मंगलवार, 24 मार्च 2015

ज्ञान प्रकाश चौबे की कविताएं-



   

     बहुत कम उम्र में ही कविता से शुरूआत करने वाले ज्ञान प्रकाश चौबे ने बहुत जल्द ही कविताओं की ठोस जमीन तैयार कर ली। अपनी बोली-बानी के शब्दों को धार देकर कविता में ऐसे पिरोते हैं कि विचलन की स्थिति नहीं आती । बल्कि इनकी काव्य भाषा चमक उठती है। इस सदी के पहले दशक में हिन्दी साहित्य में खूब धमक के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करायी लेकिन बाद में कई सालों तक अज्ञातवास की स्थिति में चले गये थे। अब पुनः दमखम के साथ उपस्थित हैं।

प्रस्तुत है इनकी कुछ कविताएं-

नींद अन्धेरे में 

नींद होती सुबह में
सुनता हूं
खिसकती हुई दुनिया की आहटें

नींद के आँगन में
झांक कर देखता हूं
पगुराते समय को

नींद के सिवान में
भटकाता हूं
रेहड़ से गुम हुई भेड़ों की तलाश में

नींद की परछाईयों में
चटख रंग भरते हुए
खींचता हूं
एक पूरे दिन का भरापूरा चेहरा
और समय को
बांधने की लापरवाह कोशिश करता हूं

नींद अंधेरे में
लगाता हूं
जागते रहे की टेर

जंगल कथा
सूरज लाल है
लाल है हमारी आंखों में
बधें हुए बाजुओं की कीमत
कि हमारी सांसे
हमारे ही जंगल की
ज़रखरीद गुलाम बन चुकी है
हमारे पहाड़ हमारे नहीं रहे
नहीं रही उनके चेहरे पर
हमारे मांसल सीने की कसी हुई चमक
तेंदु के पत्तों से टपकता
हमारी औरतों का खून
हमारे भालों ,बरछों, लाठियों पर चमकता हुआ
लाल सलाम

हमारी भूख
हमारी प्यास
रात के जंगली अन्धेरे में
बच्चों के गले से निकल कर
हमारी आत्मा की सन्तप्त गलियों में
आवारा बनी हुई
चीख रही है
उलगुलान उलगुलान

हमारे बाहों की मछलियों के गलफड़ो में
चमकती हुई हमारी लाल होती आँखें
महुए की तीखी गंध से सराबोर
उन्मत्त हवाओं की ताल पर
मादल की थिक-थिक-धा-धा......
धा-धा...धिक-धिक...धा के साथ
रेत-बजरी के विशाल सीने पर
कोयले की कालिख में पुती
चीखती हैं
आओ हमारे सीनो और बहन-बेटियों को रौंदने वालों
जंगल पहाड़ नदी के आँगन से
हमारे छप्परों का निशान मिटाने वालों
तुम्हारे दैत्याकार बुल्डोजरों मशीनों की विशालता
हमारे बच्चों की अन्तहीन चीखों से बड़ी नहीं

नहीं है तुम्हारे जेबों के कोटरों के बीच
हमारे छोटे सपनों का भरपूर नीला आसमान
और ना ही तुम्हारी आँखों में अपनेपन का कोई अंखुआ
पूर्वजों के हथेलियों से गढे
हमारे तपे हुए सीने की कथा
तुम्हारे विकास की गाथाओं से परे
रची गयी है
धरती के धूसर और पथरीली ज़मीन पर
जंगलो के हरे केसरिया रंगों से
जिनमें हमारे शरीर का नमक चमकता हुआ
तुम्हारे सूरज को मात देता है

सुनो सुनो सुनो
जंगलवासियों सुनो
खत्म हो रहा है
हमारे सोने का समय 
आ रही है पूरब से
जंगल के जले हुए सीने की चीख
आ रही है चिड़ियों के जले हुए शरीर से
मानुख की गंध
हो रहा है खत्म 
मदमस्त करने वाली थापों पर नाचने का समय

आ रहा है धुएं के बादलों के पीछे से
हमारे वक्त का अधूरा सूरज
जिसकी अधूरी रोशनी में
हमारा गुमेठा हुआ भविष्य
हुंकारता है
बढ़ो बढ़ो आगे बढ़ो
और कहो कि समय का पहाड़
हमारे बुलन्द हौंसलों से ज्यादा ऊंचा नहीं
ना ही हमारे निगाहों के ताब से ऊंचा है तुम्हारा कद

खत्म हो रही है पृथ्वी
खत्म हो रहे हैं बाघ
साहस खत्म हो रहा है
गौरैया खत्म हो रही है
खत्म हो रहा है
बच्चों का फुदकना
फूल खत्म हो रहे हैं
खत्म हो रही है रंगों की भाषा
नदी खत्म हो रही है
खत्म हो रहा है धमनियों में लहू
जंगल खत्म हो रहा है
खत्म हो रही हैं सांसें
इस तरह
हमारी नींद के अन्धेरे में
खत्म हो रही है पृथ्वी


परिचय
 जन्म 18 जुलाई 1981, चेरूइयाँ, जिला-बलिया, (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा  एम. ए. (हिन्दी साहित्य), बी. एड. (विशिष्ट शिक्षा), पीएच.       डी. (हिन्दी साहित्य)
प्रकाशन -प्रेम को बचाते हुए’ (कविता संग्रह), नाटककार भिखारी ठाकुर की सामाजिक दृष्टि (आलोचना)।
संपादन शोध पत्रिका संभाष्यका चार वर्षों तक संपादन।
सम्मान- वागार्थ, कादम्बिनी, कल के लिए, प्रगतिशील आकल्प आदि पत्रिकाओं द्वारा कविताएं सम्मानित।
संप्रति-स्वतंत्र लेखन एवं कर्मश्रीमासिक पत्रिका का संपादन
संपर्क-देवीपाटन, पोस्ट तुलसीपुर, जिला बलरामपुर.(उ0 प्र0)
            दूरभाषः 08303022033
    










गुरुवार, 12 मार्च 2015

समीक्षा : हिमतरू का यह अंक अपनी विशिष्टताओं के लिए जाना जाएगा





आरसी चौहान 

      आज हिन्दी साहित्य उस चौराहे पर खड़ा है जहां से सड़कें चकाचौंध कर देने वाली बहुराष्टीªय कम्पनियों  ,  सिनेमा ,  बाजार और सच्चे-झूठे दावा करने वाले विज्ञापनों की ओर जाता है और इन सड़कों पर आम आदमी आतंकवाद  , उग्रवाद  , भ्रष्टाचार और बलात्कार जैसे घिनौने पहियों के निचे कुचला जाता है। ऐसे में दूर-दराज क्षेत्रों में रचनारत रचनाकारों की आवाज की अवहेलना बहुत दिनों तक नहीं की जा सकती। इनकी आवाज को सार्थक दिशा देने के लिए राष्टीªय स्तर की तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने एक बड़ा मंच प्रदान किया है।

      वागर्थ ,  नया ज्ञानोदय ,  हंस  , कथादेश ,  युद्धरत आम आदमी  , समसामयिक सृजन  , परिकथा ,  युवा संवाद  , संवदिया ,  कृतिओर  , जनपथ और इसी कड़ी को एक कदम आगे बढा़ते हुए अंतर्राष्टीªय हिन्दी साहित्त्य विशेषांक  ’’ प्रकाशित करने वाली हिमालयी पत्रिका -हिमतरू का जुलाई-2014 अंक शीतल पवन के झोंके की तरह आया है। यह शोधार्थियों के लिए महत्वपूर्ण दस्तावेज तो है ही  , खासकर दूर-दराज क्षेत्रों में रचनारत युवा रचनाकारों को चिह्नित कर उन्हें उत्प्रेरित करने का एक महायज्ञ भी है। जिसकी खुशबू और आंच देर-सबेर हिन्दी साहित्य के गलियारों में बड़े धमक के साथ सुंघी व महसूस की जाएगी। ऐसा मुझे विश्वास  है।

        हिमतरू का यह अंक अपनी विशिष्टताओं के लिए जाना जाएगा । कुल्लू जैसी विषम परिस्थियां  , जहां का धरातल करैले की तरह उबड़-खाबड़ तो है ही अगर कुछ रचनाओं के स्वाद में कड़वापन लगे तो मुंह बिचकाने की जरूरत नहीं है। हिमतरू के इस अंतर्राष्टीªय हिन्दी साहित्य विशेषांक ’’ में  देश-विदेश के लगभग अड़सठ रचनाकारों की उनकी विभिन्न रचनाओं को प्रकाशित किया है। किशन श्रीमान के सम्पादन में निकलने वाली पत्रिका के इस अंक का अतिथि सम्पादन युवा कवि गणेश गनी ने किया है। इस अंक में रचनाकारों की वरिष्ठता क्रम को ध्यान में न रखकर उनकी रचनाओं को किसी भी पेज में स्थान दिया गया है।

