शनिवार, 10 जून 2017

लकी निमेष की गजल




 










और ज्यादा मुझपे  तेरा  प्यार होना चाहिये,,,
 ग़म  मिले  लाखो  मगर ग़मख़्वार होना चाहिये!!


है यही हसरत  हमारी,रात दिन पीते रहे,,
 शर्त ये है साथ में मयख़्वार  होना चाहिये!!


पत्थरों  को तोड़ कर मैं भी तराशू  इक हसीँ,,  
ख़ुदा वो हाथ में औज़ार  होना चाहिये!!!


हर ग़मो को बेच  दूँ  मैं इक ख़ुशी के दाम  पर,,  
इश्क़ के बाज़ार  में व्यापार  होना  चाहिए!!


वक़्त का पाबंद  होता रोज़ आता वक़्त पे,,  
! '  लकी' महबूब  को अख़बार होना चाहिए!!!

संपर्क-
Lucky nimesh
greater noida
gautam buddh nagar

nimeshlucky716@gmail.com

बुधवार, 31 मई 2017

शहादत खान की कहानी : नए इमाम साहब



         शहादत खान ने यह कहानी जिस तेवर में लिखी है उससे कई सारी परतें टूटती सी नजर आ रही हैं  । इस उम्दा कहानी के कथाकार से उम्मीदें और बढ़ गयी हैं। फिलहाल इनकी कहानियां कथादेश, नया ज्ञानोदय, समालोचना और स्वर्ग विभा पत्रिकाओं में प्रकाशित।

शहादत खान की कहानी : नए इमाम साहब


    “वे लोग बहुत नासमझ होते है जो मोलानाओं को फरिश्ता समझते है... जबकि मोलाना भी इंसान होते  हैं ... उसके अंदर भी ख़ाहिशात (इच्छाएं) होती हैं। ओर जब ख़ाहिशात जागती है ना... तब इंसान पाक-नापाक, सही-गलत सब भूल जाता है... एक बार को तो ख़ौफ-ए-ख़ुदा भी उसके अंदर से निकल जाता है।” यह बात उस मोलना ने कही थी जिससे मैं दारुल-ऊलूम, देवबंद में मिला था। वह मेरे खाला के बेटे का दोस्त था। हम उसके कमरे में बैठे औरत और सैक्स पर बात कर रहे थे। बात के दौरान ही मुझे मोलाना की गर्लफ्रेंड के बारे में पता चला... वह भी एक नहीं, तीन-तीन के। मेरी खाला के बेटे ने जब मुझे उनके नाम बताएं... तो मैंने यकीन न करने वाली हैरानी के साथ मोलाना को देखते हुए पूछा, “मोलाना आप भी...? आप भी गर्लफ्रेंड रखते   हैं...?” तब उन्होंने मुझसे ये सब कहा था। 


    उस वक्त की अपनी हैरानी और चेहरे के एक्प्रेशन को याद करके आज भी मुझे हँसी आती है। लेकिन एक पल ठहरने के बाद जब मैं बीते हुए कल मैं झांकता हूं तो लगता है कि वह मोलाना बिल्कुल सही थे...!


    पुराने इमाम साहब को गए हुए एक अरसा बीत चुका था। और नए इमाम की आमद की अभी तक किसी को कोई ख़बर नहीं थी। इमाम साहब के जाने के बाद नमाज़ियों की हालत उन भेड़ों की तरह हो गई थी जिनका कोई रहबर नहीं होता। उनमें जिसकी मर्जी जिधर होती वह उधर ही चल देती है... साथ ही दो-चार भेड़े उसका अनुसरण करते हुए उसके पीछे हो लेती है...! यही हाल उन दिनों मस्जिद के नमाज़ियों का था। अज़ान का कोई पता नहीं था। वह कभी वक्त के पहले हो जाती तो कभी वक्त के बाद। ओर इत्तेफाका से अगर कोई अल्लाह का बंदा वक्त पर अज़ान दे देता तो नमाज़ी गायब। जिसका जब दिल चाहता, आता और नमाज़ पढ़कर चला जाता। अगर एक वक्त पर दो-चार लोग जमा हो जाते तो उनमें से कोई एक इमाम बन जाता और बाकी उसके पीछे नमाज़ पढ़ लेते। फिर इसके बाद कुछ ओर लोग आते और उनमें से भी कोई एक इमाम बन जाता और बाकी लोग उसके पीछे नमाज़ पढ़कर निकल जाते। आलम यह था कि इमाम साहब के जाने के बाद शायद ही कभी अपने वक्त पर मुक्कमल जमात हुई हो।  


मोहतमीम साहब (मस्जिद का जिम्मेदार) जब यह सब होता देखते तो वह ज़हर का घूंट पीकर रह जाते। उनसे दीन (इस्लाम) के अहम अरकान की इस तरह बेअदबी बर्दाश्त न होती थी। वह लोगों को समझाते और उन्हें एक साथ नमाज़ पढ़ने के लिए कहते। लेकिन कोई भी नमाज़ी एक दूसरे के पीछे नमाज़ पढ़ने के लिए राज़ी नहीं होता था। उनके बीच इतनी जबरदस्त गुटबाज़ी थी कि वह एक-दूसरे के पीछे नमाज़ पढ़ना तो दूर उनके नमाज़-ए-ज़नाज़ा में भी शरीक न होते... अगर उन्हें दुनिया का डर न हो!
इसीलिए इमाम साहब के पीछे एक वक्त में जहां अस्सी से सौ के बीच लोग नमाज़ पढ़ते थी। ओर मगरिब (शाम) की नमाज़ में तो यह तादाद डेढ़ सौ तक पहुंच जाती थी। वहीं अब एक वक्त में मुश्किल से पंद्रह-बीस लोग ही नमाज़ पढ़ने आते थे। वह भी लड़खड़ाते बूढ़े लोग...! नमाज़ पढ़ना अब जिनकी ज़रूरत से ज्यादा आदत बन चुकी थी। सारा नौजवान तबका न जाने कहां गुम हो गया था...! 


शायद जब कोई सर्वमान्य रहबर नहीं होता है तो लोग अपने रास्ते से भटक जाते है...! चाहे वह सही ही क्यों न हो। उन्हें फिर से रास्ते पर लाने के लिए एक रहबर चाहिए होता है। ऐसा रहबर जो उनमें से ना हो। उनसे बेहतर और जानने वाला हो। जो बोलता हो और लोग उसे सुनते हो। मोहतमीम साहब भी उन दिनों इसी उधेड़बुन में थे कि ऐसा रहबर कहां से लाए...? अपनी इस परेशानी को लेकर वह कई बार मरकज़ (शहर की सबसे बड़ी मस्जिद) के इमाम से भी मिल चुके थे। शहर-ए-इमाम ने उन्हें आश्वासन दिया था कि वह जल्दी ही उनकी मस्जिद में कोई अच्छा इमाम भेज देंगे। लेकिन जब इस बार भी उन्हें पहले वाला ही जवाब मिला तो उन्होंने लगभग गुस्से भरी अपनी चीख को दबाते हुए कहा था, “कब भेज देंगे...? जब हमारी मस्जिद खुदा के घर की जगह जंग का मैदान बन जाएगी... तब...?”


