीं थे, वह अब भी उसी सादगी के साथ रहता था और अपनी पढ़ाई में मन लगाता था | उसे अपने माता-पिता और अपने सपनों को साकार करना था और खासकर अपनी बहन जो कि उसे दिलोजान से चाहती थी | प्रशांत अपनी पढ़ाई पूरी करके जल्द से जल्द नौकरी पाना चाहता था और सोचता था कि वह अपनी बहन की शादी किसी अच्छे घर-परिवार में कर दे जहाँ उसकी बहन सुखी रहे |
धीरे-धीरे बीएससी प्रीवियस व सेकंड इयर पास करके वह फाइनल इयर में आ गया था, इस वर्ष प्रशांत काफी मेहनत कर रहा था |
              एक दिन प्रशांत कॉलेज के लॉन में बैठा हुआ कुछ सोच रहा था कि तभी उसकी नज़र सामने से आती हुई एक लड़की पर पड़ी | प्रशांत ने उसे देखा तो फिर देखता ही रह गया उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि यह वही लड़की है जो उसे इन्टर का पेपर देते समय मिली थी | प्रशांत को एक पल के लिए अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ लेकिन वह अनुषा ही थी | आज वह हलके आसमानी रंग का सलवार सूट पहने हुई थी तथा उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में काजल की एक पतली सी रेखा थी जो कि उसकी सुन्दरता में चार चाँद लगा रही थी | अब वह प्रशांत के और पास आती जा रही थी |
प्रशांत सोच रहा था कि इतने लम्बे अन्तराल के बाद क्या वह उसे पहचान पायेगी या नहीं पर उसका शक गलत था वह प्रशांत को पहचान गयी थी |
‘सर बीए प्रीवियस की क्लास कौन सी है’, उसने पूछा |
              उसके मुहं से सर शब्द सुनते ही प्रशांत भौचक्का रह गया उसने मन ही मन सोचा कि क्या यह भी यहीं पढ़ती है, पर इससे पहले तो इसे यहाँ पर कभी नहीं देखा | हड़बड़ी में कुछ संभलते हुए वह बोला, ‘नमस्ते...बैठिये !’
             वह वहीं पड़ी बेंच पर एक तरफ बैठ गयी | थोड़ी देर तक दोनों चुप बैठे रहे फिर अनुषा ने बात शुरू की- ‘सर आपका नाम प्रशांत है न ! मैं तो इस कैंपस में पहली बार आयीं हूँ | वैसे मुझे लगता है कि आप यहाँ पर बहुत फेमस हैं आज कई सहेलियों से आपकी काफी तारीफ सुनी |’
प्रशांत सोच रहा था कि काफी बातूनी लड़की है |
‘माफ़ करिए क्या मैं आपका नाम जान सकता हूँ’, उसने बात आगे बढ़ाने के लिहाज से पूछा |
‘मेरा नाम अनुषा है, मैंने आपको बताया था |’ अनुषा ने जवाब दिया |
‘हाँ शायद मैं भूल गया था | आपको याद है आप मेरे साथ दो साल पहले इन्टर का इग्जाम दे रहीं थीं |’, प्रशांत ने कहा |
‘हाँ अच्छी तरह याद है कि आपने ही उस दिन मेरा रोल नंबर ढूँढा था | नहीं तो मेरा पेपर छूट जाता और मैं फेल हो जाती |’ अनुषा ने कहा |
‘तो फिर आज आप यहाँ कैसे ?’ प्रशांत ने पूछा |
‘बहुत लम्बी कहानी है छोड़ो फिर कभी बताऊँगी’, उसने कहा |
प्रशांत के बार-बार जोर डालने पर अनुषा ने एक गहरी साँस ली और बताने लगी-