        इस समीक्ष्य लेख को लिखते हुए मैंने भी किसी क्रम को प्राथमिकता नहीं दी है। मैं और मेरा गांव संस्मरण में हरिपाल त्यागी ने जिस सुल्ताना डाकू को आत्मियता से याद किया है  , उसका केवल किस्से-कहानियां ही सुना था । बिजनौर से गुजरती हुई टेªन की भागमदौड़ में सुने गये किस्सों को यहां साक्षात देखने जैसा अनुभव हो रहा है। विजय गौड़ की कहानी एंटिला धड़कनों को स्थिर कर पूरे वातावरण को सजीव कर देती है और पाठक कहानी की वेगवती धारा में बहने से अपने आप को रोक नहीं पाता है। विजय जी ने अनेक को अनेकों लिखकर भ्रमित कर दिया है। जबकि जितेन्द्र भारती की कहानी एंटिला  ठीक से खुल नहीं पाई है।सैनी अशेष और तथा कथित स्नोवा बार्नो की कहानियों में पहाड़ी नदियों की तरह हरहराती हुई रवानी है जिसमें डूबकी लगाए बिना इस अंक का साहित्यिक स्नान पूर्ण नहीं होता।

        इन्दू पटियाल का आलेख ऋषि श्रृग: लोक मान्यताएं रोचक शैली में मनभावन लगा लेकिन यह आलेख वैज्ञानिक तरीके से विवेचन करने की गहरी जांच पड़ताल की मांग करता है। जयश्री राय की कहानी औरत जो नदी है  में कहीं- कहीं शब्दों की दुरूहता कहानी प्रवाह में खलल डालते हैं। भीतर तक झकझोर तक रख देने वाली कहानी पत्थरों में आग  मुरारी शर्मा ने बहुत ही सधे हुए लहजे में चिंगारी को हवा दी है। जो कभी न कभी तो भ्रष्टाचार को जलाएगी ही। अगर लोकधर्मिता की बात हो तो महेश चन्द्र पुनेठा का आलेख सीमित जीवनानुभव के कवि आलोचकों द्वारा फैलाया गया भ्रम पठनीय ही नहीं अपितु विचारणीय भी है। यहां लोक की अवधारणा को बहुत ही सलिके से प्रस्तुत किया है। हो हल्ला करने वाले तो हल्ला करते ही रहेंगे। आप ऐसे ही पहाड़ से अलख जगाते रहिए।

       अग्नीशेखर की छोटी किन्तु गम्भीर कविताएं हैं वहीं शिरीष कुमार मौर्य की स्थाई होती है नदियों की याददास्त सजीवता का अच्छा बिम्ब रचती हैं।दूसरों पर दोषारोपड़ करने की मानवीय प्रवृति को बखूबी उजागर करती है यह कविता। स्वपनील श्रीवास्तव का संस्मरण पुरू की बगिया  और विस्तार की मांग करता है। बहुत कम में समेटना काफी खटकता है। आग्नेय की प्रायश्चित कविता में कवि की बेचैनी और उद्विग्नता को स्पष्ट महसूसा जा सकता है। यहां कवि यादों के पीछे अवसाद सी स्थिति में चला जाता है और उसे बर्रों के छत्ते का ध्यान ही नहीं रहता। विदग्ध कर देने वाली कविता। जितेन्द्र श्रीवास्तव  की कविताएं भूत को वर्तमान के पुल द्वारा भविष्य से जोड़ कर हिन्दी कविता का नया वितान तो रचती ही हैं वर्तमान व्यवस्था पर करारा तंज भी कसती हैं। इनकी कविता साहब लोग रेनकोट ढ़ूढ़ रहे हैं में बखूबी देखा जा सकता है।
       लोक की कविता रचने वाले केशव तिवारी की मेरी बुंदेली जन ,  खड़ा हूं निधाह  और शिवकली के लिए जैसी कविताओं की आग मई-जून की तपती दोपहरी में पठार पर बवंडर की तरह चिलचिलाते गर्म भभूका की तरह है जिसकी आंच से बचना नामुमकीन नहीं तो मुश्किल जरूर है। रोहित जी रूसिया की धरोहर  कविता अपनी जड़ से कट रहे लोगों के लिए एक सीख भी है और चेतावनी भी। प्रेम पगी कविताएं भी खुबसूरत हैं। युवा रचनाकार शिवेन्द्र की कहानी और डायरी अंश की सोंधी महक बहुत देर तक जेहन में बनी रहती है। स्थानीय बोली-भाषा के शब्दों का बड़ा वितान रचा है जो इनकी डायरी और कहानी को जीवंतता प्रदान करती है।

       वर्तमान समय में मानवता की हत्या  ,  पैसे की भूख ,  हृदयहिनता जैसी विकृतियां तेजी से पनप रही हैं। कुलराजीव पंत की लघु कथा जुगाड़  में बखूबी देखा जा सकता है।अतुल पोखरेल ने पहुंच  लघुकथा में अपने हूनर को न पहचानने वालों पर अच्छा तंज कसा है साहित्य का चरवाहा बनकर। संतोष कुमार चतुर्वेदी की कविता चिकनाई हमारे शरीर ही नहीं हमारे समाज में भी मुखौटा लगाकर जाल फरेबी लोगों के रूप में चहल कदमी कर रही है।सावधानी हटी , दुर्घटना घटी  , वाली बात है भई। युवा कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की कविता जीवन की आपाधापी में अपना रास्ता भटक-सी गयी है। हूकम ठाकुर की कविताओं में जंगल-पहाड़ में संघर्षरत जीवन में भी आशा की नई किरणें अंगड़ाई ले रही हैं। फिर भी पहाड़ एवं पहाड़ी जीवन के दुख-दर्द को विस्मृत नहीं किया जा सकता । अविनाश मिश्र ने अपने लेख में भोजपुरी में आई नग्नता  , अभद्रता एवं फूहड़ता को बेबाक तरीके से उजागर किया है।

        आज भागमदौड़ की जिंदगी में खासकर आधी आबादी उस भीड़ में कुचल जाती है जो सुबह से शाम तक कामों का रेला जो उनके ऊपर से गुजरता रहता है । जब तक वो उठती हैं सम्हलती हैं उनके जीवन का बसंत जा चुका होता है। हृदय को गहरे तक वेध देने वाली पीड़ा के तीर मन को आहत कर दिये।  स्त्रियों का बसंत मिनाक्षी जिजीविषा की कविता पढ़ने लायक है। भरत प्रसाद की बिल्कुल सधी हुई कविता मैं कृतज्ञ हूं जिसकी भाषा सुगठित  ,  शिल्प गठा हुआ और धारा प्रवाह शब्दों की लहरें कविता का नया वितान रचती हैं । संजु पाल की कविता पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे किसी अवसाद की स्थिति में लिखी गई होगी यह कविता। निराशा के भाव इतने गहरे हैं कि कविता के कपाट ठीक से खुल नहीं पाये हैं। वहीं शाहनाज इमरानी की कविताएं एक दिन और सड़क पर रोटी पकाती औरत मानवता की कलई खोलने में कोई कोताही नहीं बरतती हैं। पहाड़ पर लिखी कई रचनाकारों की कविताएं पढ़ने को मिली लेकिन मैं पहाड़ों में रहता हूं अंतर्मन को छू लेने वाली कविता है। यहॉं चकाचौंध रोशनी में विकास के नाम पर केवल विनाश ही हो रहा है । हमारी फितरत बन चुकी है तत्काल लाभ की  ,  जबकि दीर्घ कालिक दुष्परिणामों से बेखबर प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट करने पर तूले हुए हैं हम। जब कोई कहता है पहाड़ी होते हैं भोले- भाले  ,  कवि दीनू कश्यप की नाराजगी नाजायद नहीं मानी जा सकती। युवा कवि विक्रम नेगी की कविता उदास है कमला में शराब की वजह से बरबाद होते परिवारों की मार्मिक वेदना को  अपनी भाषा , नये शिल्प  व बिंब-प्रतीकों के माध्यम से कई परतों को खोलने का प्रयास किया है । जंग छिड़ी हुई थी में कवि ने कई नये प्रयोग किए हैं लेकिन नास्टेल्जिया से बचने की जरूरत है।

       आरसी चौहान की कविता जूता  पैरों तले दबे होने के बावजूद भी समय आने पर सच्चाई के साथ खड़े होकर तानाशाहों के थोबड़ों पर प्रहार करने से चूकता नहीं। शामिल नहीं एक भी शहीद और बकरा जैसी कविताओं में नित्यानन्द गायेन ने समाज के दबे-कूचले लोगों की पीड़ा को अभिव्यक्ति दी है। सुशान्त सुप्रिय भी मानवीय क्षरण और आम जन की पीड़ा को अपनी कविताओं में उद्घाटित किया है। हंसराज भारती का चुप का साथ एवं बुद्धिलाल पाल की कविता हंसी  रेखांकन योग्य है जिसमें गहरे अर्थ देने की अद्भूत क्षमता छिपी है।

