शनिवार, 18 जुलाई 2015

तुम हिंदी भवन में ही पड़े रहो : हयात सिंह







उत्तराखण्ड के अति दुर्गम क्षेत्र  डुंगरालेटी ,चम्पावत में 1986 में जन्में हयात सिंह ने अभी हाल ही में लेखन की शुरूआत की है। इनकी रचनाएं कई प्रतिष्ठित पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। किसी ब्लाग में पहली बार प्रकाशन। स्वागत है इस युवा कवि का। आप सुधीजनों के विचारों की प्रतीक्षा रहेगी।


 

 पेंटिंग-जहीन,हिमाचल प्रदेश

हयात सिंह की कविताएं-

तुम हिंदी भवन में ही पड़े रहो


जरुरत तो बहुत है उन्हें तुम्हारी
और वो भी टकटकी लगाये
 राह निहार रहे होते हैं रोज
शायद तुम इसलिए नहीं जाते वहाँ
कि सूरज नादानों की जिद पर
ग़र जमीं पर उतर आया तो जाने क्या हो जायेगा
जब सैकड़ों प्रकाश वर्ष की दूरी से
 गर्मी और तपन का
 ये हाल है
लेकिन इधर इसमें कुछ असमंजस भी है
सूरज तो एक है
नादानों को क्या मालूम 
 आकाशगंगा में कई और भी हैं सूरज
बस उनकी दूरी सैकड़ों नहीं हजारों प्रकाशवर्ष की है
अरे मैं बात कर रहा हूँ
उन बस्तियों की
उन गलियों की
जहाँ कुछ असहाय और मजलूम रहते हैं
जिनकी खातिर तुम
 रोज कलम उठाते हो
और गढ़ देते हो 
कवितायेँ कहानियाँ
दिल्ली का हिंदी भवन हो या
शिमला का गेटी थियेटर
तुम वातानुकूलित भवनों के भीतर
 माइक के सामने
बड़ी जोर से चिल्लाते हो
कि किसान मजदूर को उसका हक़ मिलना चाहिए
फिर इक-दूजे के कहे-लिखे पर
दिनों, महीनों, वर्षों तक ढोल बजाये फिरते हो
मगर किसान-मजदूरों के बीच में 
न जाने का तुम्हारा फैसला उचित ही है
वरना वो भी तुम जैसे नाकारा हो गए तो
क्या होगा इस देश का
इस दुनिया का
कौन करेगा मेहनत
 होगा कैसे तब नवनिर्माण 
पहली बार तुम्हारा कोई फैसला सही साबित हुआ
तुम हिंदी-भवन में ही पड़े रहो
तुम हिंदी भवन में ही पड़े रहो
तुम शिमला ,जयपुर भले कहीं भी जाते रहो
मगर किसान और मजदूरों के बीच।


प्रलय से बचना तुम जानते तो हो ना

उजाड़ दो
खेत-खलिहान
काट डालो जंगलों को
पहाड़ों को खोद डालो
आख़िर सभ्यता का प्रतीक 
 शहर जो बसाना है तुमको
सूख जाने दो
नदियों को
हो जाने दो भूस्खलन
मिटा दो गाँवों का नामोनिशान
आखिर विज्ञान का चमत्कार दिखाना जो है तुमको
खरीद ही लोगे खुद के लिये
जरुरत पड़ने पर ऑक्सीजन
दौलत का भंडार
जमा जो कर लिये हो
तुम्हें क्या जरुरत
अब और इंसानों की
रोबोट बना तो लिये हो
तुम खुद ही बुला नहीं लेते क्यों
फिर एक आपदा
आखिर तुम्हारे ये अणु-परमाणु
कब काम आयेंगे तुम्हारे
बुला लो प्रलय
कर दो इस युग का अंत
आयेगा नया युग
जहाँ मुझ जैसे कोसने वाले न होंगे
कविताओं में
टोकने वाले न होगें
कोई नहीं
हाँ जी कोई नहीं
बस सिर्फ तुम सिर्फ तुम
तुम प्रलय से खुद को बचाना
जानते तो हो ना।

कलम चलाने वाले

चिनी चिनाई
दीवारों की
लीपा-पोती करने वाले
टूटी
दीवारों की दर से
तांका-झाँकी करने वाले।
बस अपने ही
घर की छत से
टोका-टाकी करने वाले।
लाखों हैं
ऐसी कवितायेँ
और
हजारों करने वाले
इसीलिये तो
बनकर सांड
छुट्टे घूम रहे हैं 
  सत्ता के मद वाले
पिछले एक दशक से
देख रहा हूँ
गिनती के भी नहीं दिखते
सत्ता को सबक़ सिखाने वाले
इसकी कविता
उसकी कविता
कविता को शान समझने वाले
मूक-बधिर सी
कविता की ख़ातिर
बस आपस में लड़ने वाले।
दुःख और स्वयं
बढ़ता ही रहा
जब देखते रहते कलम चलाने वाले।

संपर्क-
हयात सिंह
डुंगरालेटी ,चम्पावत
उत्तराखण्ड 262524
मोबा0-09560716916


सोमवार, 13 जुलाई 2015

पुस्तक समीक्षा-बर्फ़ सी गर्मी

                                  
                            