शहर-ए-इमाम के ऊपर मोहतमीम साहब की इस चेतावनी ने असर कर दिखाया। उन्होंने अपनी ऐनक को नाक पर ऊपर खींचकर साफ आंखों से मोहतमीन साहब के लाल कांपते चेहरे को देखते हुए कहा, “कल शाम तक तुम्हारी मस्जिद में नया इमाम पहुंच जाएगा।”
मोहतमीम साहब जब मरकज़ से लौटे तब असर की नमाज़ (दिन का तीसरा पहर) का वक्त हो चला था। वह घर जाने की बजाय सीधे मस्जिद गए और वुजू करके नमाज़ अदा की। नमाज़ पढ़ने के बाद जितने लोग वहां मौजूद थे उन सब को मुखातिब करके उन्होंने कहा, “कल हमारी मस्जिद में नए इमाम साहब आने वाले है।” 


इसके बाद उन्होंने यही बात मगरिब, इशा और अगले दिन की फज़र (सुबह) और जोहर (दोपहर) की नमाज़ में भी दोहराई। मोहतमीन साहब ने सोचा था कि इमाम साहब मगरिब या फिर उसके बाद आएंगे। लेकिन वह तो असर की नमाज़ से पहले ही आ गए थे। उनके आने के बाद वक्त पर अज़ान हुई थी। इससे नमाज़ी भी जमात से पहले ही आ गए थे। ओर जब जमात खड़ी हुई तो पूरी दो सफ़ भरी थी। यानी तकरीबन साठ नमाज़ी। मोहतमीन साहब को इससे कितना सुकून मिला था... यह तो बस वही जानते थे। 


नए इमाम साहब आए थे और जम भी गए थे। अज़ान भी वक्त पर होने लगी थी और जमात भी। नमाज़ी भी बढ़ने लगे थे। लेकिन इमाम साहब भी क्या थे... चुस्त गठीला बदन। लाल रंगत लिए एकदम साफ चमकता चेहरा। उस पर सियाह-सीधी दाढ़ी। सीधे दांत और सुर्ख़ लाल-तर होंठ। मानो फरिश्ता। मोहतमीन साहब ने जब उन्हें पहली बार देखा था तो यही कहा था। ओर आवाज़... आवाज़ भी क्या थी उनकी... कि चलने वाले सुनकर रुक जाए... रुके हुए बैठ जाए और बैठे हुए खोए जाएं। ऐसे आवाज़ थी उनकी। जब उन्होंने मस्जिद में अपने पहले जुमे में बयान किया था और खुत्बा पढ़ा था तो न जाने कितने लोग सुबक-सुबक कर रोने लगे थे। जुमे के बाद कई लोगों ने मोहतमीन साहब को पकड़-पकड़कर कहा था, “क्या वाकई इमाम साहब इंसान है...! मुझे तो कोई फरिश्ता लगते हैं... मैंने आज तक किसी ऐसे इंसान को नहीं देखा... और न ही ऐसी आवाज़ सुनी है!”  


नए इमाम साहब की पढ़ाई, उनका तरीका और लोगों से उनकी तारीफ सुनकर मोहतमीम अंदर-अंदर खुश हुए थे। साथ ही उन्हें इमाम साहब से एक उम्मीद भी बंधी थी... अपनी बीमार बेटी के ठीक होने की उम्मीद।
मोहतमीम साहब की बेटी पर जिन्नातों का असर था। इसीलिए रात को सोते-सोते उसके हाथ-पैर ऐंठ जाते थे और आँखें उलट जाती थी... उनसे आँसूओं की तरह पानी बहने लगता था। वह भी इस कद्र कि उसके दोनों कानों के गड्ढे भर जाते और फिर वहां से चू-चू कर तकिया भीगोने लगते। मोहमीम साहब ने उसका बहुत इलाज कराया। आस-पास के किसी नीम-हकीम, आलिम-हाफिज़ और पीर-फकीर को नहीं छोड़ा जिससे उन्होंने अपनी बेटी को न दिखाया हो। लेकिन किसी के भी तागे, तावीज़ों और दुआओं में इतनी ताकत नहीं मिली जो उसे उन जिन्नात से निजात दिला सके। हमने बहुत से झाड़-फूंक करने वालों को उनके यहां जाते देखा है... लेकिन उनके पढ़े हुए पानी और लिखे हुए तावीज़ों का हफ्ते भर से ज्यादा असर नहीं रहता है।    
इमाम साहब को ये सारी बातें मोहल्ले वालों से पता चली थी। इसलिए जब उस दिन मोहतमीम साहब घबराए हुए उनके पास आए और अपने घर चलने के लिए कहा तो इमाम साहब को जरा भी हैरानी नहीं हुई थी।


मोहतमीम के घर प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठे हुए उन्होंने उनकी बेटी को देखा था। जिसकी बड़ी खुली आंखें छत को घूर रही थी और उनसे आँसूओं की शक्ल में लगातार पानी बह रहा था। उसके हाथ ऐंठे हुए थे और उनकी उंगलियों ने अपनी पूरी ताकत के साथ चादर को अपनी गिरफ्त में ले रखा था। इमाम साहब ने अपने दाएं हाथ से उसकी खुली आंखों को बंद किया... उसके भीगी चेहरे को साफ किया और कसकर पकड़ी चादर को उसकी पतली-लंबी उंगलियों की गिरफ्त से छुड़ाकर उन्हें अपने बाएं हाथ में थाम लिया। उन्होंने अपने दाएं हाथ को उसके लाल तवे की तरह तपते माथे पर रखा। फिर होंठों ही होंठों में कुछ बुदबुदाया और उसके ऊपर तीन बार फूंका। इसके बाद उन्होंने उसका हाथ छोड़ दिया और खड़े होकर मोहतमीम साहब से कहा, जो वहीं खड़े हुए थे, “आप फिक्र न करे... इंशाअल्लाह ये जल्दी ही ठीक हो जाएगी... मुझे लगता है कि इन्हें बुखार है... आप किसी डॉक्टर को बुला ले”, इतना कहकर वह वहां से चले आए। 


इसके बाद वह बहुत बार मोहतमीम साहब के घर गए थे... उनकी बेटी को देखने! ओर हर बार उन्होंने उसकी लंबी-पतली उंगलियों को अपने हाथों में पकड़ा था... उसकी उन बड़ी आंखों में झांका था जिन्हें उन्होंने पहले दिन अपने हाथ से बंद किया था... और उसके माथे को भी छुआ था जो पहले दिन लाल तवे की तरह तप रहा था लेकिन फिर वह उन्हें बर्फाफ की तरह ठंड़ा और सुकूनदायक महसूस होता था...। वह हर बार उसे तीन बार फूंकते और हर बार ही एक तावीज़ भी दिया करते थे... पीने के लिए। 


फिर वह आखिर बार उसे देखने गए थे। पर उस दिन उन्होंने न तो उसकी लंबी उंगलियों को पकड़ा था और न ही उसके माथे को छूकर उसके ऊपर तीन बार फूंका था। उन्होंने बस उसकी बड़ी आंखों में झांका और एक आख़िरी तावीज़ देकर वह वहां से चले आए थे।
वह दिन भी आम दिनों की तरह ही था। लेकिन उसकी शाम बहुत भयानक और डरा देने वाली थी। दिन ढलने से पहले ही काले बादलों ने सूरज को ढक लिया था और मंद-मंद चली रही हवा ने प्रचंड रूप धारण कर लिया था। पेड़ अपने तीव्र गति से लहलहाते पत्तों की दिशा में झुकने और झूमने लगे थे। काले बादलों में आड़ी-तिरछी बिजली चमकने लगी थी और फिर उन्होंने बरसना शुरु कर दिया। अपनी पूरी ताकत के साथ। बीच-बीच में वह दहाड़ने लगते... वह भी इस तरह कि दिल कांप जाता। ऐसा लगता जैसे वह अभी फट पड़ेंगे और पूरी दुनिया को अपने अंदर समा लेंगे। 


आधी रात बीत चुकी थी... ओर अभी भी बारिश लगातार हो रही थी। बीच-बीच में वह कुछ कम होती। लेकिन फिर दोगुनी गति से बरसने लगती। ऐसा लगता जैसे वह अपनी पिछली कुछ पलों में हुई कमी को पूरा कर रही हो। बारिश की यह दोगुनी गति इमाम साहब की मुसीबत को बढ़ा रही थी और उनके मन में नए-नए शंकाओं को जन्म दे रही थी। वह सड़क की ओर खुलती अपने हुजरे (मस्जिद में इमाम साहब के रहने के लिए बना कमरा) की इकलौती खिड़की को खोले अभी तक जाग रहे थे। उन्हें नींद नहीं आ रही थी। आती भी कैसे? जब वह खुद ही सोना नहीं चाह रहे थे। 