        मेरे प्रिय कवियों में से एक अनवर सुहैल की कविता अल्पसंख्यक या स्त्री कैसी माफी   या कैसे छुपाऊं अपना वजूद   भावनाओं में बहकर लिखी गई कविताएं हैं।इन्हें और कसने की जरूरत थी। अहिन्दी भाषी कवि संतोष अलेक्स की कविताएं भी वर्णनात्मक ज्यादा हो गई हैं। अरूण शीतांश की पेड़ और लड़की अंतर्मन को छू लेने वाली कविता है जिसमें गवाह के रूप में पेड़ मौन खड़ा है और बेटियां गायब हो रही हैं। कितनी बड़ी त्रासदी है हमारे समाज की। जिन्दगी की दिशा राजीव कुमार त्रिगर्ती की छोटी किन्तु उम्मीद जगाती कविता है। कविता विकास की याद आते हैं प्रतिभा गोटीवाले की प्रवासी पक्षी  में स्त्रियों के प्रति चिंता वाजीब है।

       आलोचना व समीक्षा के क्षेत्र में तेजी से अपनी पहचान बना रहे युवा लेखक  उमाशंकर सिंह परमार की एडवांस स्टडी-नव उदारवाद-प्रतिरोध और प्रयोग   पढ़ने के बाद राजकुमार राकेश की पुस्तक को पढ़ने की जिज्ञासा बलवती हो गई है। और अंत में जिन रचनाकारों की रचनाओं ने प्रभावित किया उनमें एस. आर. हरनोट  , कुंअर रवीन्द्र  , शम्भू यादव  , अरूण कुमार शर्मा ,  विक्रम मुसाफिर  , कृश्ण चन्द्र महादेविया ,  हनुमंत किशोर के अलावा सतीश  रत्न ,  नवनीत शर्मा  , मुसव्विर फिरोजपुरी ,  सुरेन्द्र कुमार  , प्रखर मालवीय  , नवीन नीर ,  शेर सिंह की गज़लें तथा डा0 ओम कुमार शर्मा की लोकधर्मिता की परतें  , डा0 उरसेम लता का यात्रा वृतांत , कविता गुप्ता की डायरी  , दीप्ति कुशवाह  , मंजुषा पांडे , अंकित बेरी ,  केशब भट्टराई  , सरोज परमार की कविताएं भी अलग-अलग भाव-भूमियों में रची आशा की नई किरणें दिखाती हैं। ऐसे विलक्षण अंक के अतिथि सम्पादक-गनेश ग़नी और इस अंक में सम्मलित समस्त रचनाकारों को कोटिश बधाई और शुभकामनाएं।

हिमतरू (मासिक) जुलाई-2014 ,  अंतर्राष्टीªय हिन्दी साहित्य विशेषांक
अतिथि सम्पादक-गनेश ग़नी
प्रधान सम्पादक-इन्दू पटियाल
इस अकं का मूल्य-101 रूपये
संपर्क सूत्र- 201 ,  कचोट भवन , नजदीक मुख्यडाक घर , ढालपुर , कुल्लू हि0प्र0
मोबा0-09736500069 ,  09418063231

लेखक संपर्क - आरसी चौहान (प्रवक्ता-भूगोल)
राजकीय इण्टर कालेज गौमुख, टिहरी गढ़वाल उत्तराखण्ड 249121
मोबा0-08858229760 ईमेल- chauhanarsi123@gmail.com

                                      जनवरी 2015 अंक हिमतरू से साभार


शुक्रवार, 6 मार्च 2015

जयकृष्ण राय तुषार की कविताएं






होली की हार्दिक शुभ कामनाओं के साथ प्रस्तुत है कवि मित्र जयकृष्ण राय तुषार की कविताएं-

आम  कुतरते हुए सुए से 


आम कुतरते हुए सुए से 
मैना कहे मुंडेर की |
अबकी होली में ले आना 
भुजिया बीकानेर की |

गोकुल ,वृन्दावन की हो 
या होली हो बरसाने की ,
परदेशी की वही पुरानी 
आदत है तरसाने की ,
उसकी आंखों को भाती है 
कठपुतली आमेर की |

इस होली में हरे पेड़ की 
शाख न कोई टूटे ,
मिलें गले से गले ,पकड़कर 
हाथ न कोई छूटे ,
हर घर -आंगन महके खुशबू 
गुड़हल और कनेर की |

चौपालों पर ढोल मजीरे 
सुर गूंजे करताल के ,
रूमालों से छूट न पायें 
रंग गुलाबी गाल के ,
फगुआ गाएं या फिर बांचेंगे 
कविता शमशेर की |

फूलों में रंग रहेंगे ....
जब तक
 तुम साथ रहोगी
फूलों में रंग रहेंगे ,
 जीवन का
 गीत लिए हम
 हर मौसम संग रहेंगे |

 जब तक
 तुम साथ रहोगी
मन्दिर में दीप जलेंगे ,
उड़ने को
नीलगगन में
सपनों को पंख मिलेंगे ,
 तू नदिया
हम मांझी नाव के
 धारा के संग बहेंगे |

 जब तक
तुम साथ रहोगी
एक हंसी साथ रहेगी ,
 मुश्किल
यात्राओं में भी
खुशबू ले हवा बहेगी ,
 जब तक
यह मौन रहेगा
अनकहे प्रसंग रहेंगे |

 तुमसे ही
शब्द चुराकर
लिखते हैं प्रेमगीत हम ,
 भावों में
डूब गया मन
उपमाएं हैं कितनी कम ,
 तोड़ेंगे वक्त की कसम
तुमसे कुछ आज कहेंगे |




 साभार-छान्दसिक अनुगायन

बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

डॉ उमेश चमोला की कविताएं-





       उत्तराखण्ड के रुद्रप्रयाग में 14 जून 1973 को कौशलपुर, बसुकेदार, में जन्में डॉ उमेश चमोला ने सामाजिक एवं साहित्यिक क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण कार्य किये हैं । इनके कार्यों को देखते हुए उत्तराखण्ड , उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, दिल्ली,पंजाब एवं छत्तीसगढ़ की कई साहित्यिक संस्थाओं ने सम्मानित भी किया है। अब तक इनकी लोकसाहित्य,पर्यावरण एवं बालसाहित्य पर आधारित दर्जनों पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।पन्द्रह से अधिक राष्ट्रीय संकलनो में रचनाओं के प्रकाशन के साथ देश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
सम्प्रति - राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद्
      उत्तराखण्ड देहरादून में शिक्षक-प्रशिक्षक के रूप में कार्यरत।

     वर्तमान में अराजकता, हैवानियत, कुटिलता ईर्ष्या-द्वेष और भ्रष्टाचार जैसी बुराईयां जिस तरह चरम पर पहुंच गयी हैं और मानवता चित्कार रही है ,डॉ उमेश चमोला ने बड़े सिद्दत से उजागर किया है अपनी कविताओं में। प्रस्तुत है डॉ उमेश चमोला की कविताएं-
      
लाल मेरा खो गया है

दिल में उसके मैं बसी थी,
होंठ पर मेरे हंसी थी,
अब न जाने किस निशा में,
खो गया है?
लाल मेरा खो गया है।

था अहिंसा का पुजारी,
शमशीर उसके हाथ में है,
अब तो दुधारी,
नफरतों के बीच अब वह,
बो गया है,

एक महकता फूल था वह,
करता नहीं कभी ,
भूल था वह,
अपनी महक वह,
आज सारी खो गया है।

जब कभी मैं रोती थी,
वह पोंछता था अश्रु मेरे,
हर घड़ी वह सामने था,
रात,सन्ध्या और सवेरे,
अब मेरा दिल खुद मुझी पर,
रो गया है।

प्रेम की वंशी बजाता था कभी वह,
नाचता था और सभी को भी,
नचाता था कभी वह,
वासना की नींद में शायद,
कहीं वह सो गया है।

शैतान ! सावधान

 इन्सानी जिस्म को पहने,
 तुम एक खतरनाक शैतान हो,
 वैसे तुम्हारी शैतानियत,
 कभी-कभी तुम्हारे इन्सानी जिस्म
 में भी झलकने लगती है।
 तुमने मुझे बेरहमी से मारा,पीटा,घसीटा,
 लाठियों के निर्मम प्रहार से,
 गोलियों की बौछार से
 मुझे छलनी करना चाहा,
 तुमने सोचा तुम्हारे ऐसा करने से
 मैं मर जाऊँगा,
 हकीकत यह है कि मैं जिन्दा हूं,
 मैं कभी नहीं मरता,
 हर युग में तुमने मुझे मारना चाहा,
 हर बार तुम मुझे मार न सके,
 मैं घायल तो हूं
 पर मेरा दिल अभी भी धड़कता है,
 मेरी आंखों में नवजीवन का सपना
 पल रहा है।
 इन्सानियत का लबादा ओढ़े शैतान,
 सावधान,
 जिन्दा हूं मैं इन्सान।
         