       इस निर्दयस्त समय में जहाँ स्वार्थ और लोलुपता की आंधी चल रही हो, जहाँ गलाकाट स्पर्धाएं चल रही हों, सिर्फ़ धन बटॊरने के लिए नित नए फ़ंडॆ ईजाद किए जा रहे हों, जहाँ आचार-विचार और परंपराओं की धज्जियां उडाई जा रही हों, जहाँ आदमी के संवेदना-जगत को क्षत-विक्षत करते हुए उसे खण्डहर में तब्दील किया जा रहा हो,जहाँ खुदगर्जी, फ़रेब और औपचारिकता ही आदमी की पहचान बनती जा रही हो, जहाँ आदमी के जीवन के शाश्वत मूल्यों की जमीन लगातार छॊटी होती जा रही हो. शब्द-रूप,रस तथा गंध के संवेदनों, भावभूमि के मूल्यवर्ती अहसासों और क्रिया-कलापॊं से वह लगातार अजनवी बनता जा रहा हो. ऎसे कठिन समय में  राज हीरामन का कथा-संग्रह बर्फ़ सी गर्मी का आना शुभ संकेत तो है ही,साथ ही यह आशा भी बंधती है कि वे विलुप्त होती जा रही मानवता को बचाने के लिए जद्दोजहद करते  देखे जा सकते है. उनकी कहानियों को पढकर राहत मिलती है. वे एक नयी चेतना और ऊर्जा के साथ उन तमाम तरह के मकडजालों को काट फ़ेंकने में समर्थ दिखाई देते हैं. उनकी लेखनी में एक प्रकार की विकलता और छटपटाहट स्पष्ट रूप से दिखाई देती है.

            मारीशस में जन्में कवि-कथाकार से मेरी मुलाकात  उन्हीं के देश मारीशस में हुई थी. आपके अब तक दस कविता संग्रह, तीन कहानी संग्रह, एक साक्षात्कार संग्रह, एक आलेख संग्रह प्रकाशित हुए है. अनेकानेक सम्मानॊ से सम्मानित होने के अलावा आपने चार किताबों का संपादन भी किया है. वर्तमान में आप महात्मा गांधी संस्थान के सृजनात्मक एवं लेखन विभाग में रिमझिम तथा वसंत पत्रिका के वरिष्ठ उप-संपादक हैं

            बर्फ़ सी गर्मी  में दस कहानियां हैं. बर्फ़ सी गर्मी तथा लेट अस ब्रेक कहानियां विदेशी पृष्ठ-भूमि पर लिखी गई कहानियाँ हैं. माँ-दाई-माँ, घर वह बडा, मर गया पर जिंदा था, मानवाधिर, साहिल, प्रेरणा, खेत सुमन के हो गए और धनराज. इन कहानियों  के किरदार, किरदारों की दशा-मनोव्यथा,आदि कहानियों की अपनी जमीन  मारीशस की है. 

            बर्फ़ सी गर्मी शीर्षक चौंकाता है. सहज ही मन में प्रश्नाकुलता पैदा होती है कि भला बर्फ़ में गर्मी कैसे हो सकती है.?. लेकिन जैसे-जैसे आप कहानी के भीतर उतरते हैं, तो पता चल  जाता है कि आखिर वह गर्मी किस प्रकार की थी. 

            उत्तरी व्हेल्स के एक छॊटे से शहर की कहानी है यह. इसमें एक अविवाहित पात्रा है,जिसका नाम मारगारेट है. उसका एक भाई है, जिसका नाम आंद्रे है. वह जानलेवा बीमारी में  ग्रसित एक अस्पताल में भरती है. वह रोज उससे मिलने जाती है. आंद्रे के दो बेटे मारिस और जान रील हैं,जो कुछ ही दूरी पर मानचेस्टर शहर में रहते हैं. पर अपने पिता को न कभी  शामारैल लोल्ड होम केयर में देखने आए और ना ही अस्पताल में. उसकी एक बेटी भी है मारिया. मारिया इसी शहर के दूसरे छॊर पर रहती है,कभी-कभी अपने बाप को देखने और   पूछताछ करने आ जाती है.


            वह दिन भी शीघ्र ही आ जाता है जब आंद्रे की मृत्यु हो जाती है. खबर मिलते ही मोरिस   और जान अपनी-अपनी पत्नियों और दो-दो युवा पुत्रों और पुत्र वधुओं के साथ आ पहुंचते हैं. जैसा कि वहाँ ईसाई धर्म प्रचलित है. उस धर्म के मुताबिक उसकी अंत्येष्टि की जाती है. बनाये गए  गढ्ढे में शव को उतारकर मिट्टी डाली जाती है. मिट्टी तब तक डाली जाती है,जब तक जमीन को समतल नहीं बना दिया जाता. इसके बाद धन्यवाद भाषण देने का रिवाज है. मारगारेट आंग्रे के बेटॊं से दो शब्द अपने पिता के बारे में कहने का आग्रह करती है. लेकिन वे हिम्मत नहीं जुटा  पाते. कहते भी तो क्या कहते? कहने के लिए कुछ भी तो नहीं था दोनो के पास. क्या वे यह कहते कि अपने पिता के जिंदा रहते हुए उन्होंने कभी उसकी परवाह नहीं की और न ही कभी  उससे मिलने आए?

            दोनो को आगे न बढता देख, मारगारेट जान के बेटे आनथनी को आगे करती है. आनथनी विश्वविद्यालय में जेनेटिक इंजिनियरिंग का छात्र था. बोलने में माहिर, निर्भिक, और न हीं किसी प्रकार की कोई झिझक थी उसमें. शब्दों का भण्डार था उसके पास. काफ़ी कुछ कहते  हुए और अंत में सभी के प्रति धन्यवाद देते हुए उसने कहा-एक गया पर सबको इकठ्ठा कर   गया. यही हमारे जीवन की शुरुआत है. अतः मृत्यु के बाद भी जीवन है इसके बाद सभी  बारी-बारी से गले मिलते हैं. मिलने से एक ऊर्जा उत्पन्न होती है और मन पर बरसों-बरस से जमी बर्फ़ पिघल-पिघल  कर आँखों के माध्यम से आँसू बन कर बहने लगती है.

      लेट अस ब्रेक इस कहानी की पृष्ठभूमि इंग्लैण्ड की है. डानियल अरबों-खरबों का मालिक है. पति बदलने में माहिर सुजन उसके जीवन में आती है. पांच साल तक वैवाहिक जीवन बीता चुकने के बाद एक दिन वह डानियल से कहती है=लेट अस ब्रेक.और वह उसे छॊडकर चली जाती है. घर में बरसों से काम कर रही मेरी का अचानक उसके जीवन में प्रवेश हो जाता है. इंगलैण्ड में किस तरह जीवन जिया जाता है, उसको उजागर करती चलती है यह कहानी.