वह कभी किताब खोलकर पढ़ने लगते। कभी हुजरे में टहलने लगते... तो कभी खिड़की के पास आकर खड़े हो जाते... और वहां से बारिश में भीगते अंधेरे में गुम मोहल्ले को देखने लगते। वह वहां कुछ ही पल खड़े होते और तभी हवा के बहाव के साथ बारिश का झोंका आता और उनके पूरे चेहरे को तर कर जाता। वह वहां से हटते और फिर से बिस्तर में आकर बैठ जाते। वह किताब के पन्ने पलटने लगते और जब बारिश के शोर से दूर एक खामोशी उनके आस-पास पसर जाती तो उन्हें घंटे की सेकेंड वाली सुई की टक-टक सुनाई देती। वह घंटे को देखते और हर लम्हें के साथ खिसकती उसकी तीनों सुई उनके दिल की धड़कनों को बढ़ा देती। वह मन ही मन बारिश के रुकने की दुआ करने लगते। लेकिन फिर बैचेन होकर उठ खड़े होते और टहलने लगते... वह फिर बारिश की गति देखने खिड़की के पास जाते और वहां फिर एक ताजा झोंका उनके चेहरे को तर कर देता।


देर से ही सही, लेकिन सच्चे दिल से मांगी गई इमाम साहब की दुआ रंग दिखाने लगी। दो बजे के बाद बारिश धीरे-धीरे कम होने लगी और फिर रुक गई। काले बादल छितरा गए और साफ नीले आसमान पर आधे से ज्यादा चमकदार चांद निकल आया। उसकी रोशनी में मस्जिद के सामने खड़े पीपल के पेड़ के धुले चौड़े पत्ते चमचमाने लगे। और उनकी चमचमाहट के बीच ही दूर... मस्जिद के सामने वाली गली के आखिरी सिरे के किसी घर की मुंडेर पर एक दिया रोशन हुआ।


इमाम साहब ने दिए की रोशनी को देखकर एक सुकून की सांस ली। वह खिड़की के पास से हटे और एक कोने में खड़े होकर पूरे हुजरे का मुआयना करने लगे... कोई जरुरी सामान लिए बिना छुट तो नहीं गया। फिर वह अपने बैग को चेक करने लगे और इसी दरमियान मस्जिद के दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी। कुंडी खट-की... इमाम साहब के हाथ जहां के तहां रुक गए... वह नीचे उतरे... मस्जिद से बाहर झांका और फिर दो परछाई चांद की रोशनी में गीली सड़कों पर गुम हो गई।


घर के काम बिगाड़ा और मस्जिद में गुजारा... करने वाले हाजी अशरफ ने गर्म बिस्तर में लेटे-लेटे ही तकिये के नीचे से निकालकर जब अपनी मिचमिची आंखों से हाथ घड़ी को देखा तो वह छः बजा रही थी, “कमाल हो गया... छः बज गए और अभी तक किसी ने अज़ान ही नहीं पढ़ी”, वह खुद से ही बुदबुदाएं और बिस्तर से निकल पड़े।
मस्जिद का दरवाज़ा खुला हुआ था। वह सीधे ही अंदर चले गए और इमाम साहब को पुकारा, “मोलाना!” लेकिन कोई आवाज़ नहीं आई। उन्होंने फिर पुकारा और फिर लाजवाब। हाजी अशरफ ने अपनी जूतियां उतारी और हुजरे में चले गए। लेकिन वहां कोई नहीं था। सब चीज़े करीने से रखी हुई थी। बिस्तर भी लगा हुआ था। उन्होंने हुजरे से निकलकर पेशाब घर और बैतुलखला (पखाना) में देखा तो वह भी खाली पड़े हुए थे।


सुबह में जितनी तेजी से कंपकंपी पैदा करने वाली बारिश में भीगी रात की ठंड़ी हवा चल रही थी उतनी ही तेजी से दिमाग को सवालों से भर देने वाली गरमा-गरम बहसें हो रही थी। सूरज की पहली किरनों के साथ लोग मस्जिद के आगे जमा होने लगे और उसकी बढ़ती गर्मी के साथ ही उनकी संख्या भी बढ़ती गई। बड़ा गहमा-गहमी भरा माहौल था। हर कोई बोल रहा था। लेकिन सभी के सवाल लगभग एक जैसे थे, “मोलाना कहां गए? क्या वह बिन बताए चले गए? पर हमने तो उनसे ऐसा कुछ कहा ही नहीं? ओर अगर जाना ही था तो बताकर जाते?”


इमाम साहब के चक्कर में लोग उस दिन की सुबह की नमाज़ पढ़ना भी भूल गए। तभी किसी ने कहा कि मोहतमीम साहब की जिन्नातों वाली बेटे भी घर पर नहीं है। इतना सुनते ही मस्जिद के सामने का सारा मजमा मोहतमीम साहब के घर के बाहर जाकर जमा हो गया। मोहतमीम साहब सिर झुकाए उस आखिरी तावीज़ को अपने हाथ में लिए बैठे थे जो इमाम साहब ने उनकी बेटी को पीने के लिए दिया था। उस पर उर्दू में लिखा था, “आज रात चलना है।”


“अरे मैंने तो पहले ही कहा था कि ये मोलाना लोग बहुत बदमाश होते है। जैसा दिखते हैं वैसे ये होते नहीं”, किसी ने सबको सुनाते हुए कहा था।
“बिल्कुल सही कहा”, दूसरे ने उसकी बात की पुष्टि करते हुए कहा, “ये दाढ़ी के पीछे शिकार खेलते है। इसलिए इन पर कोई शक भी नहीं करता।”
“वो तो उसके जिन्नातों को भगाना आया था... ओर खुद ही उसे लेकर भाग गया। क्या बात है? क्या मोलानाओं के अंदर से भी खौफ-ए-खुदा खत्म हो गया!” पीछे से कोई आवाज़ आई।


“अरे खुदा से तो हम तुम डरते   हैं ... मोलाना लोग नहीं। खुदा का खौफ दिखाकर ही तो ये हमे बेवकूफ बनाते   हैं । हम मेहनत मजदूर भी करे तो गुनाहगार... ओर ये डाका भी डाल ले तो इनसे कोई सवाल जवाब नहीं!” किसी ने गुस्से भरी आवाज़ में कहा था।


ओर फिर हाजी अशरफ ने एक शांत और गंभीर आवाज़ में कहा, “भाई मैंने तो पहले ही कहा था कि जवान और कुआंरे मोलानाओं को मस्जिद में नहीं रखना चाहिए...। पर हमारी कौन सुनता है ? सब सोचते  हैं बुढ़ा है, बड़बड़ाकर चुप हो जाएगा। अब कर गया ना कांड। भुगतते रहो।”   



संप्रति- रेख़्ता (ए उर्दू पोएट्री साइट) में कार्यरत।
मोबाईल- 07065710789
786shahadatkhan@gmail.com
दिल्ली में निवास।

रविवार, 14 मई 2017

कहानी : तोता का बर्थ डे - सैनी चौहान






       अपनी मां को सरप्राइज करने के लिए पांच वर्षीया सैनी चौहान ने यह कहानी लिखी है । यह कहानी स्कूल की पत्रिका भाविशा में छपने के लिए स्वीकृत भी हुई है। मातृ दिवस पर प्रस्तुत है यह छोटी सी कहानी तोता का बर्थडे


                                                 चित्र : कु0 दामिनी
      एक जंगल में बहुत सारे जानवर एवं पक्षी रहते थे। वे आपस में एक दूसरे से बहुत प्रेम करते थे । एक दिन एक  तोता ने अपने बर्थ डे में जंगल के बहुत सारे जानवरों एवं पक्षियों को बुलाया । उस दिन जंगल में चारो ओर खुशियां ही खुशियां  छायी थी। तोता ने पार्टी में अपने दोस्तों को लाल लाल मिर्ची खाने को दिया। कुछ दोस्त लाल पीले हो गये और कुछ तो वहां से जाने भी लगे । तभी तोता की मम्मी आई और सबसे मांफी मांगी । और वह उनके उनके पसंद का फल - फूल एवं कंद - मूल खिलाकर प्रसन्न किया। सभी खुशी - खुशी नाचने लगे । फिर क्या था हैप्पी बर्थ डे की आवाज से सारा जंगल गूंज उठा।

संपर्क - सैनी चौहान
कक्षा  - प्रथम
एस0 बी0 बी0 बी0 वी0 एस0 पब्लिक स्कूल , पौड़ीखाल
टिहरी गढ़वाल , उत्तराखण्ड 249121

सोमवार, 1 मई 2017

अमरपाल सिंह ‘ आयुष्कर ’ की कविताएं




       दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान ,कादम्बनी,वागर्थ ,बया ,इरावती प्रतिलिपि डॉट कॉम , सिताबदियारा ,पुरवाई ,हमरंग आदि में  रचनाएँ प्रकाशित
2001  में  बालकन जी बारी संस्था  द्वारा राष्ट्रीय  युवा कवि पुरस्कार
2003   में बालकन जी बारी संस्था   द्वारा बाल -प्रतिभा सम्मान 
आकाशवाणी इलाहाबाद  से कविता , कहानी  प्रसारित
‘ परिनिर्णय ’  कविता शलभ  संस्था इलाहाबाद  द्वारा चयनित


मजदूर दिवस पर प्रस्तुत है अमरपाल सिंह ‘ आयुष्कर ’ की कविताएं

                                                          चित्र गूगल से साभार

1-शायद..!