सम्पर्क - डॉ उमेश चमोला
एस0सी00आर0टी देहरादून उत्तराखण्ड 
मोबाइल-7895316807
ई मेल-u.chamola23@gmail.com



शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

नित्यानंद गायेन की कविताएं



                                                       नित्यानंद गायेन


          20 जनवरी 1981 को शिखरबाली, 0 बंगाल में जन्में नित्यानंद गायेन की कवितायें और लेख सर्वनाम, अक्षरपर्वकृति ओर, समयांतर, समकालीन तीसरी दुनिया, जनसत्ता, हिंदी मिलाप  आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन का शतक।

अपने हिस्से का प्रेम नाम से एक कविता संग्रह प्रकाशित  अनवर सुहैल के संपादन में संकेत द्वारा कविता केंद्रित अंक।

नित्यानंद गायेन की कविताएं 

शर्मिंदा नहीं होता सपने में प्रेम करते हुए 
 
मैं अक्सर खो जाता हूँ सपनों में
और कमाल यह होता है कि ये सपने मेरे नहीं होते
दरअसल सपनों में खो जाना कोई कला नहीं
न ही है कोई साज़िस
ये अवचेतन क्रिया है एक

मेरे सपनों में अचानक
उनका आगमन  बहुत सुखद है
मैं बहुत खुश होता हूँ उन्हें पाकर
सपनों में,
रेत पर खेलते उस बच्चे की तरह मैं भूल जाता हूँ
हक़ीकत को
और गढ़ता हूँ  प्रेम की हवाई दुनियां
एकदम फ़िल्मी

अभी यह सर्द मौसम है
रजाई की गर्मी में सपने भी हो जाते हैं गर्म और मखमल

 सपने में अचानक लगती है मुझे  प्यास
और फिर बोतल मुंह से लगाकर पीते हुए पानी
गिरता है सीने पर
टूट जाती है नींद

मैं हँसता हूँ खुद पर
पर शर्मिंदा नहीं होता
सपने में प्रेम करते हुए .


हंसाने वाले अब मुझे सताने लगे हैं 

 
मैंने गुनाह किया
जो अपना दर्द तुमसे साझा किया

अब शर्मिंदा हूँ इस कदर
कोई दवा नहीं

मुझ पर इतराने वाले अब कतराने लगे हैं
हंसाने वाले अब मुझे सताने लगे हैं

बातें अंदर की थीं
अब बाहर आने लगी हैं 


हमें भ्रम है कि हम जिंदा हैं आज भी 

 
आकाश पर काले बादलों का एक झुंड है
बिजली कड़क रही है
धरती पर आग बरसेगी
इस बात अनजान हम सब
डूबे हुये हैं घमंड के उन्माद में
हम अपना -अपना पताका उठाये
चल पड़े हैं
विजय किले की ओर

वहीँ ठीक उस किले के बाहर
बच्चों का एक झुंड
हाथ फैलाये खड़ा है
हमने उन्हें देखा बारी -बारी
और दूरी बना रखी
कि उनके मैले हाथों के स्पर्श से
गन्दे न हों हमारे वस्त्र
उनके दुःख की लकीर कहीं छू न लें
हमारे माथे की किसी लकीर को
हमने अपने -अपने संगठन के बारे में सोचा
सोचा उसके नाम और उद्देश्य के बारे में
हमें कोई शर्म नहीं आयीं

हमने झांक कर भी नहीं देखा अपने भीतर
हमारा  ज़मीर मर चुका  है
और हमें भ्रम हैं कि
हम जिंदा हैं आज भी ..??


उन्होंने मुझे बेवफ़ा करार दिया 

 
पिछले दिनों बहुत सोचा
कि कभी नहीं करूँगा खुलासा
उन अपनों के बारे में
जिन्हें मैंने अपना मान लिया था
बीतते वक्त के साथ हटता रहा धुंध
और साफ़ होता गया आइना
मैंने देखा अपना चेहरा
कई रात सोया नहीं मैं
और उन्हें लगा मैं अब तक नशें में हूँ
मैंने ग़ालिब को याद किया
खुद पर गर्व किया
और सोचता रहा जो होने वाला था
आज वही हुआ
उन्होंने मुझे बेवफ़ा करार दिया
और पुलिस ने दर्ज किया केस मेरे खिलाफ़
रिपोर्ट में मुझे देशद्रोही लिखा गया .


भाई मेरे कपड़े नहीं, मेरा चेहरा देखो

 
उसके ठेले पर हर सामान है
मतलब सुई -धागा से लेकर चूड़ी , बिंदी , नेल पालिस , आलता
कपड़े धोने वाला ब्रश
और उसके ग्राहक हैं -वही लोग , जो खुश हो जाते हैं
किसी मेले की चमकती रौशनी से , लाउड स्पीकर के बजने से
ये सभी लोग जो आज भी
दिनभर की जी तोड़ मेहनत के बाद
अपने शहरी डेरे पर पका कर
खाते हैं दाल -भात और चोखा
कभी -कभी खाते हैं
माड़ -भात नून से

इनदिनों जब कभी मैं पहनता हूँ इस्त्री किया कपड़ा
शर्मा जाता हूँ उनके सामने आने से
लगता है कहीं दूर चला आया हूँ अपनी माटी से

आज मैं भी था उनके बीच बहुत दिनों बाद
ठेले वाले से कहा उन्होंने - साहेब को पहले दे दो भाई।
मेरे पैर में जूते थे , हाथ में लैपटाप का बैग
मेरे कपड़े महंगे थे ,
मुझे शर्म आई , सोचा कह दूँ - भाई मेरे कपड़े नही
मेरा चेहरा देखो।

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

विक्रम सिंह की कहानी : कीड़े

                                                विक्रम सिंह  1 जनवरी 1981

     हिन्दी साहित्य में किसी रचनाकार की रचनाओं के मूल्यांकन का मानक क्या है,यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। समय की छननी से छनने के बाद ही पता चलता है कि किसमें कितना दम है। एक ऐसा कथाकार जो अपने आसपास की सच्चाइयों को बड़े संजीदगी के साथ प्रस्तुत करता है तो ऐसा लगता है कि हमाम में सभी नंगे हैं। इस कहानीकार से भविष्य में काफी सम्भावनाएं हैं। मैं बात कर रहा हूं झारखण्ड के जमशेदपुर में जन्में  समकालीन रचनाकारों में तेजी से अपनी पहचान बनाते जा रहे पेशे से मैकेनिक इंजीनियर  युवा लेखक विक्रम सिंह की । 

       इनकी कहानियां राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं यथा समरलोक , सम्बोधन , किस्सा , अलाव , देशबन्धु , प्रभात खबर ,जनपथ ,सर्वनाम , वर्तमान साहित्य , परिकथा , आधरशिला , साहित्य परिक्रमा , जाहन्वी , परिंदे इत्यादि पत्र-पत्रिकाओ में प्रकाशित। एक कहानी परिकथा 2015 के जनवरी नव लेखन अंक में प्रकाशित तथा एक-एक कहानी कथाबिंब व  माटी पत्रिका में स्वीकृत । अब विभिन्न ब्लागों में आवाजाही ।
पुस्तक - वारिस ;कहानी संग्रह-2013
सम्प्रति- मुंजाल शोवा लि.कम्पनी में सहायक अभियंता के पद पर कार्यरत 

प्रस्तुत है विक्रम सिंह की कहानी : कीड़े
                     
      मैं जिस घर की चर्चा करने जा रहा हूं उस घर को यहॉँ सब व्हाईट हाउस के नाम से पुकारते हैं ठहरिये ,यहाँ व्हाईट हाउस से मतलब यह मत निकाल लीजियेगा कि इसकी तुलना अमेरिका के व्हाईट हाउस से की जाती है। बात बस इतनी सी है कि घर बनाने के बाद दिवालो को अंदर से लेकर बाहर तक चूने से सफेदी फेर दी गई थी। दूर से ही बिना चश्मे के घर दिखाई  देता था। सो गॉँव के कुछ पढ़े लिखे लड़के इसे व्हाईट हाउस के नाम से पुकारने लगे। गॉव के अनपढ़ और बुजूर्ग लोग इसे हवेली के नाम से भी पुकारते हैं। दरअसल तलहट गॉव के मजबी ; दलीत टोले में इतना बड़ा घर और कोई नहीं है। बड़ा होने की वजह से गॉँव के लोग इसे हवेली कहने लगे। अक्सर इस घर से गुजरते समय लोग ठहर जाते हैं आस पास के लोगों से यह पूछते हैं ‘‘ आ लखे दी हवेली आ।’’;यह लख्खे की हवेली है 

‘‘ हानजी’’;हॉ जी
‘‘किदो आड़ा वा उने।’’;कब आयेंगे वह
‘‘पता ते नहीं आ कैनदे आ रिटायर होन दे बाद आउंगा।’’;पता नहीं है, कहते हैं रिटायर होने के बाद आयेंगे ।