      माँ-दाई-माँ... एक खुद्दार महिला के इर्दगिर्द घूमती कहानी है यह. व्यस्ततम जीवन यापन कर रहे एक वकील,जिसकी पत्नी का देहान्त हो गया है. सारे संस्कारों को निपटा चुकने के बाद जब वकील साहब अपने घर में बरसों से काम कर रही दाई को साडियाँ और पैसे देना चाहते हैं, तो वह दसियों साडियों में से केवल एक साडी और नोटॊं के पुलंदे में से एक नोट निकाल कर यह कहते हुए चल देती है -नहीं साहब ! मैं इस सबके लिए बहुत छॊटी हूँ

      मनोविज्ञानिक तरीके से आगे बढती कहानी मर गया पर जिन्दा था,दुखों से भयाक्रांत हो उठने वाले माला और गुलशन किस तरह से बागी हो उठते हैं मानवाधिकार, रागिनी की कमनीय काया से प्रभावित अभयानंद उसे अपनी कम्पनी में बडॆ-बडॆ अवसर उपलब्ध करवाता है, लेकिन जब वह उसे छॊड देता है, तो सहसा रागिनी किस तरह उसके लिए प्रेरणा बन जाती है अपने नाटकीय अंदाज से बढती कहानी आपको बांधे रखती है. हरिदेव और सुमन के अद्भुत चरित्र को आप कहानीखेत सुमन के हो गए में देख सकते हैं. एक पेन्शनर बाप धनराज खुद भूखों मरने पर विवश है, जबकि उसकी बेटी उसके पैसों पर मजे उडाती है,मार्मिक कहानी बन पडी है. कलम के धनी हीरामनजी ने भाषागत मुहावरों और लोकोक्तियों के माध्यम से कहानियों को प्रभावशाली बनाने में कोई कसर नहीं छॊडी है.

            अंत में मैं धन्यवाद देना चाहता हूँ  इंदौर के डा. राकेश त्रिपाठीजी को, जिन्होंने श्री राज हीरामनजी के अनुरोध पर मुझे यह कहानी संग्रह बर्फ़ सी जमी गर्मी और काव्य संग्रह नमि आँखें मेरीसमीक्षार्थ भिजवाईं.

            मुझे आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि भविष्य में आपके अनेकानेक संग्रह प्रकाशित होंगे. निश्चित ही आपकी साहित्यिक यात्रा मारीशस और भारत को जोडॆ रखने में सेतुकी भूमिका का निर्वहन करेगी.
            एक सार्थक कहानी संग्रह मुझ तक भिजवाने के लिए पुनः आपका हार्दिक आभार.


समीक्ष्य पुस्तक - ‘  बर्फ़ सी गर्मी
लेखक - राज हीरामन                                           
संपर्क -                                     
 गोवर्धन यादव       
 103, कावेरीनगर,छिन्दवाडा(म.प्र.)480001                      
  (संयोजक म.प्र.राष्ट्रभाषा प्रचार समिति)                       
  09424356400

सोमवार, 6 जुलाई 2015

देखो अबुआ राज में : विनोद सागर



            03 जनवरी 1989 को जपला झारखंड में जन्में विनोद सागर जीविकोपार्जन हेतु फोटोग्राफी का काम करते हुए  कविता,कहानी, गीत, ग़ज़ल, हाइकु, क्षणिका आदि में सृजनरत हैं।  अब तक इनके दो कविता संग्रह गंगा और मुखौटा प्रकाशित हो चुके हैं। इस नये स्वर का पुरवाई ब्लाग में  स्वागत है।
सम्मान -दुष्यंत कुमार सम्मान 2014
                 सूर्यकांत त्रिपाठी निराला सम्मान 2015


विनोद सागर की कविता

  

देखो अबुआ राज में
 
चोर-डकैतों की भरमार, देखो अबुआ राज में।
हैं सैकड़ों बेरोजगार, देखो अबुआ राज में।

राज्य का विभाजन सौभाग्य था या दुर्भाग्य अपना,
अस्थिर बनी रही सरकार, देखो अबुआ राज में।

जिन-जिन काबिल हाथों को किताबों की दरकार थीं,
हैं उन हाथों में हथियार, देखो अबुआ राज में।

गूंजती थी जिस जंगल में चिड़ियों की किलकारि
यां,
 है वहां बारुदी अंगार, देखो अबुआ राज में।

देखो सत्ता की लोभ में बेच कर ईमान अपने,
नेता बने ईमानदार, देखो अबुआ राज में।

ना भीतर सुरक्षित और ना बाहर सुरक्षित लड़कियां
खुलकर हो रहा बलात्कार, देखो अबुआ राज में।

सभी नदियां जा-जाकर मिल रहीं अपने ‘सागर’ से,
ऐसे खो रहा जनाधार, देखो अबुआ राज में।


                                                                     साभार- दैनिक भास्कर के साहित्यिक कॉलम में प्रकाशित



सम्पर्क   -   मुहल्ला
- पो0 - जपला 
                       पलामू, झारखंड -822116.
                       मोबा0- 09905566775
                       ई-मेल -vinodsagarwriter@gmail.com