आओ ! कुछ पल यूँ भी गुजारें
किन्ही कर्मरत खुरदुरे  हाथों  को
बाँध हथेलियों में अपनी
उसके कुछ दर्द भुला दें
ठंढे चूल्हे की सहमती साँसों में
सुलगा दें , थोड़ी जीवन-बयार
साँझ, थके -हारे लौटते
खाली झोले से बाप के
प्रश्न करते मासूम चेहरों को दुलरा,
लें थोड़ा निहार 
बचा लें जलने से ,टूटने ,गलने से
आँखों की भट्ठियों में सिंकती
बनती – बिगड़ती , रोटियों की तस्वीर
देखा जिन आँखों ने स्वप्न में
या सुन रक्खी किसी की जुबानी 
बचाते हुए सूखती हलक का पानी
सोचते हैं सिर्फ,
कुछ स्वादों की ताबीर
उबलते दूध में
चावल और थोड़ी - सी चीनी डालने से
शायद ........
बन जाती है खीर |

2- मैं श्रम हूँ !

मैं श्रम हूँ
अनवरत चलतीं  मेरे हाथों की रेखाएं
बदलने को अनगिनत
जड़ हो चुकी परिभाषाएं
सही अर्थों में गिराते हुए पसीने की धार
दिख जाता हूँ मुस्कुराता, हाल - बेहाल
कहीं गोदान का होरी , कहीं हजारीपाल #
टूटता नही जो प्रकृति के कोप से
घिघियाता नही जो सुखों के लोप से
तलाश लेता हूँ बुझी राखों से
चिंगारियों की खेप
जीवन क्रम हूँ
मैं श्रम हूँ
पूजता हर मन ,सृष्टि का कन- कन
समिधा -सा परमार्थ में जल जाता हूँ
कुचला ,छला ,तोड़ा, बिखेरा मन द्वार
फिर भी उठ जाता हूँ बार - बार
लिए संभावनाएं अपार
सम्पूर्ण जगत का उठाये भार
मत समझना  भ्रम हूँ
मैं श्रम हूँ |
#
(सिटी ऑफ़ जॉय फिल्म का एक किरदार )
 3-कुल्हड़ 

सोख लेता अतिरिक्त पानी
गढ़ने को चाय का स्वाद
सोंधी फुहार लिए
होंठों पर झूमता
कुम्हार की चाक बैठ
ज़िन्दगी -सा घूमता
हर थाप पर संवारता
अपना स्वरुप
पंक्तियों में सजा खूब , गंठियाता धूप 
अग्निशिखा में बन कुंदन  रूप
आओ ! किसी दिन ढाबे पर बैठ
दूर तक उड़ेली हरीतिमा को
आँखों से पियें
बादलों की रुई भरकर हाँथों में ,
खेत निहारते माटी के लाल – सा
नंगे पाँवों धरती को छुएं 
आओ कभी कुल्हड़ में चाय पियें !
कुम्हार के श्रम को चूमते हुए
माटी की पावन सुगंध, जियें |


संपर्क-
अमरपाल सिंह ‘ आयुष्कर ’  
खेमीपुर, अशोकपुर , नवाबगंज 
गोंडा , उत्तर - प्रदेश
मोबाईल न. 8826957462     
mail-  singh.amarpal101@gmail.com

रविवार, 30 अप्रैल 2017

नरेंद्र सैनी की कहानी : मासूम माशूक


मजदूर दिवस की पूर्व संध्या पर 200 वीं पोस्ट के रुप में प्रस्तुत है नरेंद्र सैनी की कहानी : मासूम माशूक