      इतना पूछ कर वह चले जाते हैं। दरअसल करीब दस सालों से यह घर इसी तरह बन कर पड़ा हुआ है। लख्खा की ताई  बस वह कभी कभार आकर ताला खोल घर को देख जाती है। करीब पन्द्रह साल पहले यह घर बनना शुरू हुआ था। उस समय ताई और उसके लड़के घर के सारे काम देखते थे क्योंकि लख्खा सिंह ने उन्हे यह जिम्मेवारी सोप रखी थी। क्योंकि लख्खा सिंह अपने गॉव से करीब पन्द्रह सौ किलोमीटर दूर पश्चिम बंगाल में कोयला खदान में नौकरी कर रहा था। वह छुट्टी लेकर आता नहीं था। ऐसा नहीं था कि उसे छुट्टी नहीं मिल रही थी। ऐसा करने पर उसे बहुत नुकसान होता क्योंकि उसे प्रतिदिन तीन घंटे का ओवर टाईम और संडे अलग से मिलता था। संडे की डयूटी करने से तीन हाजरी के बराबर के पैसे मिलते थे। लख्खा सिंह मैकेनिकल फिटर के पद पर तैनात था। उसे मैकेनिकल काम का खूब तर्जुबा था। किसी भी तरह का प्रोब्लम हो वह हल कर देता था। सबसे बड़ी बात वह अपने काम में खूब ईमानदार था। जिस बै्रकडाउन में लगता था उसे सॉल्व कर के ही छोड़ता था। इस वजह से उसके डिपार्टमेन्ट के इंजीनियर उसे बेहद पसंद करते थे। इस वजह से उसे ओवर टाईम में रोकते थे। उसके साथी उसे गुरू कह कर पुकारते थे। कुछ साथी उसे लम्बो कह कर पुकारते थे। क्योंकि लख्खा सिंह की छह फुट दो इंच की लम्बाई थी। उसके उपर सर पर बड़ी सी पग ;पगड़ी बाद लेता था। जिससे एक आद इंच और लम्बा दिखता था। घर की मुर्गी दाल बराबर लख्खा सिंह की पत्नी जशवंत कौर एक पैसे पसन्द नहीं करती थी अर्थात उसकी अपने घर में कोई इज्जत नहीं थी। क्योंकि लख्खा सिंह की पत्नी जशवंत कौर का कहना था,‘‘लख्खा पेंडो बंदा है।’; लख्खा गॉँव का आदमी है डयूटी से आने पर लख्खा के कपड़े पूरी तरह ग्रीस और मोबिल से काले ओर चिपचिपे रहते थे। उसकी दाढ़ी भी बिखर कर बेतरतीब हो जाती थी। पग ;पगड़ी भी बिखरी रहती थी। बाकी कालोनी में उसी के डिपार्टमेन्ट के लोगों के कपड़े ठीक रहते थे। उसके कपड़े देख कर जशवन्त कौर खीज कर कहती,‘‘आप के ही कपड़े इतने गंदे क्यों रहते हैं? बाकी लोगों  के कपड़े साफ सुथरे रहते हैं।’’

    लख्खा सिंह इस बात से खूब चिढ़ जाता और कहता,’बाकी के लोग काम चोर हैं। कुछ तो नेता गिरी करते हैं
‘‘आप क्यों नहीं करते हैं  ?’
‘‘अगर में भी सब की तरह नेता गिरी करने  लगूं तो मशीने कौन ठीक करेगा। फिर प्रोडक्शन कैसे होगा । इन लोगों के चलते ही तो आधा काम ठेकेदारो के हाथ चला गया है। लोग इस वजह से तो कहते हैं कि सरकारी लोग काम नहीं करते हैं। बेरोजगारी इसी वजह से तो बढ़ रही है।’’

    ‘‘आप ने कम्पनी का अकेले ठेका ले रखा है। अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता है।
‘‘अपना काम ईमानदारी से कर लूं यही मेरेजीवन के लिए बहुत बड़ी बात होगी। बाकी सभी क्या करते हैं मैंने उसका ठेका नहीं ले रखा है’’

  गुस्सा तो जशवंत को इस बात पर भी आता था। जब वह कालोनी की औरतो को स्कूटर पर जाते हुए देखती थी। लख्खा सिंह उसे बाजार हमेशा पैदल ही लेकर जाता था। ज्यादा से ज्यादा हुआ तो वह रिक्सा कर लेता। वह बाजार जाते वक्त कई बार लखा को स्कूटर लेने को कहती थी। मगर लख्खा इसे पैट्रोल का खर्चा और बढ़ जाएगा यह सोच नहीं लेता था। उसे यह कह टाल देता था मुझे स्कूटर चलाना नहीं आता है। इस पर जशवंत कौर खीज कर कहती,‘‘कैसे मैकेनिक हैं आप जिसे स्कूटर चलाना नहीं आता है।’’
‘‘स्कूटर सीख भी लूं तो क्या फायदा है।हमारी फैमली भी बड़ी है।स्कूटर में होगा भी नहीं।’’

   ‘‘यह भी आप की ही गलती की वजह से हुआ है। कितना अच्छा था एक लड़की और एक लड़का । उस के बाद भी दो लड़के आप की गलती की वजह से हो गये।’’दरअसल दो बच्चे होने के बाद जशवंत ने लख्खा को नसबन्दी कराने के लिए कहा था। मगर लख्खा ने यह कह टाल दिया था। नसबन्दी कराने से मेरा शरीर कमजोर हो जाएगा। जब तक जशवंत कौर के बच्चे बंद करने का ऑपरेशन हुआ तब तक वह चार औलाद की मॉँ बन चुकी थी। दरअसलजहॉँ लख्खा सिंह गॉँव का एक दिहाड़ी मजदूर का लड़का था वही उसकी पत्नी जशवंत शहर की सरकारी कर्मचारी की लड़की थी। उसने अपने जीवन में कभी गरीबी नहीं देखी थी। बस लख्खा की सरकररी नौकरी देखकर जशवंत के पिता ने उसकी शादी लख्खा से कर दी थी। लख्खा ना जाने क्यों हमेशा डरा डरा सा रहता था। कहीं किसी वजह से उसके पुराने दिन ना आ जाये ,यह सब सोच अपने आगे के दिनो के लिए वह ज्यादा तर पैसे बैंक में जमा करता रहता । इस वजह आये दिन किसी ना किसी बात को लेकर झगड़ते रहते थे। कहते है जब लख्खा सिंह गॉव छोड़ कर आया था। तब गॉव में उसका मात्र एक मिट्टी का छोटा सा घर था। लख्खा सिंह के पिता जटो के खेत में काम करने वाले एक मामूली से दिहाड़ी मजदूर थे। लख्खा सिंह छह भाई थे। लख्खा को छोड़ कर पॉँचो भाई दिहाड़ी करने जाते थे। लखा पॉँचो भाईयो में सबसे छोटा था। लखा जब पाँच साल का था तभी वह डंगरों ;पशुओं को चराया करता था। एक बार गलती से डंगर किसी जट के खेत में चले गये। उस वक्त लख्खा पेड़ के छाँव में आराम से सो रहा था। जब जट ने यह सब देखा तो उसकी खूब पिटाई की थी। उसी दिन लख्खा के सबसे बड़े भाई गुलजार ने कहा,‘‘बीबी लख्खा नू पढने पा दिया जाय।’’;माँ लख्खा को पढ़ने डाल दिया जाए?
लख्खा की मॉ ने कहा,‘‘जे इनो पढ़ने पा दिता ते डंगर कौन चारन जाउंगा।;जो इसको पढ़ने भेजगे तो पशु कौन चराने लेकर जाएगा।’’