             ‘दरअसल मेरा इन्टर का पेपर हो जाने के बाद मैं छुट्टियों में अपने घर इलाहाबाद चली गयी थी | रिजल्ट निकला तो मैं पास थी | इसके बाद पापा ने मेरी पढ़ाई बंद करवा दी | हालांकि मैं और आगे पढ़ना चाहती थी पर पापा कहते कि पढ़-लिखकर क्या अफसर बनना है | उन्होंने कहा कि वह मेरी शादी कर देने वाले हैं फिर ससुराल में जो मन आये वो करना और फिर कौन सी लम्बी कमाई है हमारी | इन्टर तक पढ़ा दिया यही बहुत है |’
प्रशांत ध्यान से अनुषा की बातों को सुन रहा था | अनुषा ने आगे बताया-
‘मम्मी मुझे और पढ़ाना चाहती थी | इसी बीच मेरे लिए एक रिश्ता आ गया और मेरी शादी तय कर दी गयी | मैं इतनी छोटी उम्र में शादी नहीं करना चाहती थी लेकिन सिर्फ चाहने से ही हर चीज़ कहाँ होती है | देखते-देखते मेरी शादी की तारीख भी पक्की हो गयी और मेरी शादी हो गयी | कुछ दिनों बाद पता चला वह लड़का किसी और लड़की को चाहता था | यह शादी उसकी मर्ज़ी के खिलाफ हुई थी | धीरे-धीरे हम दोनों के बीच अक्सर छोटी-छोटी बातों को लेकर लड़ाईयां होने लगीं | मेरा पति मुझे रोज ताने मारता था और एक दिन....!’
बताते-बताते अनुषा चुप हो गयी |
‘आगे बताओ अनुषा’, प्रशांत ने सहानुभूति के साथ कहा |
‘और एक दिन उसने मुझे तलाक दे दिया | मैं अपने मायके चली आयी | अब मैं घर में किसी से नहीं बोलती थी | बस पूरा दिन चुपचाप अपने कमरे में गुमसुम सी बैठी रहती | मम्मी से मेरी यह हालत देखी नहीं गयी उन्होंने पापा से जिद करके मुझे मामा के यहाँ लखनऊ भेज दिया | मामा के यहाँ आकर मुझे कुछ अच्छा लगा और मैं धीरे-धीरे सब कुछ भूलने की कोशिश करने लगी | फिर मम्मी ने मेरी इच्छा को देखते हुए मेरा एडमिशन यहाँ करवा दिया | मैं अब मन लगाकर पढ़ना चाहती हूँ ताकि आगे अपने पैरों पर खड़ी हो सकूँ |’
इतना कहकर अनुषा चुप हो गयी |
‘बीए में कौन से विषय है आपके’, प्रशांत ने पूछा |
‘हिंदी, राजनीति शास्त्र और समाज शास्त्र’, अनुषा ने कहा |

            घर आकर प्रशांत ने अनुषा के विषय में सोचना प्रारंभ कर दिया | वह सोच रहा था कि कैसे माँ-बाप होते हैं जो अपने बच्चों का ज़रा भी ध्यान नहीं रखते उनके भविष्य के बारे में नहीं सोचते | अगर आज अनुषा ने अपनी शिक्षा पूरी कर ली होती तो वह अपने पैरों पर खड़ी हो सकती थी | वह अनुषा के विषय में और भी बहुत कुछ जानना चाहता था क्योंकि अनुषा उसे बहुत अच्छी लगी थी और पहली बार उसने किसी लड़की से इतनी देर तक अन्तरंग बातें की थीं | धीरे-धीरे प्रशांत अनुषा के नजदीक आने लगा था और उसने अनुषा को अपने परिवार के बारे में भी काफी कुछ बता दिया था | अनुषा ने अब प्रशांत को सर कहना भी छोड़ दिया था | जब कभी भी अनुषा के मुहं से सर निकल जाता तो प्रशांत नाराज़ होकर चला जाता था |