 
       “ऋषि तुमसे कितनी बार कहा है, ऐसा मजाक नहीं करते. तुम मुझ से कितने छोटे हो और फिर भी ऐसी बातें, गंदी बात है.”
“तुम मुझे गलत समझती हो पूनम दीदी...”
“क्या बकवास है? तुम समझते क्यों नहीं हो? एक तरफ मुझे दीदी कहते हो और दूसरी तरफ ऐसी बकवास?”
“मैं क्या राजू, दिनेश, मुकेश और सभी तो तुम्हें दीदी कहते हैं?”
“शायद तुम्हारी बहन नहीं है तो तुम क्या जाने रिश्तों के मायने...चलो भागो यहां से बदतमीज...”
“मैं नहीं जाऊंगा.”
“जाते हो या कहूं तुम्हारी मम्मी से.”
मम्मी का नाम सुनते ही ऋषि डर गया और एकदम चुप हो गया. पूनम उसे झिड़कते हुए हुए जैसे ही उठने लगी तो ऋषि बोला, “मैं तुमसे कान में कुछ कहना चाहता हूं. प्लीज मेरी बात सुन लो.”
ऋषि के इस तरह मान-मनौवल करने पर पूनम पसीज गई और परेशान होकर बोली, “कहो.”
ऋषि धीमे से पूनम के कान की ओर गया और उसके गाल को चूमकर भाग गया. पूनम का दिमाग घूम गया. लेकिन फिर से 10 साल के ऋषि की इस बचकानी हरकत पर हंसी आ गई. वह इसे उसकी नादानी समझ घर की और चल दी.
*****
यह एक दिन की बात नहीं थी. रोज का किस्सा था. ऋषि अकसर पूनम को अपनी दुल्हन बनाने की बात कहता और उसकी बात सुन कभी पूनम खीज जाती तो कभी हंसकर टाल देती. वह इस सब से तंग आ चुकी थी. अकसर ऋषि इसी तरह की उलटी सीधी बातें करता. 
यह किस्सा उस दिन से शुरू हुआ जब ऋषि की चहेती मिट्टी की गुड़िया टूट गई थी. उस समय ऋषि की उम्र यही 7 साल रही होगी. वह खाते-पीते, सोते-जागते हर पहर उस गुड़िया को अपने पास रखता था. मम्मी-पापा उसे कहते की यह तुम्हारी दुलहनिया है जो हरदम इसे अपने साथ रखते हो. यही नहीं, मोहल्ले के कई बड़े लोग भी इसे लेकर ठिठोली करते. लेकिन एक दिन वह गुड़िया उसके हाथ से छूटी और चकनाचूर हो गई. उसने आसमान सिर पर उठा लिया.
अक्सर जैसा मध्यवर्गीय मोहल्लों में होता है, वैसा ही हुआ. पूरा मोहल्ला वहीं इकट्ठा हो गया. सभी पूछने लगे कि क्या हुआ है? तो माजरा सामने गुडिया का आया. कुछ लोग मुस्करा के चले गए तो कुछ ने कई तरह के प्रलोभन ऋषि को देने की कोशिश की. लेकिन उसने तो हंगामा काट दिया था और वह किसी की बात सुनने को तैयार ही नहीं था. उसका गला बैठ गया था, और वह लगातार रोये जा रहा था. जमीन पर लेटा हाथ-पैर मार रहा था, और जिद यही कि मुझे ऐसी ही गुड़िया चाहिए.
ऋषि के इस तमाशे को देखने के लिए बच्चों की भीड़ भी वहां जुट चुकी थी. तभी ऋषि की मम्मी की नजर सामने खड़ी पूनम पर गई तो उन्होंने प्यार से उसे बुलाया. 15 साल की पूनम चुपचाप से उनकी और चली आई. उसने मिडी पहन रखी थी और बाल खुले थे और घुंघराले थे. आंखों में चमक थी और चेहरा चाँद जैसा था. मां ने बड़े ही प्यार से कहा, “देखो, पूनम भी तो गुड़िया जैसी है. सुनो लल्ला, तुम इसे ही अपनी गुड़िया मान लो...जब बड़े होगे तो इसे तुम्हारी दुलहनिया बना देंगे.”
ऋषि की मम्मी ने पूनम की और देखते हुए कहा, “क्यों बिटिया बनोगी न लल्ला की दुलहनिया.” और इशारा कर दिया कि हां में जवाब दे.
पूनम ने हां में सिर हिलाया और बड़े प्यार से ऋषि के गाल को चूमा और बोली, “चुप हो जाओ ऋषि रोते नहीं...”
ऋषि को न जाने क्या हुआ और वह एकदम से चुप हो गया. और वह कुछ समय तक यूं ही पूनम का हाथ पकड़कर बैठा रहा. न जाने वह क्या बात थी, जिसने ऋषि को एकदम खामोश कर दिया था. वह बस पूनम का चेहरा देखता रहा.
बस इस दिन के बाद से वह चौबीसों घंटे पूनम के चक्कर काटता और उसे अपनी दुलहन बनाने की बात कहता. गाहे-बगाहे पूनम के पास पहुंच जाता और घंटों उसे देखता रहता. उसे अपने साथ खेलने के लिए कहता, वह मना करती तो जिद करता.
कभी बातें करने की कोशिश करता तो कभी हाथ पकड़कर बैठ जाता. पूनम के एग्जाम चल रहे होते तो वह उसे टरकाने की कोशिश करती. लेकिन हर दिन के साथ ऋषि का पूनम को लेकर जुनून बढ़ता ही जा रहा था. पूरा मोहल्ला अब उसकी फिरकी लेने लगा था.
*****
दिन बीतते गए. ऋषि के पूनम मोह में रत्ती भर भी कमी नहीं आई, बल्कि दिन दोगुनी और रात चौगुनी रफ्तार से बढ़ने लगा था. काफी समय गुजर गया था और ऋषि अपने जीवन के सत्रह साल देख चुका था. लगभग छह फुट, गेहुंआ रंग. कसरती बदन वाला ऋषि हैंडसम युवक बन चुका था. ऐसा युवक जिस पर कई लड़कियां जान छिड़कती थीं. लेकिन उसकी रग-रग में सिर्फ पूनम ही बसती थी.
उधर, 26 साल की पूनम भी गजब की थी, और उसकी सुंदरता में हर दिन के साथ इजाफा ही हुआ था. अक्सर लंबे कुर्तों और चूड़ीदार या जीन्स में दिखती. अपना एमबीबीएस खत्म कर चुकी थी, और अब वह एक प्राइवेट अस्पताल में काम कर रही थी.
हालांकि ऋषि पहले से समझदार हो गया था. अब बात करने का उसका अंदाज भी काफी बदल गया था. उसकी बात में संजीदगी आ गई थी. अक्सर जब पूनम छत पर बैठी पढ़ रही होती तो ऋषि तब तक अपनी छत पर बैठा रहता, और उसी को निहारता रहता. पूनम आज भी उसे वही छोटा ऋषि मानती थी. वह शरीर से जितना बलिष्ट लगता हृदय से उतन ही सुकुमार था. हर बात दिल से सोचना, और मोहल्ले में उसे किसी ने ऊंची आवाज तो छोड़े दो नजरें उठाकर चलते हुए भी नहीं देखा था. मोहल्ले के गेट पर खड़े लड़कों के साथ वह कभी नजर नहीं आता. अक्सर अपनी किताबों या पूनम के साथ अपनी दुनिया में घूमता रहता.
वह अकसर पूनम से मिलने के मौके तलाशता. वही बात उसकी जुबान रहती लेकिन उसकी बात कहने का अंदाज बदल गया था. वह अकसर उसके घर जाता और अकेले में मिलता तो कुछ नहीं कहता. लेकिन उसकी आंखों में इश्क की आग साफ नजर आती थी. वह पूनम से खूब बातें करता. पूनम भी उससे बात करती लेकिन वह जल्द से जल्द बात को खत्म करना चाहती क्योंकि वह जानती थी कि उसकी बात आखिर में उसी किस्से पर खत्म होगी. आखिर में वह यही कहता, “पूनम, आइ लव यू...प्लीज मेरा इंतजार करना...मेरी ही दुलहन बनना.”
सब कुछ ढर्रे पर चल रहा था, और ऋषि की बारहवीं हो चुकी थी और अब वे इंजीनियरिंग में दाखिला लेने जा रहा था. एक दिन उसे अपनी मां से पता चला कि पूनम की शादी की बात चल रही है. हालांकि पूनम अभी शादी नहीं करना चाहती है लेकिन कोई अच्छा लड़का मिल रहा है, जो दिल्ली में ही डॉक्टर था और उसका अपना क्लिनिक था.
ऋषि का पूरा वजूद ही हिल गया था. इसके बाद से उसे पूनम से बिछुड़ जाने का डर सताने लगा. वह पूनम से अकेले मिलने के मौके तलाशने लगा. एक दिन अचानक घर की बेल बजी तो ऋषि ने दरवाजा खोलने गया तो उसके सामने पूनम थी. उसे समझ नहीं आया कि वह करे. वह उसे ही देखने लगा लेकिन पूनम ने उसको ख्यालों की दुनिया से बाहर लाने का काम किया. वह बोली, “आंटी है क्या...उन्होंने मॉम से यह मेडिसिन मंगाई थी, वह उन्हें दे देना.”
ऋषि ने कहा, “मम्मी घर पर नहीं है.”
यह सुनकर पूनम वापस जाने लगी, लेकिन ऋषि बोला, “प्लीज रुक जाओ न. मैं तो हूं.”
“नहीं चलती हूं मैं. मुझे आंटी से काम था.”
“प्लीज रुक जाओ...”
ऋषि पूनम के इश्क में इस तरह डूबा हुआ था कि कभी वह किसी से तेज आवाज में बोला नहीं. हर किसी से बहुत तमीज से पेशा आता, और उसके नेचर में बहुत ही सॉफ्टेनेस आ चुकी थी.
पूनम ने जवाब दिया, “मैं रुकूंगी तो तुम्हारी पुरानी रट चालू हो जाएगा?”
बाहर धीमे-धीमे हो रही बूंदाबांदी अब तेज बारिश में तब्दील हो चुकी थी. ऋषि ने इस बारिश की दुहाई दी. न जाने क्या सोचकर पूनम रुक गई. वह जानती थी अगर इस तरह वह चली गई तो ऋषि को वाकई काफी बुरा लगेगा. बेशक, वह ऋषि से प्यार नहीं करती थी लेकिन वह उससे नफरत भी नहीं करती थी.
वह वहीं सोफे पर बैठ गई और बाहर खिड़की के कांच पर पड़ रही बारिश की बूंदों को देखने लगी. ऋषि ने उसी ओर देखा जहां उसकी आंखें देख रही थीं. ऋषि बोला, “देखो यह बूंदें किस तरह खिड़की के कांच पर गिर रही हैं. उस कांच के साथ सटकर नीचे तक जा रही हैं, और फिर उसके बाद हर बूंद अपना अस्तित्व खोकर एक धार में तब्दील हो जाती हैं. उसी तरह मैं तुम्हारे प्यार में डूबकर तुममें जज्ब हो जाना चाहता हूं. मैं चाहता हूं मेरी पहचान तुम्हारे साथ हो...” वह आकाश से बरसती तेज बूंदों की तरह बरसा जा रहा था, और उसके शब्द पूनम को सूखी धरती की तरह भिगोए जा रहे थे. शब्दों की तेज धारा में बहे जा रही थी. यह पहली बार था, जब पूनम खुद को कमजोर महसूस कर रही थी. कुछ तो ऐसा था तो जो उसे वहां से उठने नहीं दे रहा था.
