रविवार, 9 अप्रैल 2017

कहानी : शेष जो था - अमरपाल सिंह ‘आयुष्कर’




         

    “ सिर्फ साँसों की तपन और होंठों की नमी ज़िन्दगी के कैनवास को सार्थकता नहीं देते प्रीतिका |ये तुम्हारी भूल थी  ....मैं नहीं तुम गुम हुई ,हाथ मैंने नहीं, तुमने  छोड़ा है | मैं तो तुम्हे रिक्तहस्त मिला था | पर ,ना  जाने कितने ज़ख्म, लकीरों के साथ लेकर अलग हुआ |
         तुम्हारी हदें, मेरा शरीर थीं | और मेरी हदें, तुम्हारी आत्मा तक पहुँचना चाहती थीं |मैंने कल्पना भी नही की थी कि इतना मुश्किल होता है ,आत्मा तक पहुँचना |मेरी कल्पना के सच से इतर निकली तुम प्रीतिका |तुम मुझे खोज चुकी थी ना ?पर एक चिंगारी अभी शेष थी  मुझमे, और  जलने के लिए, एक चिंगारी ही काफ़ी होती है | तुम्हारी  ख़ोज में, मैं नही मिला तुम्हे | या यूँ कहूँ तुम खोज ही ना सकी मेरे अन्तर्मन की अविरल धारा को ,उसके अनित्य प्रवाह को महसूस ही ना कर सकी |
जिस्म इतना सस्ता भी हो सकता है प्रीतिका ! तुमसे मिलकर जाना | और आत्मा का कोई मोल नही होता -ये जाना, शामली से मिलकर ......................शामली |
गुम हो गया तुम्हारा शिवेन ! सुन रही हो ना प्रीतिका !   खैर फिर कभी बताऊँगा ,ये आत्ममिलन |अभी रहने दो ....!”
     “ शेष क्या लिखोगे शिवेन ?” बुदबुदाते शब्दों के साथ प्रीतिका ने पत्र से चेहरे को ढँक लिया | घंटों आकाश की तरफ़ बोझिल शाम निहारती रही |कितना कुछ छूट चुका था ,इस मारीचिका में |
   “ मेरी आलताई आँखें आज भी तुम्हारी की बाट जोहती हैं शिवेन ! नासमझ मैं , फिर भी वक्त को लौटाने की तुतली जिदें करती रहती हूँ |जबकि जानती हूँ ,यकीं है , नही लौटोगे तुम ....| जानते हो ! जब हम साथ थेतो मैंने कभी तुम्हारे इंतज़ार को जिया ही नहीं ,जबकि तुम कई बार कहते भी थे , इंतज़ार को जीने लगोगी तो पल कब गुज़र जायेगा पता भी नही चलेगा |लेकिन तब, ये सब किताबी बातें लगती थीं |और आज इन्ही किताबों से बातें करके ही तो जी रही हूँ | समझदार  पलों की नासमझ जिदें , कहाँ से कहाँ ले आयीं मुझेपल भर में सब कुछ पा लेने का दुस्साहस क्यों किया मेरे मन ने  ? अब बहुत बड़ा फ्लैट खरीद लिया है मैंने  शिवेन ! पर, पाँव चलना ही भूल गए हैं |उस छोटे से फ्लैट में तुम्हारे साथ मैं , सदियों की दूरियाँ नाप लेती थी |धूप के टुकड़े ,बरसात के फ़ाहे और हवा की कतरनेंबटोर लेती थी उस संकरी बालकोनी से भी |अब तो ये भी अजनबी से लगते हैं शिवेन |जिन कागज़ के टुकड़ों पर हम स्याहियाँ गिरा अलग हुए |उन्ही टुकड़ों ने कभी हमें जोड़ा भी था |शायद तुम सुनकर नाराज़ होगे ! मैंने नौकरी छोड़ दी ,एक बुटीक खोल लिया है ,कभी -कभी सोचती हूँ - प्यार और विश्वास  की कतरनों को जोड़ जीवन की कनातें तो ना बना सकी ,शायद इन टुकड़ों को जोड़तेजोड़ते जीने का फ़लसफ़ा जाये |बहुत भागदौड़ हो जाती थी ...थक रही थी अकेले ...|
जानते हो ! आज भी मैंने दो कप चाय बना डाली थी | अक्सर भूल जाती हूँ शिवेन ! पर, अब ये भूलना सुखद होता है बनिस्बत याद करने के | ’’
                   शिवेन ने अपने तप्त शरीर को शामली की ठंढी बाँहों में निर्लिप्त भाव छोड़ दिया |शामली के हाथ शिवेन के माथे पर फिर रहे थे |