मंगलवार, 30 जून 2015

लोक का आलोक- पहाड़ से : चिन्तामणि जोशी


एक

साहित्य की परिवर्तनकारी भूमिका पर चिन्तन-मनन एवं समकालीन कविता, कहानी एवं आलोचना पर गम्भीर चर्चा-परिचर्चा के उद्देश्य से देश के विभिन्न हिस्सों से प्रतिष्ठित कवियों, कथाकारों, आलोचकों व चित्रकारों का एक सप्ताह के लिए निजी संसाधनों से पिथौरागढ़ में जुटना, ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर पहाड़ की लोक संस्कृति और जीवन संघर्ष से अवगत होना और लोक जीवन तथा संस्कृति में आ रहे परिवर्तनों का अध्ययन करना सीमान्त पिथौरागढ़ के लिए तो एक ऐतिहासिक अवसर था ही, साहित्यकारों की लोक प्रतिबद्धता का भी अनूठा उदाहरण था। स्थानीय साहित्यकारों के ‘उत्तराखण्ड लोकतांत्रिक साहित्य-संस्कृति मंच, पिथौरागढ़’ की इस आयोजन के साथ उक्त से इतर भी एक सोच थी कि स्थानीय प्रतिभाओं को राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकारों से संवाद का अवसर मिलेगा, विभिन्न हिस्सों से आए साहित्यकार यहां के अनुभवों को लेकर लौटेंगे तो उन्हें अपनी रचनाओं में दर्ज करेंगे जिससे हमारे अंचल की नैसर्गिक सुषमा एवं सांस्कृतिक सम्पन्नता को पर्यटन के मानचित्र में एक नई पहचान मिल पाएगी और स्थानीय साहित्यकार संगठित होकर भविष्य में जनपद में बेहतर साहित्यिक वातावरण सृजित कर सकेंगे। सुखद है कि आयोजन की सफलता के साथ ही इस सोच की सार्थकता भी दिखाई देने लगी है।

08 जून 2015 को ठीेक 11.00 बजे पहाड़ी स्थापत्य कला में निर्मित ‘बाखली’ के वृहद् कक्ष में सात दिनी लोक-विमर्श शिविर का आरंभ 17,000 से अधिक चित्रों को अपनी तूलिका से सजा चुके चर्चित चित्रकार कुंवर रवीन्द्र की एकल चित्र एवं कविता-पोस्टर प्रदर्शनी के साथ होना अपने आप में एक रोमांचित करने वाला अनुभव था। उद्घाटन अवसर पर जैसे ही स्थानीय किसान श्री मोहन चन्द्र उप्रेती के हाथ में रिबन काटने के लिए कैंची दी गई और स्थानीय चित्रकार श्री ललित कापड़ी ने किसान के हाथ को सहारा दिया तो लोक-विमर्श लिखे लिफाफे का मजमून सबके लिए खुलता चला गया।

      ‘बाखली’ में 60 चित्रों से सजी जगमगाती चित्र वीथिका साहित्यकारों के साथ ही नगरवासियों के लिए भी आकर्षण का केन्द्र बनी रही। 08 से 13 जून तक इसे देखने के लिए भीड़ जुटी रही। कला-साहित्य प्रेमियों, प्रिंट तथा इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथियों के साथ ही माध्यमिक विद्यालयों के विद्यार्थी समूहों एवं महाविद्यालय के विद्यार्थियों ने भी प्रदर्शनी का अवलोकन किया। धूमिल, मुक्तिबोध, नागार्जुन, रघुवीर सहाय, शील, मान बहादुर सिंह, केशव तिवारी, नवनीत पांडे, महेश पुनेठा, रेखा चमोली सहित हिन्दी के तमाम कवियों के कैनवास पर जीवन के विविध रंग बिखेरते शब्दों की तपिश सभी के अंतस तक पहुँच रही थी। शील की कविता ‘फिरंगी चले गए’ का पोस्टर हो या मान बहादुर सिंह की पंक्तियां- उनकी जिद वेद है/बाइबिल और कुरान है/उनकी जिद गोला और बारूद है; महेश पुनेठा कह रहे हों- ‘जिस वक्त में/कुचले जा रहे हैं फूल/मसली जा रही हैं कलियां/उजाड़े जा रहे हैं वन कानन/वे विमर्श कर रहे हैं/फूलों के रंग- रूप पर’ या फिर धूमिल की ‘अंतर’ हो-‘कोई पहाड़/संगीन की नोक से बड़ा नहीं है/और कोई आंख छोटी नहीं है समुद्र से/यह केवल हमारी प्रतीक्षाओं का अंतर है/जो कभी हमें लोहे या कभी लहरों से जोड़ता है’-सहज ही दिल-दिमाग-दृष्टि पकड़ रहे थे। लोग बरबस ठहर रहे थे। सोच रहे थे। चित्रों में प्रदर्शित स्याह-धूसर रंग पर बातें कर रहे थे। इनमें उन्हें जीवन का संघर्ष दिख रहा था सो ये चित्र लोगों को उदास कतई नहीं कर रहे थे।

      बाद में डॉ0 जीवन सिंह ने कुछ चित्रों की काली पृष्ठभूमि को उद्धृत करते हुये अपने ब्याख्यान में कहा कि हमारे जीवन में अंदर तक पुत चुका काला रंग वास्तव में चिन्ता का विषय बन चुका है। फतेहपुर से आये साहित्यकार प्रेमनन्दन का कहना था कि कुंवर रवीन्द्र के कविता-पोस्टर, कविता की प्रभावशीलता को बहुगुणित कर देते हैं। शब्दों में निहित ताप जब कैनवास पर रंगों को तपाता है तो मानो कविता में बिम्ब खिल-खिल उठते हैं और उनकी तपिश महसूस की जा सकती है।

      चित्र प्रदर्शनी ने स्थानीय मीडिया का ध्यान भी बखूबी आकृष्ट किया। जहां एक ओर इलेक्ट्रानिक मीडिया के विजयवर्धन, मंकेश पंत आदि रवीन्द्र जी से संवाद करते देखे गये तो अमर उजाला ने लिखा- यह प्रदर्शनी कला और कविता को जोड़ने का प्रयास है जो लोगों को सच्चाई का बोध कराती है। दैनिक जागरण के अनुसार प्रदर्शनी कलात्मक एवं सृजनात्मक दोनों पक्षों को आवाज देने में सफल रही और दैनिक हिन्दुस्तान ने इस प्रदर्शनी को साहित्य के विद्यार्थियों के लिए बेहद उपयोगी बताया।
      