ऋषि कुछ देर के लिए रुका और फिर बहुत धीमे से बोला, “क्या तुम्हारी शादी पक्की हो गई है...???”
पूनम खामोशी से अब भी खिड़की से बाहर देख रही थी. वह ऋषि की आंखों में नहीं देखना चाहती थी.
ऋषि के लिए उसकी खामोशी बर्दाश्त से बाहर हो रही थी. वह बोला, “पूनम भगवान के लिए बताओ क्या यह सच है?”
“हां, ऋषि शादी की बात चल रही है. बस, अब मुझे जाने दो.” पूनम उठकर जाने लगी तो ऋषि ने उसका हाथ पकड़ लिया. पूनम के शरीर में हजारों वोल्ट का करंट दौड़ गया. वह फिर सोफे पर धंस गई.
“नहीं पूनम ऐसा नहीं हो सकता. ऐसा कैसे हो सकता है. तुम ऐसा कैसे कर सकती हो. मैं तुमसे प्यार करता हूं. मैंने आजतक तुम्हारे अलावा कुछ नहीं चाहा. कुछ नहीं सोचा. बेशक मानता हूं वह बचपन का एक दिलासा था लेकिन मैं क्या करूं वह दिलासा मेरा सहारा बन गया. मैंने तुम्हारे अलावा किसी लड़की का ख्याल नहीं किया और न ही किसी के बारे में सोच सकता हूं. तुम ही मेरी शुरुआत और तुम ही मेरा अंत हो. प्लीज मेरी फीलिंग्स को समझो यार!!!”
“ऋषि मैं दस साल से यह बातें सुनती आ रही हूं. यह ठीक नहीं है...मैच्योर बनो यार. अब इस सब को खत्म करो...तुमने सही कहा वह एक दिलासा था.”  
“पूनम यह तुम्हारे लिए दिलासा हो सकता है. मेरी जिंदगी है. मैं उम्र के इस अंतर को नहीं मानता. मैं सिर्फ एक बात जानता हूं वह है तुमसे इश्क...”
“तुम कुछ भी कह सकते हो लेकिन मैंने तुम्हे कभी इस नजर से नहीं देखा. मेरी भी कुछ जिंदगी है. तुम जबरदस्ती मेरी जिंदगी में दखल क्यों देना चाहते हो...मैं खामोश रहती हूं ताकि तुम्हारी भावनाओं को चोट न पहुंचे...लेकिन तुम नहीं समझते...मेरी पर्सनल लाइफ के बारे में तुम क्या जानते हो? कुछ नहीं...सिर्फ यही जानते हो कि मैं तुम्हारी गुड़ियां हूं...व्हाट इज दिस...”
“क्या तुम किसी और से इश्क करती हो?”
“दैट इज नन ऑफ योर बिजनेस...”
“बताओ न, प्लीज...”
“अगर हां हो तो????”
ऋषि को लगा जैसे उसका दम ही निकल जाएगा. दर्द उसके चेहरे पर नजर आ रहा था. ऋषि बोला, “मैं जानता हूं तुम मुझसे पीछा छुटाना चाहती हो. देखो, थोड़ा इंतजार कर लो...मेरी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी हो जाएगी. अच्छा करियर होगा...और आजकल एज गैप मायने नहीं रखता.”
बातों का सिलसिला खत्म होने का नाम नहीं ले रहा था. लेकिन ऋषि भी हारने का नाम नहीं ले रहा था. जब पूनम नहीं मानी तो उसने आखिर में बात खत्म करते हुए कहा, “पूनम देखो मुझे सिर्फ पांच साल का समय दे दो. मैं तुम्हारे लायक बनकर दिखाऊंगा. लेकिन एक बात याद रखना...अगर तुम मेरी नहीं हो सकी तो मैं ऐसा करूंगा तुम तो क्या दुनिया का कोई शख्स उस बारे में नहीं सोच सकता.”
पूनम गहरी सोच में डूब गई थी. उसे ऋषि नॉर्मल होता नहीं नजर आ रहा था. उसने कुछ सोचा और बोली, “चलो अपनी पढ़ाई में मन लगाओ और करियर बनाओ. इस बीच मैं तुम्हारी बात पर सोचूंगी.”
ऋषि के चहरे पर मुस्कान दौड़ गई. वह बोला, “मुझे बहलाना मत...वर्ना जो मैंने कहा है वह धमकी नहीं है...सच है.”
“हां, बाबा याद है.” यह कहकर पूनम घर से निकल गई.
*****
इस बात को तीन साल गुजर गए. ऋषि की इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी बढ़िया चल रही थी. पूनम की शादी अभी तक नहीं हुई थी, ऋषि खुश था. अब ऋषि पूनम से मिलने पर सिर्फ हाल-चाल पूछता और चलता बनता. अब वह अपनी रिपीट नहीं किया करता था. लेकिन कहते हैं न अच्छे दिन चुटकियां बजाते हवा हो जाते हैं, ऐसा ही कुछ ऋषि के साथ भी हुआ. एक दिन उस पर जैसे किसी ने वज्रपात किया हो. वह कॉलेज से घर लौटा तो पूनम की मां उनके घर कार्ड लेकर बैठी थी और मिठाई का डिब्बा भी था. ऋषि का सिर झन्ना गया. उसने आंटी को नमस्ते कही औऱ वहीं खड़ा हो गया. पूनम की मम्मी उससे मुखातिब होकर बोलीं, “सुनो भई, तुम्हारी गुड़िया की शादी पक्की हो गई है. पंद्रह दिन बाद शादी है. उसके छह महीने बाद तक मुहूर्त नहीं था, इसलिए सब झटपट हो गया.”
वह कुछ नहीं बोला और हल्की-सी दर्द भरी मुस्कान देकर छत की ओर सीढ़ियां चढ़ गया. उसकी आंखों से आंसू बहे जा रहे थे. वह तेज चिल्लाना चाहता था. वहीं वह छत की मुंडेर के साथ सटकर बैठ गया, और पागलों की तरह फूट-फूटकर रोने लगा. उसने मुंह पर हाथ रख रखा था ताकि उसकी आवाज किसी को सुनाई न दे. आंखों से आंसू बहे जा रहे थे. उधर, सामने सूरज अस्त हो रहा था, और पूरा आकाश संतरी रंग से नहाया हुआ था. पक्षियों के झुंड आकाश में उड़े जा रहे थे. अपने ठिकानों को लौटने के लिए. आंखों को अच्छे रखने वाली यह बातें ऋषि के दर्द को और गहरा रही थीं. अस्त होता सूरज उसे उसके कत्ल हुए इश्क के खून के कतरों की वजह से लाल नजर आ रहा था. उसे पक्षियों का शोर अपना मजाक उड़ाते हुए लग रहे थे. जबकि पास ही बिजली के तारों में फंसी बिजली का रुदन उसके दिल को चीरे जा रहा था. उसके आसपास सब कुछ हो रहा था, लेकिन वह बेखबर था...सिर्फ पूनम का चेहरा उसके दिमाग में कौंध रहा था. उसे लग रहा था, जैसे उसका दम निकल जाएगा. लगभग घंटे भर तक वह वहां बैठा रहा, लेकिन नीचे से मां की आवाज आई तो उसने खुद को संभाला और आंखें पोंछी और नीचे जाने लगा. अब सूरज की लालिमा उसकी दर्द भरी आंखों में समा चुकी थी. वह नीचे आया और सीधे अपने कमरे में चला गया.
इस बात को दिन हो चुके थे, और वह कॉलेज से लौट रहा था तो उसे रास्ते में पूनम मिली. उसने उसे मुस्कराते हुए हैलो कहा और बोला, “वादा तोड़ दिया न...मेरी बात भूल गईं...चलों कोई बात नहीं मुबारक हो...”
इससे पहले पूनम कुछ कह पाती, ऋषि आगे बढ़ चुका था. आज ऋषि ने पीछे मुड़कर नहीं देखा था. पूनम खुद से दूर जाते ऋषि को देखे ही जा रही थी. उसके दिल में एक डर बैठ गया था. न जाने यह क्या करेगा?
*****
उस दिन के बाद दोनों की मुलाकात नहीं हुई. शादी का दिन आया तो एक अच्छे पड़ोसी की तरह ऋषि ने पूनम के मम्मी-पापा की पूरी मदद की. सुबह जब पूनम की विदाई का समय आया तो बाकी लोगों के साथ ऋषि भी वहीं खड़ा था. ऋषि की आंखों में दर्द साफ झलक रहा था, लेकिन उसके चेहरे पर मुस्कान भी थी ताकि किसी को उसका दर्द समझ नहीं आ सके. पूनम ने उसकी ओर देखा तो वह मुस्करा दिया. विदा लेते समय पूनम का दिल जोरों से धड़क रहा था. उसे किसी तरह के अनिष्ट की आशंका खाए जा रही थी.
शादी के दूसरे दिन पूनम अपने घर फेरा डालने आई तो उसने घर आकर सबसे पहले ऋषि के बारे मे पूछा. उसकी मम्मी ने बताया कि वह तो कॉलेज गया है. उसकी जान में जान आई. फिर वह ससुराल लौट गई.
कुछ दिनों बात पता चला कि ऋषि के पिता ने वह मकान बेच दिया है, और वे पंजाब के अपने गांव वापस लौट गए हैं. ऋषि होटल में रहने चला गया है. लेकिन कुछ लोग यह भी कहते हैं कि हमेशा खामोश रहने वाले ऋषि ने अपने माता-पिता से कुछ कहा तो घर में हंगामा हो गया और उसकी बात से दुखी होकर उन्होंने शहर को छोड़कर अपने गांव जाने का फैसला कर लिया.
*****
यूं ही ढाई साल गुजर गए. इस दौरान पूनम ने ऋषि के बारे में कई बार जानने की कोशिश की लेकिन कोई संपर्क नहीं हो सका. उसका मोबाइल नंबर भी बंद था. लेकिन एक दिन पूनम को वह खुशी मिली जो हर औरत का सपना होती है. उसके बेटा हुआ. घर में खुशी का माहौल था. पूरे घर में हलचल थी. उसका पति अमेरिका में रहता था. यह वही शख्स था जिससे पूनम इश्क करती थी लेकिन ऋषि खुद को कुछ न कर ले इस डर से उसने कभी उसे इस बारे में बताया नहीं था. विदेश में सैटल होने के इंतजार की वजह से शादी को तीन साल लगे थे.
पूनम बहुत खुश थी कि तभी उसे पता चला कि घर में हिजड़े आए हैं. खूब नाच-गाना हुआ और हिजड़ों को उनकी मनमर्जी के मुताबिक शगुन भी दिया गया. तभी पूनम को बाहर बुलाया गया और पूनम अपने बेटे को लेकर बाहर आई तो हिजड़ों में से एक खूबसूरत-सा हिजड़ा पूनम की ओर आया, और उसने बच्चे को गोद में उठा लिया. वह उसे प्यार करने लगा तो पूनम की नजर उसके चेहरे की ओर गई...उसने पूनम से पूछा, “बेटे का नाम क्या है...” पूनम स्तब्ध थी और उसक हैरत से खुले मुंह से सिर्फ यही निकला, “ऋषि!!!” 