‘‘क्यों चिंता कारदी आ बीबी सब हो जाउँगा।’’;क्यों चिंता करती हो मॉ सब हो जाएगा

     फिर लख्खा को स्कूल में डाल दिया गया था। सभी भाईयो में एक लख्खा ही था जिसने स्कूल का मुंह देखा था। अब लख्खा हर दिन सुबह पशुओं के लिए पट्ठे लेने जाता उसके बाद फिर स्कूल जाता था। छुट्टियों में अपने पिता के साथ वाडिया ;खेत में काम करने जाया करता था। वैसे तो घर पर सब चाहते थे कि लख्खा पढे मगर लख्खा ने नवीं कक्षा के बाद पढाई छोड़ दी। फौज में भर्ती के  लिए तैयारी करने लगा। मगर दुबला पतला शरीर होने की वजह से उसे अक्सर निकाल दिया जाता था अर्थात सीना कम होता था। लख्खा की मॉ भी उसके दुबले पतले शरीर को देख कर कहती थी,‘‘ वे लखया तू की करेगा अपनी जिंदगी विच किदा अपनी रोटी चलाएगा।’; अरे लखे तुम अपनी जिंदगी में क्या करूगे कैसे अपनी रोजी रोटी चलाओगे।कभी कभार लख्खा सिंह अपनी मॉँ कि बात याद करता मुस्कुरा देता और मन ही मन सोचता आज अगर माँ जिंदा होती तो कितना खुश होती। कहते हैं जब लख्खा आर्मी की भर्ती में प्रयास कर कर के हार गया। तो वह अपने जीजा के पास पश्चिम बंगाल मजदूरी करने आ गया। यहॉँ आकर वह एक प्राइवेट कोयला निकालने वाली कम्पनी में हैल्पर की तौर पर लग गया। लख्खा सिंह ने काम सीखने के लिए अपने उस्तादो के चड्डी बनियान तक धोता था। उस्ताद सब उसे खूब मानते थे। कहते हैं लख्खा अच्छी नौकरी पाने के लिए हर दिन गुरूद्वारे मथा टेकने जाया करता था। लख्खा की मेहनत रंग लाई। खदानो में मैकेनिकल फिटर की बहाली निकल आई। लख्खा की नौकरी हो गई।  इसे लख्खा वाहे गुरू दी मेहर मानता था। नौकरी मिलने के बाद लख्खा को तीन कमरो का सरकारी क्वार्टर भी मिल गया। नौकरी मिलने के सात साल बाद ही अपने पेंठ;गॉँव घर बनाने लगा था। दरअसल हुआ यूं कि एक दिन कालोनी में हो हल्ले की आवाज से वह बाहर निकलता है और देखता है उसका ही जोडी़दार लालचंद कष्यप जो प्रोजेक्ट में क्रेन ऑपरेटर था, करीब तीन महीने पहले ही रिटायर हुआ था तीन महीने के बाद भी उसने  क्वार्टर नहीं छोड़ा  था। इस वजह से जिसके नाम क्वार्टर हुआ था वह उसे क्वार्टर छोड़ने के लिए कह रहा था। आलॉटमेन्ट होने के बाद भी उसने पहले ही वह लालचंद को तीन महीने के लिए रहने का समय दे दिया था। दरअसल लालचंद का घर अभी बन रहा था। बनने में अभी कुछ और समय लगता इसलिए वह कुछ और समय की मौहलत मांग रहा था। बस उस दिन के दृष्य को देख कर लख्खा डर गया वह सोचने लगा। एक दिन इसी तरह में भी रिटायर हो जाउंगा, मेरे साथ भी तो ऐसा ही होगा। क्या सरकार के नियम है? जब हम सरकार की सेवा करते करते एक दिन बूढे़ हो जायेंगे, जिस वक्त हमे एक छत की ज्यादा जरूरत पड़ेगी उसी समय कहेगी जाओ भागो यहॉँ से तुम्हारा समय हो गया है। 

    जशवंत कौर घर बनने की बात से ही उससे लड़ने लगी । उसने साफ- साफ लखा से कहा,‘‘अभी बच्चे छोटे है। आगे यह कहॉँ रहेंगे। फिर लड़की की शादी जहॉँ होगी घर वहॉँ बनायेंगे।’’
‘‘देखो कल को लड़के जहॉँ भी जाऐंगे इनसे जरूर यह पूछेंगे, तुम्हारा गॉँव कहाँ है। तो कम से कम अपना गॉँव का नाम तो बता पाएंगे।’’

‘‘ जहॉँ लक्ष्मी है वही अपना गॉँव, वही अपना देश है। लोग अमेरीका इग्लैंड चले जाते हैं। फिर वहीं बस जाते हैं। दुबारा कभी लौट कर गाँव नहीं आते। उल्टा गॉँव के लोग शहर को भाग रहे हैं।’’
‘‘ उन लोगों से जाकर पूछो जो गॉँव नहीं आ पाते।’’ फिर वह लालचंद का भी उदाहरण दे देते थे।

  प्रोजेक्ट के कई जोड़ीदारो को भी पता चला कि वह अपने गॉँव में घर बना रहे हैं। वह भी लख्खा से कहते। गुरू आप पंजाब में क्यों घर बना रहे हो? इतने साल बंगाल में काम करने के बाद आपका गॉँव में मन लगेगा। बच्चे सब भी यहीं पढ़ रहे हैं। उन लोगों का भी यहीं कहीं नौकरी हो गयी तो फिर वहॉँ घर में कौन रहेगा।’’
लेकिन लख्खा वही बात कहता,’’कभी कभार बच्चे गॉँव घूमने चले जाया करेंगे। ऐसे तो वह जान ही नहीं पाऐंगे उनका गॉव कौन सा है।’’

     खैर लख्खा ने वही किया जो उसके मन ने कहा। सुनने में यह आता था शुरू शुरू में यह घर गॉँव के गंजेड़ी,जुआड़ी,प्रेमी युगल का अड्डा रहा था। तब सिर्फ घर के कमरे ही तैयार हुए थे। दिन में गॉव के गंजेड़ी जुआड़ी आकर अपना काम कर के चले जाते थे और रात में प्रेमी जोड़े अपना काम निपटा निकल जाते थे। फिर इसकी सूचना ताई ने लख्खा को फोन पर दी। जब जशवंत कौर को यह बात पता चली तो वह भी खूब चिलाने लगी लो देख लो अभी घर बना भी नहीं कि आफतें आनी शुरू हो भी गई। जा कर घर देख भी आईये। उस पर भी आप के ओवर टाईम मर जाएगा। अभी तो शुरूवात है। आगे पता नहीं और कौन कौन सी दिक्कतें आऐंगी।
लख्खा कहता,’’उए रब दा ना ले। कुछ नहीं होता, बस दरवाजा नहीं लगा है। तो घर में कोई भी घुस जाएगा। पैसे खत्म हो गये है। घर का राशन पानी बच्चो की फीस सब कुछ देखते हुए ही घर बना रहा हूं। फिर मुझे जल्दी भी क्या है। धीरे धीरे घर बना ही दिया है।’’

    लख्खा सिंह के पास उस वक्त पैसे नहीं थे। हार कर लख्खा सिंह ने अपने साथी किशन चौधरी से पैसे उधार लिये और फिर पैसे को मनीआर्डर कर दिया। यूं तो लख्खा चाहता तो पैसे उधार लेकर जल्द ही घर तैयार करा सकता था। कई बार उसके दोस्त उसे लोन लेने के लिए कहते मगर वह कभी तैयार नहीं हुआ था। लख्खा कभी किसी से पैसे उधार नहीं लेता था। लख्खा कर्ज लेने से डरता था। किशन चौधरी ने पैसे देते वक्त कहा,’’ अगर और जरूरत हो तो ले लेना।’’ मगर लख्खा ने हाथ जोड़ कर इतना कह दिया था। ’’बस आप की इतनी ही कृपा चाहिये थी।’’
लख्खा ने रिटायर होने के पहले घर तैयार कर लिया था। घर बनने कें बाद लख्खा ने चैन की सांस ली  और वह जैसे किसी डर से बहार निकल गया था। 

     कई सालों से घर बनकर इसी तरह पड़ा रहा तो ताई ने घर को बिहार से आने वाले मजदूरो को जो जटो के खेत में दिहाड़ी करते थे ,रहने को दे दिया था। लख्खा को यह बात पता चली मगर लख्खा ने कुछ नहीं कहा। ताई ने लख्खा को यह कहा,’ पुत्तर कार बन कर यू ही प्या वा अजे तेनो आन चे दस साल रेनदे आ। पिला ही किदो दा कार खली प्या वा।  कार विच बोत जालीया लग गईया सी। फैर की आ कदी कोई चोर दरवाजे, खिड़कियॉँ खोल कर ना ले जावे। कार दी बड़ी सेफटी रओगी।’;‘‘ बेटा घर बन कर यूं ही पड़ा है। अभी तुमको आने में दस साल हैं। पहले ही घर कब से खाली पड़ा है। घर में बहुत गदंगी और जालियॉ लग गई थी। फिर क्या है कोई चोर दरवाजा खिड़की खोल कर ना ले जाए। इससे घर की सेफ्टी रहेगी।’’

    लख्खा को यह सुन कर अच्छा लगा,लख्खा ने इतना कहा,’’ चंगा ही आ। लाने कार दी साफ सफाई भी रहेगी।’’; अच्छा ही है। साथ में घर की साफ सफाई भी रहेगी। लख्खा यह बात जानता था कि अब पंजाब के सभी नौजवान लड़के दुबई, अमेरिका,इग्लैंड जाने लगे हैं। सो बिहार यूपी के मजदूर पंजाब आने लगे हैं।
    मगर लख्खा ने यह बात अपनी पत्नी जशवंत को नहीं बताई। मगर बात कब तक छुपी रहती। बात किसी तरह उसके पास पहुंच गई। बात पता चलते ही उसने पूरे घर को सिर पर उठा रखा था और लख्खा को सुनाने लगी,अभी घर प्रवेश भी नहीं हुआ और लोगों ने रहना भी शुरू कर दिया है। मुम्बई से बिहारियों को बहार भगाया जा रहा है। हमारे घर में बिहारियों को घूसेड़ा जा रहा है।