वरिष्ठ श्रमजीवी पत्रकार श्री बद्री दत्त कसनियाल की अध्यक्षता एवं स्थानीय कवि चिन्तामणि जोशी के संचालन में सम्पन्न द्वितीय सत्र में कवि-आलोचक महेश चन्द्र पुनेठा ने शिविर में प्रतिभाग कर रहे साहित्यकारों का साहित्यिक परिचय देते हुए शिविर की रूपरेखा प्रस्तुत की। हमीरपुर से आये युवा कवि-समीक्षक अनिल अविश्रान्त ने महानगर केन्द्रित छद्म साहित्यिक गतिविधियों एवं साहित्यकारों के नैतिक अवमूल्यन को साहित्य द्वारा परिवर्तनकारी भूमिका न निभा सकने का कारण बताया। इस अवसर पर मुख्य वक्ता अलवर से आये वरिष्ठ आलोचक डॉ0 जीवन सिंह का ‘‘साहित्य की परिवर्तनकारी भूमिका’’ पर लगभग सवा घंटे का व्याख्यान बहुत उपयोगी एवं जानकारीपरक रहा। उन्होंने कहा- सत्ता(राजा) के प्रभाव में रचे गए साहित्य ने सदैव साहित्यकार को ही नहीं समाज को भी पीछे धकेला है। इससे समाज स्वजीवी के वजाय परोपजीवी बना है। जो साहित्यकार जीवन के जितना पास रहेगा, जिन्दगी की जितनी अधिक चिन्ता करेगा, वह उतना ही बड़ा साहित्यकार बनेगा। मुक्तिबोध को याद करते हुए उन्होंने कहा कि हमारी कविता को फैलना जरूरी है। कबीर और तुलसी के सृजन से उन्होंने  साहित्य की परिवर्तनकारी भूमिका के विविध स्वरूपों को स्पष्ट किया। साहित्यकारों एवं मसिजीवियों से उन्होंने अपेक्षा की कि उन्हें अपने प्रति निरंतर असुविधाजनक प्रश्न उठाने चाहिए। पढ़ा-लिखा वर्ग परिवर्तनकारी भूमिका में हो न कि लुटेरी। संवाद प्रक्रिया में वरिष्ठ आलोचक ने युवा रचनाकारों दिनेश चन्द्र भट्ट, आशा सौन, विनोद उप्रेती आदि की शंकाओं का समाधान करते हुए कहा कि यदि सामाजिक समानता, स्वतंत्रता एवं मूल्यों को केन्द्र में रखकर साहित्य सृजन किया जाय तो वह परिवर्तनकारी भूमिका निभा सकता है।

      अध्यक्षीय संबोधन में श्री बद्री दत्त कसनियाल ने आदमी और आदमी के बीच भेद पैदा करने वाली सृजन धारा की कठोर निन्दा की। उन्होंने कहा कि जिन साहित्यकारों को हमारी भावी पीढ़ी अपने पाठ्यक्रम में पढ़ती-समझती है उन्हें अचानक अपने मूल्य परिवर्तित कर सत्ता से बड़े-बड़े पुरस्कार प्राप्त करते देखना बहुत दुखद होता है। रचनाकार का जीवन एवं रचनाकर्म ऐसा हो कि अध्येता उसे लीक से हटकर देखें।
लोक-विमर्श में कुंवर रवीन्द्र और उनके कविता-पोस्टरों ने जहां  शिविर को एक विशिष्ट ऊंचाई प्रदान की वहीं डॉ0जीवन सिंह और श्री कसनियाल के उद्बोधन ने एक संतुलित गहराई का अहसास कराया। कहा जा सकता है कि एक अच्छे आरंभ ने पहले ही दिन कार्यक्रम को एक बेहतरीन दिशा प्रदान की।

दो
9 जून को प्रातः विभिन्न प्रांतों से आए 19 साहित्यकारों के दल का राजकीय इण्टर कालेज देवलथल पहुँचने पर बाराबीसी उत्थान समिति, स्थानीय जनता तथा विद्यार्थियों द्वारा उत्साहपूर्वक स्वागत किया गया। परिचयादि संक्षिप्त औपचारिकताओं के पश्चात् साहित्यकारों ने रचना प्रक्रिया पर बच्चों के साथ विस्तार से चर्चा-परिचर्चा की एवं उनकी जिज्ञासाओं को शांत किया। भोजन के उपरांत साहित्यकारों ने आस-पास के गाँवों का भ्रमण कर ग्रामीणों से संवाद किया। इस दौरान उन्होंने ग्राम्य जीवन, रहन-सहन, खान-पान, संस्कृति-परंपरा आदि को नजदीक से जानने-समझने का प्रयास किया। एक विवाह समारोह में पारंपरिक छलिया लोक नृत्य का आनन्द लिया। हल-बैल, खेत-बटिया, हिसालू-किरमोड़ा, धारा-नौला-डिग्गी से साक्षात्कार किया।

तीन
10 जून को आचार्य उमाशंकर सिंह परमार ने लोक के आलोक में प्रथम सत्र की भूमिका प्रस्तुत की और ‘‘साहित्य की लोकधर्मी चेतना’’ पर डॉ0 जीवन सिंह का व्याख्यान हुआ। श्री सिंह ने स्पष्ट किया कि लोकधर्मी चेतना के साथ सृजित साहित्य जीवन के बहुत बड़े और विस्तृत फलक पर अंकित साहित्य है। रीति कविता एक सिमटी-सिकुड़ी दुनियां की कविता है जबकि उससे ठीक पहले की भक्ति कविता में केवल राजा का ही नहीं प्रजा का जीवन भी उतनी ही महिमा और महत्व के साथ चित्रित है। श्री सिंह ने संस्कृति को संवारने में पहाड़ों की भूमिका का उल्लेख करते हुए कहा कि पहाड़ ही नदियों के जनक हैं और नदियों के परितः ही साहित्य, संस्कृति व सभ्यता विकसित हुई है। 