 संपर्क-
 नरेंद्र सैनी
मोबाईल न.  09811721694

मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

कविता : सचमुच कहीं खो न जाऊँ - आयुष चन्द




 













सुदूर तक दृष्टिगत होते 
अनगिनत घर ही घर
कहीं दूर तक फैले विशालकाय
अपनी लम्बी बांहे फैलाये
सुदंरता निहार जिनकी
आंखे फटी रह जाए
कहीं कच्चे साधारण घर
गोबर मिटटी से लिपे पुते
घास की चद्दर से बने
कहीं लकड़ी या टीन से ढके
गरीबों की झोपड़ियों वाले घर
कहीं टपकती छत वाले
कहीं टूटते बिखरते घर
बदसूरत धुंए से काले
पर घरों की इस भीड़ में 
मिलता नहीं कोई मकान,
अगर मिलें भी कोई मकान
होगा वहीं कलह,क्लेश 
और टूटते-बिखरते परिवार
नहीं है कोई सयुंक्त परिवार
कहीं प्यार और शांति नहीं
न जाने क्यों हम सब भावशून्य हो गए
घरों की इस भीड़ में
सचमुच कहीं खो न जायें इन्सान।
संपर्क -
आयुष चन्द
कक्षा 12B
रा 00 का0 गौमुख
टिहरी गढ़वाल , उत्तराखण्ड 249121

रविवार, 9 अप्रैल 2017

कहानी : शेष जो था - अमरपाल सिंह ‘आयुष्कर’




         