               यूनिवर्सिटी कैंपस में वे दोनों बातें करते रहते, घूमते, पढ़ते और हँसते थे | शायद प्रशांत ने अनुषा के सारे ग़मों को भुला दिया था | यद्यपि प्रशांत और अनुषा की मंजिलें अलग-अलग थीं | कहाँ वह साइंस का छात्र और कहाँ वह कला वर्ग की छात्रा, लेकिन दोनों के विचार आपस में बहुत मिलते थे | प्रशांत और अनुषा की दोस्ती वक़्त के साथ और भी गहरी होती चली गयी |
          प्रशांत अनुषा को मन ही मन बहुत चाहने लगा था | अनुषा भी उसे पसंद करती थी लेकिन अभी तक उसने अनुषा से अपने दिल की बात नहीं कही थी | शाम को प्रशांत अपनी मेज पर पढ़ने बैठा तो उसके सामने अनुषा का मुस्कुराता हुआ चेहरा घूमने लगा | वह पढ़ाई छोड़ बिस्तर पर आ लेटा और करवटें बदलने लगा, उसे नींद भी नहीं आ रही थी क्योंकि अगले दिन कॉलेज में फेयरवेल पार्टी थी उसे डर था कि उसके बाद वह और अनुषा....! आखिरकार बड़ी हिम्मत कर उसने अनुषा के नाम एक प्रेमपत्र लिखने का निश्चय किया |
            अगले दिन कैंपस में फेयर वेल की पार्टी थी | सभी लड़के एवं लड़कियां आ जा रहे थे एवं कुछ तैयारी कर रहे थे पर प्रशांत आज उदास था | वह सोच रहा था कि जब पेपर हो जायेंगे तब वह और अनुषा कहाँ मिलेंगे | यही सब सोचकर प्रशांत का चेहरा मुरझाया हुआ था | तब तक पार्टी शुरू हो चुकी थी | फ्रेंड्स की रिक्वेस्ट पर अनुषा ने एक बड़ा सुन्दर सा गीत भी गाया....
‘करुँ सजदा एक खुदा को
पढूँ कलमा या मैं दुआ दूँ ,
दोनों हैं एक
खुदा और मुहब्बत !.... ‘
               उसकी मीठी आवाज़ में यह गीत सुनकर प्रशांत भाव विह्वल हो उठा | इसके बाद क्रम से सभी लोगों ने कुछ न कुछ परफॉर्म किया मगर प्रशांत के दिमाग में  केवल अनुषा के द्वारा गाये गए गाने की पंक्तियाँ ही गूँज रहीं थीं |
             पार्टी समाप्त होने के बाद प्रशांत और अनुषा घूमने निकल गए | प्रशांत सोच रहा था कि वह अनुषा से अपने दिल की बात डायरेक्ट कह दे | वह डर भी रहा था कि कहीं अनुषा उसे गलत न समझ बैठे | उसे लगा कि शायद अनुषा उसे अपना एक अच्छा दोस्त समझती है और कुछ नहीं | कहीं ऐसा न हो कि उसके प्रपोज करने पर वह शॉक्ड न हो जाए और फिर फलस्वरूप वह दुबारा टूट जाए | प्रशांत इसी उधेड़बुन में लगा हुआ था कि अनुषा ने उससे कहा,
‘काफ़ी ?’
           प्रशांत ने स्वीकृति में अपना सिर हिलाया और वे दोनों एक रेस्तरां में बैठकर काफी पीने लगे | काफी देर तक दोनों शांत से बैठे रहे, कुछ देर बाद प्रशांत ने कहा,
‘कुछ बोलोगी...’
‘क्या बोलूं’, अनुषा ने मुस्कुराते हुए कहा |
‘अच्छा सुनो अनुषा आज हम दोनों के साथ का आखिरी दिन है फिर पेपर्स शुरू हो जायेंगे और फिर पता नहीं तुम कहाँ और मैं कहाँ |’
अनुषा उसकी बातें ध्यान से सुन रही थी |
‘अनुषा एक बात कहूँ बुरा तो नहीं मानोगी’, प्रशांत ने कहा
‘कहो’, अनुषा बोली
प्रशांत ने अपने आप को नियंत्रित करते हुए कहा-
‘अगले साल तुम्हे कॉलेज में कैसा लगेगा ?’