द्वितीय सत्र में श्री रमेश भट्ट की अध्यक्षता एवं मृदुला शुक्ला के संचालन में केशव तिवारी, महेश पुनेठा, प्रेम नंदन, चिन्तामणि जोशी, मृदुला शुक्ला, रश्मि भारद्वाज, कुंवर रवीन्द्र, अनिल अविश्रांत, जनार्दन उप्रेती, नवनीत पांडे, आशा सौन, जयमाला देवलाल एवं प्रकाश जोशी ने अपनी पांच-पांच कविताओं का पाठ किया।

राजकुमार राकेश की अध्यक्षता में तृतीय सत्र में कविताओं की समीक्षा की गई। डॉ0 जीवन सिंह ने समीक्षा सत्र का प्रारंभ करते हुए कहा कि ज्यादातर कविताएं सामान्य जमीन पर लिखीं गईं हैं। कवि की अपनी विशिष्ट जमीन होनी चाहिए। आलोचक आपकी कविता में जिन्दगी को तौलता है। आज के कवि कविता के डिक्शन पर कम मेहनत करते हैं। निराला का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि जिसको कवित्त छंद का अभ्यास होगा वह ही मुक्त छंद में रचना कर सकता है।

अजीत प्रियदर्शी, उमाशंकर परमार एवं संदीप मील ने भी पढ़ी गई कविताओं की अलग-अलग समीक्षा प्रस्तुत की। अजीत प्रियदर्शी का मत था-आज कविता एक खास तरह के फॉर्मेट में जकड़ गई है। लगभग एक जैसी भाषा एक जैसा शिल्प उस पर विषय की एकरूपता सब कुछ एक कर देती है। यही कारण है कि हर कविता पहले की कविता का दोहराव नजर आती है। संभावनाशील कवियों के लिए यह सत्र महत्वपूर्ण साबित हुआ।

चार
11 जून का प्रथम सत्र वरिष्ठ कथाकार राजकुमार राकेश की अध्यक्षता में कथा साहित्य पर चर्चा-परिचर्चा का रहा। आउटलुक पत्रिका के श्री भूपेन सिंह इस सत्र में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहे।  राजकुमार राकेश के उपन्यास कन्दील पर चर्चा की गई। अजीत प्रियदर्शी ने कहा- कन्दील आजाद हिन्दुस्तान की दर्दनाक गाथा है। शिवेन्द्र और संदीप मील ने बहुत प्रभावशाली ढंग से अपनी-अपनी कहानियों का पाठ किया। संवादों के माध्यम से कहानी के पात्रों का लोक जीवन एक बारगी शिविर में सजीव हो उठा। अजीत प्रियदर्शी, उमाशंकर परमार एवं राजकुमार राकेश ने पढ़ी गई कहानियों पर परिचर्चा की। अजीत प्रियदर्शी ने कहा-संदीप मील की कहानियां डायलैक्टिक नजरिए से व्यवस्था का मूल्यांकन हैं। ये फिरकापरस्ती के खिलाफ संदेश देती हैं। राजकुमार राकेश ने कहा- संदीप मील की कहानियों को आवारा पूंजी व सत्ता के गठजोड़ से तथा साम्प्रदायिक एजेण्डे से जोड़कर देखा जाना चाहिए।

द्वितीय सत्र में महेश पुनेठा के संचालन में दीवार पत्रिका अभियान पर चर्चा हुई। श्री पुनेठा ने बच्चों की रचनात्मकता को मंच देने एवं उनकी भाषायी दक्षता बढ़ाने के उद्देश्य से विद्यालयों में प्रारंभ किए गए नवाचारी दीवार पत्रिका अभियान की जानकारी साहित्यकारों को दी। असिस्टेंट प्रोफेसर विधांशु कुमार के साथ साहित्यकारों ने विद्यार्थियों द्वारा तैयार दीवार पत्रिकाओं का अवलोकन किया। दीवार पत्रिका पर साहित्यकारों की प्रतिक्रियाएं अभियान को ऊर्जा प्रदान करने वाली हैं। बांदा से आए नारायण दास ने कहा- दीवार पत्रिका में अपने क्षेत्र की संस्कृति पर बच्चों का लेखन बहुत प्रभावित करता है। दिल्ली की रश्मि भारद्वाज ने इसे रचनात्मकता के विकास के लिए बेहतरीन प्रयास बताया तो फतेहपुर से पधारे प्रेमनंदन ने लिखा- दीवार पत्रिका बच्चों को सृजनशील, संवेदनशील, कर्मठ एवं जिम्मेदार बनाने का एक सार्थक प्रयास है। हमीरपुर डिग्री कालेज के असिस्टेंट प्रोफेसर अनिल अविश्रांत अपनी प्रतिक्रिया में लिखते हैं कि यह कार्य विद्यार्थियों को पाठ्यक्रम से इतर भी बहुत कुछ पढ़ने-समझने का अवसर प्रदान करता है। बीकानेर के नवनीत पांडे ने दीवार पत्रिका अभियान को आज के कठिन समय में बहुत जरूरी और प्रासंगिक बताया। उल्लेखनीय है कि विद्यालयों में दीवार पत्रिका के नवाचार को वर्ष 2013 में  पिथौरागढ़ जनपद के नवाचारी शिक्षकों चिन्तामणि जोशी, राजीव जोशी, योगेश पांडेय ने शिक्षक एवं ‘शैक्षिक दखल’ के संपादक महेश चन्द्र पुनेठा के मार्ग निर्देशन में एक अभियान के रूप में प्रारंभ किया था। वर्तमान में यह अभियान सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में प्रसार पाते हुए देश के विविध हिस्सों से होते हुए मलेशिया तक जा पहुँचा है। प्रशिक्षण संस्थानों, महाविद्यालयों सहित लगभग 500 विद्यालयों से नियमित दीवार पत्रिकाएं निकल रहीं हैं। महेश चन्द्र पुनेठा द्वारा लिखित एवं लेखक मंच प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक ‘‘दीवार पत्रिका एवं रचनात्मकता’’ के आने के बाद इस अभियान में सहज ग्राह्यता एवं गतिशीलता आई है। इस शिविर के माध्यम से चूंकि साहित्यकार भी इस अभियान में शामिल हो रहे हैं। आशा की जा सकती है दीवारें साहित्यकारों की नई पीढी को तैयार करेंगी।