   जशवंत की बात को सुन कर लख्खा कुछ सोचने लगा। उसे याद है आज भी 31 अक्टूबर 1984 का वह दिन इन्दरा गांधी को सिख बॉडी गार्ड ने मार दिया था। जगह जगह सिक्खो पर हमला शुरू हो गया था। वह सभी छोटे बच्चो के साथ अपने जोडी़दार नौशाद के घर पार्टी में गया था। नौशाद के घर करीब दस साल बाद बच्चा हुआ था। उसी की खुशी में उसने पार्टी दी थी। पार्टी में सभी मस्त थे कि तभी मंराज यादव ने लख्खा को कहा,’’लखा तुम्हारा अब यहॉँ रहना ठीक नहीं है। कई जगह सिक्खो का कत्ले आम शुरू हो चुका है। उसने हमे अपने घर पर भी नहीं जाने दिया था क्योंकि सबको पता था लखा सिंह सिक्ख कितने नम्बर क्वाटर में रहता है। मंराज के घर में सप्ताह भर रहा था। करीब सप्ताह भर लख्खा डयूटी नहीं गया था। आखिर मंराज भी तो सिवान बिहार का रहने वाला था। यह सब सोच उसने अपनी पत्नी से कहा,’’चिल्लाओ मत याद करो 1984 वाली बात जब एक बिहारी के घर सप्ताह भर रही थी। तब क्यों नहीं कहा था कि मैं एक बिहारी के घर नहीं रहना चाहती हूं। आज जो हम जिन्दा है। तो एक बिहारी की दी हुई जिंदगी है। जशवंत खामोश हो गई। ‘‘  नहीं मैं तो इस लिए कह रही थी कि घर खराब हो जाएगा।’’

  ‘‘ कोई नहीं बस पाँच साल ही तो नौकरी रह गई है। हम सब के जाने के पहले ही सभी निकल जाऐंगे तुम चिंता मत करो। घर को कुछ नहीं होगा। उल्टा घर की साफ सफाई रहेगी। अब नौकरी ही कितनी रह गई है पॉँच साल ही तो बचे हैं। इतने साल कैसे बीत गये पता ही नहीं चला तो और पाँच साल बीतने में कितना समय लगेगा ’’

   देखते देखते पॉँच साल कब बीत गये।लख्खा और जशवंत को पता ही नहीं चला। लख्खा के तीनों बेटे तीनो तीन दिशा में चले गये थे। एक को बंगाल में  स्टेट बैंक मे नौकरी मिल गई थी। दूसरा ऑटोमोबाईल कम्पनी में मैकेनिकल इंजीनियर के पद पर तैनात हो गया था। उसे भी अपने पापा की तरह मैकेनिकल काम का खूब नॉलेज था। तीसरे ने बी फार्मा कर एम.आर की नौकरी पकड़ ली थी। बेटी का व्याह अपने ही प्रोजेक्ट में काम करने वाले लड़के से कर दी थी। कहते है कालोनी में लख्खा की खूब इज्जत थी। सभी लख्खा के लड़को की तारीफ करते थकते नहीं थे। यो तो रिटायर होने के बाद कई प्राईवेट कम्पनी लख्खा को अच्छी तनख्वाह पर नौकरी पर लेने को तैयार थी। जशवंत ने भी उन्हे नौकरी करने को ही कहा ताकि इससे उनका शरीर भी तंदुरूस्त रहेगा। मगर लख्खा को अपने गॉँव में बनाये घर की बहुत फिक्र थी। सो रिटायर होनें के बाद ट्रक में अपना सम्मान लोड कर पंजाब चले आये थे। शुर-शुरू में लख्खा को अपने ताई के यहॉँ ठहरना पड़ा क्योंकि अभी लख्खा के घर में बिजली नहीं लगी थी। इसके बिना घर पर कैसे रहते।

   ताई ने लाईन मैन से बात करने के बाद लख्खा से कहा, ‘‘ लाईनमैन को चार हजार रूपये दे दो जी। रसीद सोलह सौ दी कटोगी। बाकी जेई साहब नू बाद विच कुछ देना पउँगा। फिर ताडा काम सेती हो जाउँगाा।’’;लाईन मैन को चार हजार रूपये दे दीजिये सौलह सौ की रसीद कटेगी। बाकी जेई साहब को बाद में कुछ देना पडे़गा। फिर आप का काम जल्छी हो जाएगा।’’
लख्खा ने कहा,’’इतने पैसे क्यों देने पड़ेंगे।
‘‘ देखो जी सराकारी काम बिना पैसो के नहीं होता है।’’

   उस समय लख्खा टीवी में देख रहा था दिल्ली में अन्ना हजारे लोकपाल बिल के लिए अनसन पर बैठे है। कई बड़े-बड़े दिग्गज उनके साथ बैठे हुए है। लाखो की तादाद में लोगों की भीड़ लगी हुई है। लखा ने टीवी को बंद किया और अटैची से चार हजार रूपये निकाल कर लाइन मैन के हाथ में पकड़ा दिये।

   लख्खा को अभी और भी कई काम थे। राशन कार्ड बनवाना था। गैस कनैक्षन करवाना था। सो सबसे पहले लख्खा सिंह गैस ट्रांन्सफर पेपर लेकर गैस ऐजेन्सी चले गये। गैस ऐजेन्सी वाले ने लख्खा को देखा और पूछा’,‘‘  कोई आइडी प्रुफ लेकर आये हो ?’’ 
लखा सिंह नं तुरन्त अपने जमीन रेजिस्टरी की फोटो कॉपी दिखाते हुए कहा,’’जी मेरा तलहट गॉँव में ही घर है। यह मेरी जमीन की रेजिस्टरी है’’

गैस एजेन्सी वाले ने पेपर को बिना देखे हुए कहा,‘‘ कोई भी बंदा अगर जमीन खरीद ले तो वह वहॉँ का निवासी नहीं हो जाता है। मुम्बई में रहने वाला राजस्थान,बिहार में जमीन खरीद लेता है। आप के पास रासन कार्ड है। अगर है तो ले आईये, काम हो जाएगा।’’

‘‘   अच्छा ठीक है ’’कह लख्खा वहॉँ से निकल जाता है। लख्खा सिंह वहॉँ से़ सीधे राशन कार्ड आफिस निकल जाते है। राशन कार्ड आफिस मे लखा ने अपना ट्राँन्सफर राशन कार्ड दिखाया। राशन कार्ड वालो ने राशन कार्ड को देखा और कहा,’’वोटर आईडी दिखाईयेगा।

    लख्खा सिंह ने अपनी वोटर आईडी निकाल कर दे दिया। आईडी देखते ही,यह तो बंगाल का वोटर आईडी बना हुआ है। हमे तो लोकल आईडी चाहिये। कौन से गॉँव से आये हो?’’
‘‘ जी तलहट गाँव से आया हूं।’’
गॉव की कोई आईडी नहीं बनवा रखी है।’’
‘‘ जी अब चुनाव आने पर यहॉँ का बनवा लूंगा।
‘‘ अच्छा ठीक है आप सरपंच जी से लिखवा कर ले आईये कि आप तलहट गॉँव के रहने वाले है।’’

उसके बाद लख्खा समझ गया की सरपंच के पत्र बिना कुछ नहीं होगा। सो वह रिक्सा पकड़ने चला गया। लख्खा ने रिक्सा वाले से पूछा,‘‘ जी तलहट गॉँव चलोगे।’’
रिक्सा वाले ने कहा,‘‘ हॉँ सरदार जी चलेंगे।’’
‘‘ कितना लोगे?’’
‘‘ जेा किराया है वही लेंगे वही तीस रूपये।
लख्खा रिक्सा पर बैठ गया। रिक्सा वाले से लख्खा ने पूछा,’’जी पंजाब के तो लगते नहीं हैं।
‘‘हाँ सरदार जी मैं बिहारका हूं।’’
‘‘  बहुत दूर से आये हो । यहाँ रिक्सा चला कर आप का गुजारा हो जाता है।’’
 ‘‘ किसी तरह पेट पाल लेता हूं।’’
‘‘ बिहार में भी तो यह काम कर सकते थे।’’

    यहॉँ सरदार जी खेती बाड़ी अच्छी होती हैं। फैक्टरियाँ भी हैं। सवारी ठीक ठाक मिलती है। हमारा बिहार में पंजाब जैसी तो खेती बाड़ी है नहीं । फैक्टारियॉ भी नहीं है। तो रिक्सा में कौन चढ कर जाएगा। हॉँ यहॉँ भी कम ही पैसे देते है मगर वहॉँ से तो अच्छा है।

   खेतो के बीच से रिक्सा गॉँव की तरफ जा रहा था। तभी लख्खा को पेसाब लग गया उसने रिक्से वाले से कहा,’’भाई थोड़े रिक्से को साईड में खड़ा कर लेना तो। रिक्से वाले ने खेत के किनारे रिक्सा खड़ा कर दिया। रिक्सा से उतर कर जैसे ही लख्खा खेत की तरफ मुंह कर के अपने पेजामे का नाड़ा खोलने लगे कि वह देखते है दो लड़के  खेत में छुप कर अपने हाथो में सुई लगा रहे हैं। लख्खा ने अपना मुंह दूसरी ओर कर लिया।