‘पता नहीं..’, मानो अनुषा ने आधे मन से कहा हो |
                    दरअसल प्रशांत कहना कुछ और चाहता था पर अपने संकोच और शर्मीले स्वभाव के कारण वह कुछ कह नहीं पाया | अनुषा ने प्रशांत को दो मिनट रुकने का इशारा किया और रेस्त्रा के काउंटर की तरफ चली गयी | उसकी कुर्सी पर उसका बैग पड़ा हुआ था | प्रशांत को पता नहीं अचानक क्या हुआ और उसने धड़कते दिल से रात में लिखा हुआ लवलेटर निकाला और जल्दी से अनुषा के बैग में से उसकी डायरी निकालकर उसमे रख दिया | कुछ देर बाद अनुषा वहाँ आ गयी, उसके हाथ में दो आइसक्रीम्स थीं | उसने एक आइसक्रीम प्रशांत को दी और दोनों आइसक्रीम खाने लगे | आइसक्रीम खा चुकने के बाद प्रशांत अनुषा को ऊँगली दिखाकर वाशरूम की तरफ चला गया |
              अनुषा कुछ सोच रही थी, मन ही मन वह भी उसे पसंद करती थी | दोनों को शायद एक दूसरे के इजहारे इश्क की पहल का इंतज़ार था | अचानक अनुषा को कुछ याद आया और उसने एक गुलाब का फूल अपने बैग से निकालकर प्रशांत के बैग से उसकी डायरी निकालकर उसमे रख दिया | थोड़ी देर में प्रशांत वापस आ गया और दोनों थोड़ी देर और टहलने के बाद अपने-अपने घर चले गए |
                जीवन का अर्थ उन्नति है उन्नति का मतलब हृदय का विस्तार है और हृदय का विस्तार तथा प्रेम एक ही वस्तु है अतएव प्रेम ही जीवन हुआ और वही एकमात्र जीवन गति का नियामक है | स्वार्थपरता ही मृत्यु है, जीवन रहने पर भी प्राणी को यह मृत्यु घेर लेती है और देहांत हो जाने पर यही स्वार्थपरता वास्तव में मृत्यु है | सामान्य प्रेमकथाओं में असामान्य भावनाओं का उद्रेग होता है | तमाम सामाजिक और पारिवारिक वर्जनाओं के नीचे अनुषा व प्रशांत के प्यार की भावनाएं आज दबी रह गयीं थीं |
              अनुषा पेपर्स होने के बाद अपने घर इलाहाबाद चली गयी थी और उधर प्रशांत भी अपने एक्जाम्स के बाद प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियों में लग गया था | वह सोचता था कि हो सकता है कभी शायद अनुषा से उसकी मुलाकात हो जाए क्योंकि वह जानता था कि अनुषा कम से कम यहाँ बीए तक तो पढ़ेगी ही और वह कॉलेज जाकर उससे मिल लिया करेगा | वह यह भी सोचता कि क्या अनुषा ने उसका प्रेमपत्र पढ़ा होगा ?
धीरे-धीरे छुट्टियों के बाद कॉलेज भी खुल गए | प्रशांत अक्सर अनुषा से मिलने के लिए कॉलेज जाता था पर उसे कहीं भी अनुषा दिखाई नहीं देती थी | प्रशांत अपने मन को यह समझाकर संतोष कर लेता कि हो सकता है कि वह अभी घर से न आई हो | इसी तरह करते करते दिन, महीने, साल बीतते चले गए | कितनी बार पतझड़ हुआ और पेड़ों में नयी-नयी कोपलें मुस्कुरायीं, बौर फूला और झड़ गया | इसी बीच प्रशांत को एक ठीक-ठाक नौकरी भी मिल गयी | वह दिन भर ऑफिस में व्यस्त रहता और शाम को घर आकर सो जाता | इसी बीच अपनी उसने बहन की शादी भी कर दी थी | दिन भर की भाग-दौड़ की ज़िन्दगी में वह तो जैसे अनुषा को भूल ही गया था | घर में प्रशांत के पिता चाहते थे कि वह जल्दी से जल्दी शादी कर ले ताकि उसकी माँ को कुछ आराम मिले |
              दूसरी तरफ अनुषा का जीवन था | वह अपने घर इलाहाबाद लौट गयी थी | उसके पिता ने उसकी दूसरी शादी तय कर दी थी | उसके मन में भी प्रशांत के प्रति प्रेम था परन्तु इन भावनाओं को समय पर व्यक्त करने में उसने स्वयं को असमर्थ पाया था |
             एक दिन अनुषा घर की साफ़-सफाई कर रही थी कि तभी अलमारी में उसकी नज़र अपनी डायरी से बाहर निकले हुए कागज़ पर पड़ी | उसके कागज़ को डायरी से बाहर निकालकर देखा तो वह प्रशांत का प्रेमपत्र था | उसने वह पत्र पढ़ना शुरू किया-
‘प्रिय अनुषा ! कैसी हो ?