    “ सिर्फ साँसों की तपन और होंठों की नमी ज़िन्दगी के कैनवास को सार्थकता नहीं देते प्रीतिका |ये तुम्हारी भूल थी  ....मैं नहीं तुम गुम हुई ,हाथ मैंने नहीं, तुमने  छोड़ा है | मैं तो तुम्हे रिक्तहस्त मिला था | पर ,ना  जाने कितने ज़ख्म, लकीरों के साथ लेकर अलग हुआ |
         तुम्हारी हदें, मेरा शरीर थीं | और मेरी हदें, तुम्हारी आत्मा तक पहुँचना चाहती थीं |मैंने कल्पना भी नही की थी कि इतना मुश्किल होता है ,आत्मा तक पहुँचना |मेरी कल्पना के सच से इतर निकली तुम प्रीतिका |तुम मुझे खोज चुकी थी ना ?पर एक चिंगारी अभी शेष थी  मुझमे, और  जलने के लिए, एक चिंगारी ही काफ़ी होती है | तुम्हारी  ख़ोज में, मैं नही मिला तुम्हे | या यूँ कहूँ तुम खोज ही ना सकी मेरे अन्तर्मन की अविरल धारा को ,उसके अनित्य प्रवाह को महसूस ही ना कर सकी |
जिस्म इतना सस्ता भी हो सकता है प्रीतिका ! तुमसे मिलकर जाना | और आत्मा का कोई मोल नही होता -ये जाना, शामली से मिलकर ......................शामली |
गुम हो गया तुम्हारा शिवेन ! सुन रही हो ना प्रीतिका !   खैर फिर कभी बताऊँगा ,ये आत्ममिलन |अभी रहने दो ....!”
     “ शेष क्या लिखोगे शिवेन ?” बुदबुदाते शब्दों के साथ प्रीतिका ने पत्र से चेहरे को ढँक लिया | घंटों आकाश की तरफ़ बोझिल शाम निहारती रही |कितना कुछ छूट चुका था ,इस मारीचिका में |
   “ मेरी आलताई आँखें आज भी तुम्हारी की बाट जोहती हैं शिवेन ! नासमझ मैं , फिर भी वक्त को लौटाने की तुतली जिदें करती रहती हूँ |जबकि जानती हूँ ,यकीं है , नही लौटोगे तुम ....| जानते हो ! जब हम साथ थेतो मैंने कभी तुम्हारे इंतज़ार को जिया ही नहीं ,जबकि तुम कई बार कहते भी थे , इंतज़ार को जीने लगोगी तो पल कब गुज़र जायेगा पता भी नही चलेगा |लेकिन तब, ये सब किताबी बातें लगती थीं |और आज इन्ही किताबों से बातें करके ही तो जी रही हूँ | समझदार  पलों की नासमझ जिदें , कहाँ से कहाँ ले आयीं मुझेपल भर में सब कुछ पा लेने का दुस्साहस क्यों किया मेरे मन ने  ? अब बहुत बड़ा फ्लैट खरीद लिया है मैंने  शिवेन ! पर, पाँव चलना ही भूल गए हैं |उस छोटे से फ्लैट में तुम्हारे साथ मैं , सदियों की दूरियाँ नाप लेती थी |धूप के टुकड़े ,बरसात के फ़ाहे और हवा की कतरनेंबटोर लेती थी उस संकरी बालकोनी से भी |अब तो ये भी अजनबी से लगते हैं शिवेन |जिन कागज़ के टुकड़ों पर हम स्याहियाँ गिरा अलग हुए |उन्ही टुकड़ों ने कभी हमें जोड़ा भी था |शायद तुम सुनकर नाराज़ होगे ! मैंने नौकरी छोड़ दी ,एक बुटीक खोल लिया है ,कभी -कभी सोचती हूँ - प्यार और विश्वास  की कतरनों को जोड़ जीवन की कनातें तो ना बना सकी ,शायद इन टुकड़ों को जोड़तेजोड़ते जीने का फ़लसफ़ा जाये |बहुत भागदौड़ हो जाती थी ...थक रही थी अकेले ...|
जानते हो ! आज भी मैंने दो कप चाय बना डाली थी | अक्सर भूल जाती हूँ शिवेन ! पर, अब ये भूलना सुखद होता है बनिस्बत याद करने के | ’’
                   शिवेन ने अपने तप्त शरीर को शामली की ठंढी बाँहों में निर्लिप्त भाव छोड़ दिया |शामली के हाथ शिवेन के माथे पर फिर रहे थे |
लगता है बुखार बढ़ रहा है ? ’’ शिवेन ने भारी होती हुई पलकों को उठाकर कहा | “ ठीक हो जायेगा, सोने की कोशिश करो ना !” शामली ने शिवेन की पलकों पर हाथ रखते हुए कहा | “ तुम भी सोचती होगी शामली - कि मेरे कारण तुम्हे इतनी तकलीफ़ .....” खाँसते  हुए  “ पा..नी पाss ..” शिवेन का इशारा समझ पानी का गिलास  उस के होंठों से लगाते  हुए – “ ऐसा मत कहो शिवेन ! मैं तो पापमुक्त हुई हूँ , तुम्हारे पास आकर | मोक्ष मिलेगा मुझे | जिस बाज़ार से मुझे तुम मुक्त कराकर लाये हो ,उस बाज़ार में जिस्म सड़ी  लाश की तरह होता है |पैसों और इत्र की महक में जिन्दा लाशों की बदबू गुम हो जाती है |लोग जिस्म की हदें बाँटते हैं |वहाँ पैसों से निवाले जरूर मिल जाते हैं , सुकून नहीं मिलता | तुमने तो मेरी आत्मा को उसके होने का एहसास दिलाया है | मैं केवल शरीर नहीं, अनंत संभावनाओं का द्वार भी हूँ, तुम्ही ने बताया शिवेन ...कहते- कहते शामली का गला भर आया |
        शिवेन सो गया था |शामली ने शिवेन के तपते शरीर से खुद को अलग किया |शिवेन बच्चों -सा कुनमुनाया शामली मुस्कुरायी |शिवेन के चेहरे पर रूखापन ,सौम्यता के साथ चिपका हुआ था |
अभी भोर होनी शेष थी |
             शामली  मेज पर पड़े कागज़ी कतरनों को गौर से देखते हुए सोचने लगी ,बोझिल पलों को हल्का करने के लिए, कितने भारीमन के साथ लिखा होगा शिवेन ने ये सब ...................................
               “ और .... मेरा कल कब शुरू हुआ, मुझे ठीक से याद नहीं ,पर प्रीतिका में जो शेष था, भुला नहीं सका |आत्मा और शरीर की खोज में मैं भटक रहा था| आत्मा, शरीर के इस समर में , शरीर जीतता रहा मेरा |मैं तुलता जा रहा था |प्रीतिका की मुस्कान भ्रम थी ,छलावा  थी ,मरीचिका थी |प्यार के दो बोल जो मन को शीतलता दे सकते थे ,कभी नही मिले प्रीतिका ! तुम्हारे हिस्से से |तुमसे मिलने के बाद मैंने सिर्फ खोया था |कितनी बार भयावह ,वीरान रातें मैंने तपते शरीर के साथ गुजारीं थीं |तुम्हारे करीब होने का एहसास हमेशा तपते शरीर के ताप को दूना कर देता था  |तुमसे दूर होना सार्थकता  की खोज थी  |खोज थी मन के ठौर की |मैं सूखे पत्तों- सा बिखर रहा था प्रीतिका |सहानुभूति, प्यार,समर्पण , निष्ठा ,शीतलता तुम्हारे लिए अछूते शब्द रहे |किताबी बातें थीं ये सब ,तुम्हारे लिए |ज़िन्दगी सिर्फ़ उड़कर जीने का नाम नहीं ,तुम उड़ती रही पतंग -सा ,ठहरी कहाँ ! तुम सब कुछ जल्दी - जल्दी पाना चाहती थी और दौड़ में पीछे क्या - क्या छूटता गया, तुमने देखने की ज़हमत भी कहाँ उठायी ? मुझे आज भी याद है वो शाम -जब मैं ऑफिस से घर देर से आया था और तुमने लगभग चिल्लाते हुए कहा था- “ क्या दे  देता है तुम्हे, तुम्हारा ऑफिस इस ओवरटाइम का ? दस साल की नौकरी में आज भी वन बी. एच. के. फ्लैट में पड़े हैं हम  ? मुझे भी जूझना पड़ता है, इस घर को सरकाने में |”
तुम समझ ना सकी थी प्रीतिका , वो संघर्ष हम दोनों का था ,तो जीत भी तो हमारी ही होती ,पर तुमने तो छलांग ही लगा दी |हो सकता है ,जीवन की मारीचिका का यथार्थ तुम्हे प्राप्त हो गया हो |जीवन इतना सारहीन नही होता प्रीतिका , जीना आना चाहिए | धुन है जीवन ,एक लगन हैतुमसे इतना ज़रूर सीखा प्रीतिकाकिसी को पाने की जिद्दोजहद में मिट जाने से, कहीं बेहतर है -खुद के वज़ूद को तलाशते हुए मिट जाना |तुमसे मिली कटुता को आज भी जी रहा हूँ ,पर आज जिस सागर के किनारे पड़ा हूँ ,वहाँ अथाह शांति है |इसी नीरवता के साथ जीना चाहता हूँ | कोलाहल ,आपाधापी ,अजनबी समय के साये से सहमी आत्मा है  वो .... जानती हो इस अपूर्व,निश्छल शांति का नाम शामली  है | ना जाने कितनी मुर्दा आत्माओं की भीड़ में छटपटाती शामली जब  मिली थी मुझेपैसे से नहीं ,आत्मा से आत्मा का सौदा छि: .... सौदा नहीं ! मिलन, एक पवित्र - मिलन जो जिस्म की चारदीवारी के बाहर भी झांकता है |और जानती हो ? इससे मेरे अस्तित्व को कोई खतरा नही |मैं जीने लगा हूँ फिर से , इसे पाकर | यहाँ कोई प्रतिबद्धता नही,कोई लिप्सा नहीं .... आत्मीयता और सिर्फ आत्मीयता है |शरीर तो कई बार मिट चुका था इसका, पर शेष जो था  –वह आत्मा थी इसकी |इसी शेष ने मुझे आज तक जिंदा रखा |मैं जानता हूँ, मेरी मौत मेरे बहुत करीब खड़ी है |पर मुझे डर नही लगता , मैंने कभी सोचा भी नहीं था  प्रीतिका , कि  जीवन का अंत इतना सुखमय होगा| मैंने तुम्हे खोकर, स्वयं को पाया और स्वयं  को खोकर शामली को | लेकिनमैं शामली को खोना नही चाहता |
तुम तक लौटना नामुमकिन है प्रीतिका |शामली भ्रम नही यथार्थ है, सिर्फ़ शरीर नही, आत्मा भी  है, शोर ही नही ,शांति भी है| मरीचिका ही  नही, सागरिका भी है |
जानता हूँ जब तुम इन शब्दों में मेरी रूह ढूंढ रही होगी, मैं मिट चुका हूँगा |लेकिन मेरे जाने के बाद भी मेरे शब्द जीवित रहेंगे .......................................|
               सुबह की हलकी हवा ने कागज़ी कतरनों को बिखेरना शुरू किया | भोर का सूरज उठने लगा |शामली ने भरी हुई आँखों से शिवेन के चिरशांत चेहरे की ओर देखा |भोर की सारी सर्द हवा शिवेन के पूरे जिस्म में उतर आयी  थी मानों |शामली ने अपनी  मुट्ठियों को पूरी ताक़त से  भींच लिया |
चीख भी ना सकी, आत्मा के बिछोह पर |


संपर्क-खेमीपुर, अशोकपुर,नवाबगंज जिला गोंडा,उत्तर प्रदेश
मोबाईल न. 8826957462