पांच
11 जून की रात भोजनोपरांत 11.00 बजे बाद साहित्यकार साथियों द्वारा रंगमंच से जुड़े कवि नवनीत की कविताओं पर परिचर्चा शायद उस सपने की तरह थी जिसे हम नींद में तो नहीं देखते, पर जो हमें सोने भी नहीं देता। बहरहाल 12 जून को प्रातः तड़के ही साहित्यकारों का दल शैक्षिक दखल के साथी श्री राजीव जोशी के मार्गदर्शन में मुनस्यारी की ओर रवाना हो गया। इस यात्रा में जहां एक ओर साहित्यकारों को हर मोड़ पर पहाड़ के समृद्ध प्राकृतिक सौन्दर्य से दो-चार होने का अवसर मिला वहीं मुनस्यारी पहुँचने पर उन्हें स्थानीय लोक कलाकारों से संवाद एवं लोक गीतों का आनन्द उठाने का अवसर भी प्राप्त हुआ। मुन्स्यारी में साहित्यकारों  ने श्री शेर सिंह पांगती के ट्रायबल हैरीटेज म्यूजियम पहुँचकर जोहार-मुनस्यार की लोक संस्कृति पर विस्तृत जानकारी एकत्र की एवं सायंकालीन सत्र में  जोहार लोक कला एवं भाषा पर परिचर्चा की।

छः
शिविर के समापन दिवस 13 जून को साहित्यकारों ने मुनस्यारी से पिथौरागढ़ पहुँचकर स्थानीय मिशन इण्टर कॉलेज में दोपहर 1.00 बजे से 3.00 बजे तक अपने श्वििर अनुभवों पर आधारित दीवार पत्रिकाएं लोक-विमर्श - 1 , 2 एवं 3 तैयार कीं जो कि लोक-विमर्श: 1 के महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में संरक्षित की जाएंगी।

लोक-विमर्श: 1 का समापन सत्र सायं 4.00 बजे से स्थानीय जिला पंचायत सभागार में सम्पन्न हुआ। जनकवि जनार्दन उप्रेती एवं उमाशंकर परमार के संचालन में रात्रि 9.00 बजे तक चली काव्य संध्या में 30 कवियों ने कविताओं के माध्यम से अपने-अपने लोक के रंग बिखेर कर श्रोताओं को आनन्दित किया। कवियों ने तमाम सामाजिक विसंगतियों एवं कुरीतियों पर भी तंज कसे। वरिष्ठ कवियों केशव तिवारी, नवनीत पांडे, महेश पुनेठा के साथ कुंवर रवीन्द्र, मृदुला शुक्ला, रश्मि भारद्वाज प्रेम नन्दन, प्रद्युम्न कुमार, चिन्तामणि जोशी, गिरीश पांडेय ‘प्रतीक’ आशा सौन, अनिल कार्की,प्रमोद श्रोत्रिय, प्रकाश जोशी ‘शूल’, विक्रम नेगी ने हिन्दी कविताएं पढ़ीं तो जनार्दन उप्रेती ‘जन्नू दा’ व प्रकाश चन्द्र पुनेठा ने कुमांऊनी कविताओं एवं नवीन गुमनाम, प्रो0 आशुतोष, बी0 एल0 रोशन ने गजल से समां बांधा। समापन सत्र के मुख्य अतिथि वरिष्ठ कहानीकार राजकुमार राकेश ने लोक-विमर्श शिविर को सफल बताते हुए उत्तराखण्ड लोकतांत्रिक साहित्य-संस्कृति मंच पिथौरागढ़ का आभार ज्ञापित करते हुए कहा कि यह लोक-विमर्श यात्रा रचनाकारों एवं समाज के लिए भविष्य में मील का पत्थर साबित होगी। मंच के संयोजक जनार्दन उप्रेती ने शिविर की सफलता में सहयोग के लिए नगर के साहित्य प्रेमी नागरिकों, मीडिया तथा सभी सहयोगियों के प्रति आभार ज्ञापित किया। अध्यक्षीय संबोधन में वरिष्ठ कवयित्री डॉ0 आनन्दी जोशी ने अतिथि साहित्यकारों के प्रति आभार ज्ञापित करते हुए कहा कि कवि महेश पुनेठा के समन्वयन में सभी के सहयोग से सृजन यात्रा चल पड़ी है जो अनवरत चलती रहेगी और वरिष्ठ साहित्यकारों के सान्निध्य में नवोदित रचनाकारों का शिल्प और उनकी कला भी विकसित होती रहेगी। संवाद बनाये रखने एवं पुनः मिलने के संकल्प के साथ यह एक शुरूआत थी - उस यात्रा की - जिसमें अनवरत तलाशा जाएगा- लोक का आलोक.....