             मैंने इससे पहले किसी को प्रेमपत्र नहीं लिखा इसलिए समझ में नहीं आ रहा है कि कहाँ से शुरू करूँ | आई लव यू वैरी मच ! शायद जब तुम मेरा पत्र पढ़ रही होगी तब तक हम दोनों बहुत दूर होंगे | क्या तुम्हे याद है कि सबसे पहले हम दोनों कैसे मिले थे ? मैंने तो जब तुम्हे पहली बार देखा तभी से पागलों की तरह तुम्हे देखता ही रह गया | यू अरे लुकिंग सो ब्यूटीफुल एट देट टाइम ! सचमुच मुझे तुमसे पहली नज़र में ही प्यार हो गया था |
             मैंने तब तुम्हे बड़ी गहराई से नोटिस किया था लेकिन मैं यह भी सोचता था कि क्या तुमने भी मुझे नोटिस किया होगा | कॉलेज में तुम जब मुझे देखकर मुस्कुराती थी तो मेरा मन मचलने लगता था | मैं उस समय तक काफी अंतर्मुखी स्वभाव का था इसीलिए लड़कियों से बातचीत करने में असहजता महसूस करता था | फिर उस समय इश्क, मोहब्बत जैसी बातें आई मीन टू से किसी को प्रपोज करना देटस लाइक वैरी अनकमफ़रटेबल एंड बिग थिंग फॉर मी ! तुम्हारे इशारे तो मैं ठीक-ठीक समझ भी न पाता था और मुझे इशारा करना भी नहीं आता था | यानी कि पूरी कहानी वनसाइडेड सी थी | उस समय की मेरी स्थिति मैं तुम्हे क्या बताऊँ मेरी रातों की नींद उड़ गयी थी क्योंकि सपनों में तुम होतीं थी पढ़ाई में मन कम लगता था क्योंकि किताबों में तुम होती थी, चीज़ें इधर-उधर रखकर भूल जाता था क्योंकि खयालों में तुम होती थीं, यानी की बस हर जगह तुम ही तुम | किसी शायर ने क्या खूब कहा है-
‘जहाँ के जर्रे-जर्रे में वो ही नज़र आये तुमको,
हकीकत में अगर तुमको किसी से प्यार हो जाए !’