  रिक्से में बैठते ही लख्खा ने रिक्से वाले से पूछा,‘‘ खेतो में छुप कर यह हाथो में दो लड़के सुई क्यों लगा रहे थे।’’

  ‘‘ मत पूछिये सरदार जी नशा कर रहे थे। इसको लेने के बाद आदमी दूसरे दुनिया में चला जाता है। पंजाब में नौजावानो को नशा ले बीती है। यहा पत्ताखोर लड़को की कमी नहीं है। विदेशों से यहॉँ के लोग पैसे कमा कर तो लाये है लेकिन साथ में नशा खोरी भी लेकर आ गये । एक शहर से एक जट का लड़का गॉँव चला आया था पढ़ने के लिए। दरअसल जट के बहुत खेत थे। शहर में नौकरी से रिटायर होने के बाद गॉव चले आये थे। यहॉँ लड़के को कालेज में दाखिला करा दिया था। लड़के को नशा खोरी की आदत लग गई थी। खूबसूरत लड़का एक दम सूक कर छुआरा हो गया था। बेचारा जट उसके ईलाज के लिए मारा मारा फिरता रहता था।‘‘ बात खत्म होते ही उसने अपना रिक्सा रोक लिया।  लो  सरदार जी आपका गॉँव आ गया। किसी सोच में डूबे लख्खा ने कहा,’’ ‘‘ हॉँ जी’’ और रिक्से वाले को पैसे देकर चले गये।

   अगले दिन सुबह तड़के ही ताई लख्खा को सरपंच के पास लेकर गई। ताई और लख्खा सरपंच के आंगन में खड़े हो गये। आँगन में आम के पेड़ के नीचे चार कुर्सियाँ और मेज रखा हुआ था। सरपंच जी घर ऑफिस जाने की तैयारी कर रहे थे। वह ग्रामीण बैंक के कलर्क थे। आने में सरपंच काफी समय लगा रहे थे। ताई थक गई ,हार कर ताई वही नीचे फर्स पर बैठ गई। यह देख लख्खा ने कहा,’’ताई कुर्सी पर बैठ जाईये।’’

  
‘‘नहीं वे जट बुरा मान जाएगा। हम ठहरे मजबी छोटी जात, वह है जट राजपूत हमारे बैठने से उसका मान सम्मान घट जाएगा।’’

      लख्खा आगे कुछ सुनना नहीं चाहता हो जैसे सो आगे कुछ नहीं कहा। आदे घंटे से ज्यादा समय हो गया था। लख्खा ने घड़ी में समय देखने लगा। घड़ी देखते ही लखा स्वप्न मे चला गया। रिटायर मेंट के दिन डिपार्टमेंट के बड़े बड़े अधिकारी आये थे। पूरा स्टाफ उस दिन मौजूद था। सबने लख्खा के गले को मालाओं से भर दिया था।  उसी वक्त तालियों से गूँज उठा था माहौल। सभी अधिकारीयो ने लख्खा की खूब प्रसन्नसा की थी। फिर उनको तोफे में बहुत कुछ दिया गया। उसके हाथों में घड़ी बांधते समय कहा,’’हम सब तो लख्खा को याद करेगे ही। मगर यह घड़ी लख्खा को हम सब की याद दिलायेगी।’’

   सरपंच जी चले आ गये। लख्खा का ध्यान टूट गया। ताई ने सरपंच को हाथ जोड़ कर सत श्री अकाल कहा। साथ में लख्खा ने भी सत श्री अकाल कहा। सरपंच ने ताई से पूछा, कैसे आना हुआ?’’
ताई ने सारी बात बता डाली। सरपंच ने कहा,’’ अभी तो में ऑफिस जा रहा हूं। शाम को आईयेगा।’’
  ताई ने हाथ जोड़ कर दूबारा अभिवादन करते हुए कहा,‘‘ जी कोई नहीं शाम को ही आ जाएगे।’’

    लख्खा अभी आंगन से निकल रास्ते में जा ही रहा था। कि तभी मोबाईल की घंटी बजी। लख्खा ने जैसे ही कॉल रिसीव की उधर से आवाज आई। क्या हाल है गुरू,मैं दिलीप चक्रवती बोल रहा हूँ।’’
लख्खा खुशी से झूम उठा,’’ दिलीप बताओ। कैसे हो।
‘‘ मैं ठीक हूँ गुरू, अपनी सुनाओ।’’
‘‘ बस चल रहा है। बाकुडा से फोन किये हो।’’
‘‘ नहीं गुरू! बाकुड़ा में नहीं हूं। गाँव में मन नहीं लगा। वापस रानीगंज चला आया। यहाँ एक बहुत बड़ा कम्पनी का प्रोजेक्ट खुला है। मैं यहॉ आकर फोरमैन के पद पर लग गया हूं। अच्छा गुरू मैंने दरअसल फोन इसलिए किया, क्या तुम प्रोजेक्ट ज्वाइन करोगे। यहॉ कुछ मैकेनिकल फोरमैन इन्चार्ज की जरूरत है। आप को क्वाटर भी मिलेगा। आने जाने के लिए कम्पनी गाड़ी भी देगी। हम लोग का बहुत जोडी़दार यहॉ काम कर रहा है।’’
अच्छा दिलीप मुझे कुछ सोचने दो, फिर मैं तुम्हे बताता हूं।’’
‘‘ ठीक है तब जल्द बताना मैं अब फोन रख रहा हूं।’’ 
लख्खा के चेहरे में रोनक सी आ गई। 

    लख्खा उस रात चैन की नीद सो रहा था। अचानक से लख्खा उठकर बैठ गया और अपनी उंगली को कान में गुसड़ने लगा था। अपनी गर्दन को दाई तरफ झुकाकर उंगली को और जोर से कान में गुसेड़ने लगा दर्द से हा,हा कि आवाज करने लगा। सामने लेटी जशवंत फट से आवाज सुन जाग गई। इस तरह उसे तड़पते हुए देख कहने लगी,’’ऐसा क्यों कर रहे है। कान में क्या हो गया।’’
लख्खा और ज्यादा तड़पने लगा। कान में और जोर से उंगली डालने लगा,‘‘ उ तेरा पला हो जाए। उ..... हा....।’’   लख्खा को लग रहा था एक एक कर के बिजली विभाग के लाईन मैनजेई, गॉव का सरपंच, गैस एजेंसी के अधिकारी ,खाध्य एवम नागरिक आपूर्ति विभाग के अधिकारी उसके कान में घुसते जा रहे हैं। उसे लग रहा था उसका सर ज्वालामुखी की तरह फट जाएगा।

     यह देख जशवंत फट से छत पर भागी चली गई। गर्मियो का दिन था। गाँव के ज्यादा तर लोग छत पर सोये थे। जशवंत ने सबको आवाज लगाकर उठा दिया। सभी क्या हो गया करते हुए बराडे में आ गये। लख्खा वैसे ही तड़प रहा था। ताई ने फट से गिलास में पानी लाकर लख्खा के कान में डाल दिया। उसकी गर्दन को दूसरी तरफ झटक दिया था। फट एक कीड़ा उनके कान से निकल आया था। दर्द से परेशान लख्खा को राहत मिली। ताई फट से कहने लगी आज जो आप लोग अपने घर में अकले होते तो पता नहीं कितने परेशान हो जाते।’’जशवंत गम्भीर हो गई।

    अगले दिन जशवंत ने अपने बड़े बेटे को सारी बात बता दी। शाम को लख्खा के बड़े बेटे ने लख्खा को फोन किया,पापा सत श्री अकाल! कैसे है आप’’
‘‘ मैं ठीक हूं बेटा तुम्हारा काम काज कैसा चल रहा है।’’
‘‘ पापा मै तो ठीक हूं। कल रात की घटना मॉ ने मुझे बताई तो मैं एकदम से डर गया।
‘‘ बेटा डरने की कोई बात नहीं, मै एकदम ठीक हूं’’
‘‘ पापा मैने एक फैसला किया है कि मै ट्रांन्सफर करा कर पंजाब में आ जाउँ। अधिकारियो को पैसे देने से काम हो जाएगा।’’
‘‘ नहीं बेटा कोई ट्रांन्सफर कराने की जरूरत नहीं है। तुम्हारे आने से क्या कीड़े मर जाएगे। कीड़े तो दुनिया में हर जगह हैं। और फिर दुनिया में  ऐसी कौन सी जगह है जहॉ लोग अपनी मर्जी के मुताबिक जी सके। मैंने सोच लिया है,अपनी अंतिम सांस तक मैं यहीं रह कर एक नया समाज गढ़ूंगा।
सम्पर्क- विक्रम सिंह
        बी ब्लॉक-11, टिहरी  विस्थापित कालोनी, 
        ज्वालापुर,न्यू शिवालिक नगर, हरिद्वार,उत्तराखण्ड,249407
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