                               : चिन्तामणि जोशी:
                                  संयोजक सचिव
               उत्तराखण्ड लोकतांत्रिक साहित्य-संस्कृति मंच, पिथौरागढ

                             संपर्कः ‘देवगंगा’ जगदम्बा कॉलोनी,
                                     पिथौरागढ़-262501
                              संपर्क सूत्र - 9410739499 

रविवार, 7 जून 2015

डॉ. राकेश जोशी की पाँच ग़ज़लें




                                                   9 सितम्बर, 1970

  अंग्रेजी साहित्य में एम. ए., एम. फ़िल., डी. फ़िल. डॉ. राकेश जोशी मूलतःराजकीय महाविद्यालय, डोईवाला, देहरादून, उत्तराखंड में अंग्रेजी साहित्य के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. इससे पूर्व वे कर्मचारी भविष्य निधि संगठन,श्रम मंत्रालय, भारत सरकार में हिंदी अनुवादक के तौर पर मुंबई में पदस्थापित रहे. मुंबई में ही उन्होंने थोड़े समय के लिए आकाशवाणी विविध भारती में आकस्मिक उद्घोषक के तौर पर भी कार्य किया. उनकी कविताएँ अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ-साथ आकाशवाणी से भी प्रसारित हुई हैं. छात्र जीवन के दौरान ही उन्होंने साहित्यिक पत्रिका "लौ" का संपादन भी किया. उनकी एक काव्य-पुस्तिका "कुछ बातें कविताओं में" तथा एक ग़ज़ल संग्रह 'पत्थरों के शहर में' "यथार्थ प्रकाशन", नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है. साथ ही, उनकी हिंदी से अंग्रेजी में अनूदित एक पुस्तकद क्राउड बेअर्स विटनेसभी देहरादून से प्रकाशित हुई है.






 डॉ. राकेश जोशी की पाँच ग़ज़लें
1
 
आज फिर से भूख की और रोटियों की बात हो
 खेत से रूठे हुए सब मोतियों की बात हो

जिनसे तय था ये अँधेरे दूर होंगे गाँव के
 अब अँधेरों से कहो उन सब दियों की बात हो

इक नए युग में हमें तो लेके जाना था तुम्हें
इस समुन्दर में कहीं तो कश्तियों की बात हो

जो तुम्हारी याद लेकर आ गई थीं एक दिन
 धूप में जलती हुई उन सर्दियों की बात हो

जिनको तुमने था उजाड़ा कल तरक्की के लिए  
आज फिर उजड़ी हुई उन बस्तियों की बात हो

ज़िक्र जब भी जंगलों का, आँसुओं का, आए तो
 पेड़ से टूटी हुई सब पत्तियों की बात हो

2
 
जैसे-जैसे बच्चे पढ़ना सीख रहे हैं
 हम सब मिलकर आगे बढ़ना सीख रहे हैं

पेड़ों पर चढ़ना तो पहले सीख लिया था  
आज हिमालय पर वो चढ़ना सीख रहे हैं

भूख मिटाने को खेतों में जो उगते थे
गोदामों में जाकर सड़ना सीख रहे हैं

कहाँ मुहब्बत में मिलना मुमकिन होता है
 इसीलिए हम रोज़ बिछड़ना सीख रहे हैं

नदी किनारे बसना सदियों तक सीखा था  
गाँवों में अब लोग उजड़ना सीख रहे हैं

धूप निकल कर फिर आएगी इस धरती पर  
दुनिया को हम लोग बदलना सीख रहे हैं

3

 जब हकीक़त सामने है क्यों फ़साने पर लिखूँ
ये है बेहतर, दर्द में डूबे ज़माने पर लिखूँ

खेत पर, खलिहान पर, मैं भूख-रोटी पर लिखूँ
 बंद होते जा रहे हर कारखाने पर लिखूँ

फूल, भँवरे और तितली की कहानी छोड़कर  
आदमी के हर उजड़ते आशियाने पर लिखूँ

ख़त्म होते जा रहे रिश्तों के आँसू पर लिखूँ  
आदमी को रौंदकर पैसे कमाने पर लिखूँ

याद तुमको क्यों करूँ मैं, और क्यों करता रहूँ
 इक कहानी अब मैं तुमको भूल जाने पर लिखूँ

जिसकी सूरत रात-दिन अब है बिगड़ती जा रही
मैं उसी धरती को अब फिर से सजाने पर लिखूँ

बस्तियों में आम लोगों की गरीबी देखकर  
कुछ घरों में क़ैद मैं सबके ख़ज़ाने पर पर लिखूँ

सोचता हूँ, तेरे जाने का कोई न ज़िक्र हो 
एक दिन एक गीत तेरे लौट आने पर लिखूँ

4
 
अब उजालों से कोई आता नहीं है
 भीड़ में भी कोई चिल्लाता नहीं है

मैं कभी डरता नहीं हूँ भीगने से
सर पे कोई छत नहीं, छाता नहीं है

जिन किताबों में गरीबी मिट गई है

उन किताबों से मेरा नाता नहीं है

बिल्लियों के संग वो पाला गया है
 शेर होकर भी वो गुर्राता नहीं है

डाँटते हैं सब नदी को ही हमेशा  
बादलों को कोई समझाता नहीं है

इस जगह तुम ज़िंदगी को ख़त्म समझो
इससे आगे रास्ता जाता नहीं है

5
 
जो ख़बर अच्छी बहुत है आसमानों के लिए  
वो ख़बर अच्छी नहीं है आशियानों के लिए  

इस नए बाज़ार में हर चीज़ महंगी हो गई  
बीज से सस्ता ज़हर है पर किसानों के लिए

भूख से चिल्लाए जो वो, खिड़कियाँ तू बंद कर
 शोर ये अच्छा नहीं है तेरे कानों के लिए

हक़ की बातें करने वालों के लिए पाबंदियाँ  
और सुविधाएं लिखी हैं बेज़ुबानों के लिए

अब नए युग की कहानी में नहीं होगी फसल
खेत सारे बिक गए हैं अब मकानों के लिए

पेट भरने के लिए मिलती नहीं हैं रोटियाँ  
खूब ताले मिल रहे हैं कारखानों के लिए


सम्पर्क: डॉ. राकेश जोशी असिस्टेंट प्रोफेसर )अंग्रेजी (

राजकीय महाविद्यालय, डोईवाला
देहरादून, उत्तराखंड
फ़ोन: 08938010850 ईमेल: joshirpg@gmail.com