           अनुषा हो सके तो लिखना कि उस समय तुम मेरे बारे में क्या सोचती थीं | शायद तुम्हे मेरी पहल का इंतज़ार था और मैं इस आस में था कि पहल तुम करोगी | इस उम्मीद में काफी दिन गुजर गए |
अनुषा क्या तुम अपनी दोस्ती के दिनों के इस विस्तृत वर्णन से बोर तो नहीं हो रही हो...ओके अनुषा, तुम्हे याद है जब मुझे कॉलेज में देखकर तुम हैरान हुई थीं और मैं खुश ! समय बीतता गया और पता ही न चला कि कब हमारी तुम्हारी दोस्ती हो गयी |
                 अनुषा मैं तुम्हे सच्चा प्यार करता था, करता हूँ और करता रहूँगा | (मैं जानता हूँ कि ये बहुत घिसीपिटी लाइनें हैं जिन्हें पढ़कर तुम्हे मेरे ऊपर हंसी आ रही होगी...) सचमुच प्यार के ये अंदाज़ कैसे निराले होते हैं न | आई थिंक लव इज ए डिवाइन थिंग, जीवन में जिसने प्यार नहीं किया उसने कुछ नहीं किया | प्यार शरीर का नहीं प्यार तप आत्मा का होता है और जब आत्मा से आत्मा का मिलन हो जाता है तो शरीर की भूमिका उसमें नगण्य हो जाती है |
            अनुषा ! तुम तो मुझे जानती हो, मैं बहुत बोलता हूँ न, लेकिन मैं क्या करूँ | तुमसे बातें शुरू करता हूँ तो ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेतीं | मैं अपने कॉलेज के दिनों को बहुत मिस करूँगा | समाज की कुछ घिसीपिटी विडम्बनाएँ ही शायद मेरे और तुम्हारे डर का कारण हैं | संस्कृति और सभ्यता का झूठा आवरण मुझसे अब और नहीं ओढ़ा जाता, मेरा तो दम घुटता है इस माहौल में !
              अनुषा, लोग कहते हैं कि प्यार में बड़ी ताकत होती है | अगर हम दोनों का प्यार सच्चा है तो वह अपनी मंजिलें खुद तलाश लेगा |
अनुषा शायद मैं भावनाओं में कुछ ज्यादा ही बह रहा हूँ पर मेरे कारण तुम बिलकुल भी परेशान मत होना | सच बात तो यह है कि मुझे लव लैटर लिखना ही नहीं आता | बात कहाँ पर शुरू की थी और कहाँ पर ख़त्म कर रहा हूँ | हो सके तो तुम जवाब जरूर देना, शायद मैं तुमसे कुछ सीख सकूँ और हाँ मेरी एक बात हमेशा याद रखना | ऑलवेज थिंक पॉजिटिव ! मंजिलें और भी हैं रास्ते भी हैं कारवां छूटा तो क्या राही, हम अपने दम पे नया कारवां बनायेंगे, जलने वाले जलते रहेंगे और प्यार करने वाले हमेशा प्यार करते जायेंगे | फिलहाल इतना ही शेष फिर कभी, तुम्हारा- प्रशांत’
पत्र ख़त्म हो चुका था | अनुषा की आँखें आंसुओं से भीगी हुई थीं उसे यह अंदाज़ा न था कि प्रशांत उसे इस कदर प्यार करता था | उसे प्रशांत पर गुस्सा आ रहा था कि उसने समय रहते उससे अपने मन की बात क्यों नहीं कही | साथ ही उसे अपने आप पर भी क्रोध आ रहा था कि उसने इतने समय बाद अपनी डायरी खोलकर क्यों देखी जिसमे प्रशांत का प्रेमपत्र रखा हुआ था |
        और दूसरी तरफ प्रशांत था जो अपने जीवन की आपाधापी में कहीं खो गया था |

             “सर घर जाइए ऑफिस बंद करना है |”, चपरासी की आवाज़ सुनकर प्रशांत ने अपनी आँखें खोलीं तो देखा ऑफिस बंद होने का टाइम हो चुका था | उसने अपने आपको व्यवस्थित करते हुए अपना बैग उठाया और बोझिल क़दमों से घर की ओर चल पड़ा | इधर पिछले तीन महीनों से पता नहीं उसे क्या हो गया था | क्लाइंट्स छूटते चले जाने की वजह से वह अपने तयशुदा टारगेट से बहुत पीछे चल रहा था और जिसकी वजह से आज ऑफिस में उसके बॉस ने उसे डांटा था | घर आकर उसने चुपचाप खाना खाया और सो गया |
               सुबह प्रशांत ने कुछ जरूरी कागज़ात निकालने के लिए अपनी अलमारी खोली | अचानक उसकी वही डायरी जमीन पर गिर गयी जिसने अनुषा ने गुलाब का फूल रखा था और उसकी सारी पंखुडियां जमीन पर बिखर गयीं | प्रशांत ने नीचे देखा तो उसे लगा कि जैसे एक पल के लिए उसकी वही पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं हों | वही अनुषा, वही कॉलेज लाइफ, घूमना, हँसना सब कुछ उसे याद आने लगा | अनुषा की यादों ने प्रशांत के हृदय को झकझोर डाला | उसके मस्तिष्क में फिर से कई प्रश्न उभरने लगे- कहाँ होगी अनुषा ? किस हाल में होगी वह ?? क्या उसकी दुबारा शादी हो गयी होगी या वह उसका इंतज़ार कर रही होगी ???
                  एक क्षण के लिए वह समझ नहीं पा रहा था कि वह क्या करे ! प्रशांत ने धीरे से डायरी उठाई और फूलों की पंखुड़ियों को बीनकर डायरी के उस पृष्ठ को खोला जिसमे वह फूल रखा था | उसकी आँखें नम थीं | वह आज अपने आप में पछता रहा था | वह सोच रहा था कि काश अगर उसने अपने प्यार का इज़हार कर दिया होता तो अनुषा आज उसकी होती | अनुषा को उसके जीवन के सफ़र में उसने अकेला ही छोड़ दिया | आखिर किस के सहारे जी रही होगी वह ? जीवन में उसे एक ही तो सच्चा साथी मिला था अगर वह उसके भी काम न आ सका तो उसका जीवन व्यर्थ है |
प्रशांत को ऑफिस की देर हो रही थी इसका उसे पता न था | वह तो अपनी बीती यादों में गम हुआ जा रहा था | एक प्रश्न बार-बार उसके मस्तिष्क में गूँज रहा था कि क्या अनुषा वापस लौट आएगी उसकी दुनिया में ! शायद उसे आज भी उसका इंतज़ार था | उसकी ज़िन्दगी के ख्वाब भी गुलाब की पंखुड़ियों की तरह बिखर गए थे |




संपर्क सूत्र-
9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध), सीतापुर, उ.प्र. 261203
मो– 09454112975
ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com

सोमवार, 10 नवंबर 2014

कविता-बादल मामा: डॉ0 सुरेन्द्र दत्त सेमल्टी




       डॉ0 सुरेन्द्र दत्त सेमल्टी ने यथार्थ के धरातल पर बच्चों के लिए कई सारे सराहनीय कार्य किये हैं। बच्चों की रचनाधर्मिता को आगे लाने में सतत प्रयत्नशील रहने वाले सेमल्टी जी को उत्तराखण्ड सरकार ने शैलेश मटियानी राज्य शैक्षिक पुरस्कार से पुरस्कृत भी  किया है। अब तक इनकी 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।फिलहाल ये एक राजकीय विद्यालय में प्रधानाचार्य के पद पर कार्यरत हैं।

प्रस्तुत है इनकी एक कविता-बादल मामा

बादल मामा तुम महान
धरती की बढाते हो शान
नित रहते हो तुम आकाश
मैं भी आना चाहता पास
पंख नहीं हैं मेरे पास
पर उड़ना चाहता हूं आकाश
सपना ऐसा देखता रोज
जीवन बनाना नहीं चाहता बोझ
मामा जी तुम पकड़ो हाथ
रहेंगे सदा हम दोंनो साथ
सीखूंगा मैं वह सब गुण
जिनमें आप सदा निपुण
बदलते रंग रूप आकार
उड़कर समुद्र को करते पार
गरजते,चमकते, बरसते नित्य
छिपा नहीं किसी से यह सत्य
सींचते वृष्टि से सदा धरा
बनता उसका तब रंग हरा
खुशहाली सम्मपन्नता है आती
दुख-दरिद्रता सब भग जाती
मैं भी चाहता धरती का हित करता
महान कार्य में क्या है डरना
बादल मामा मुझको खींचो
ज्ञान से मेरे मन को सींचो।
संपर्क-
पुजार गांव , हिण्डोलाखाल , टिहरी गढ़वाल  , उत्तराखण्ड ,249122
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