लगता है बुखार बढ़ रहा है ? ’’ शिवेन ने भारी होती हुई पलकों को उठाकर कहा | “ ठीक हो जायेगा, सोने की कोशिश करो ना !” शामली ने शिवेन की पलकों पर हाथ रखते हुए कहा | “ तुम भी सोचती होगी शामली - कि मेरे कारण तुम्हे इतनी तकलीफ़ .....” खाँसते  हुए  “ पा..नी पाss ..” शिवेन का इशारा समझ पानी का गिलास  उस के होंठों से लगाते  हुए – “ ऐसा मत कहो शिवेन ! मैं तो पापमुक्त हुई हूँ , तुम्हारे पास आकर | मोक्ष मिलेगा मुझे | जिस बाज़ार से मुझे तुम मुक्त कराकर लाये हो ,उस बाज़ार में जिस्म सड़ी  लाश की तरह होता है |पैसों और इत्र की महक में जिन्दा लाशों की बदबू गुम हो जाती है |लोग जिस्म की हदें बाँटते हैं |वहाँ पैसों से निवाले जरूर मिल जाते हैं , सुकून नहीं मिलता | तुमने तो मेरी आत्मा को उसके होने का एहसास दिलाया है | मैं केवल शरीर नहीं, अनंत संभावनाओं का द्वार भी हूँ, तुम्ही ने बताया शिवेन ...कहते- कहते शामली का गला भर आया |
        शिवेन सो गया था |शामली ने शिवेन के तपते शरीर से खुद को अलग किया |शिवेन बच्चों -सा कुनमुनाया शामली मुस्कुरायी |शिवेन के चेहरे पर रूखापन ,सौम्यता के साथ चिपका हुआ था |
अभी भोर होनी शेष थी |
             शामली  मेज पर पड़े कागज़ी कतरनों को गौर से देखते हुए सोचने लगी ,बोझिल पलों को हल्का करने के लिए, कितने भारीमन के साथ लिखा होगा शिवेन ने ये सब ...................................
               “ और .... मेरा कल कब शुरू हुआ, मुझे ठीक से याद नहीं ,पर प्रीतिका में जो शेष था, भुला नहीं सका |आत्मा और शरीर की खोज में मैं भटक रहा था| आत्मा, शरीर के इस समर में , शरीर जीतता रहा मेरा |मैं तुलता जा रहा था |प्रीतिका की मुस्कान भ्रम थी ,छलावा  थी ,मरीचिका थी |प्यार के दो बोल जो मन को शीतलता दे सकते थे ,कभी नही मिले प्रीतिका ! तुम्हारे हिस्से से |तुमसे मिलने के बाद मैंने सिर्फ खोया था |कितनी बार भयावह ,वीरान रातें मैंने तपते शरीर के साथ गुजारीं थीं |तुम्हारे करीब होने का एहसास हमेशा तपते शरीर के ताप को दूना कर देता था  |तुमसे दूर होना सार्थकता  की खोज थी  |खोज थी मन के ठौर की |मैं सूखे पत्तों- सा बिखर रहा था प्रीतिका |सहानुभूति, प्यार,समर्पण , निष्ठा ,शीतलता तुम्हारे लिए अछूते शब्द रहे |किताबी बातें थीं ये सब ,तुम्हारे लिए |ज़िन्दगी सिर्फ़ उड़कर जीने का नाम नहीं ,तुम उड़ती रही पतंग -सा ,ठहरी कहाँ ! तुम सब कुछ जल्दी - जल्दी पाना चाहती थी और दौड़ में पीछे क्या - क्या छूटता गया, तुमने देखने की ज़हमत भी कहाँ उठायी ? मुझे आज भी याद है वो शाम -जब मैं ऑफिस से घर देर से आया था और तुमने लगभग चिल्लाते हुए कहा था- “ क्या दे  देता है तुम्हे, तुम्हारा ऑफिस इस ओवरटाइम का ? दस साल की नौकरी में आज भी वन बी. एच. के. फ्लैट में पड़े हैं हम  ? मुझे भी जूझना पड़ता है, इस घर को सरकाने में |”
तुम समझ ना सकी थी प्रीतिका , वो संघर्ष हम दोनों का था ,तो जीत भी तो हमारी ही होती ,पर तुमने तो छलांग ही लगा दी |हो सकता है ,जीवन की मारीचिका का यथार्थ तुम्हे प्राप्त हो गया हो |जीवन इतना सारहीन नही होता प्रीतिका , जीना आना चाहिए | धुन है जीवन ,एक लगन हैतुमसे इतना ज़रूर सीखा प्रीतिकाकिसी को पाने की जिद्दोजहद में मिट जाने से, कहीं बेहतर है -खुद के वज़ूद को तलाशते हुए मिट जाना |तुमसे मिली कटुता को आज भी जी रहा हूँ ,पर आज जिस सागर के किनारे पड़ा हूँ ,वहाँ अथाह शांति है |इसी नीरवता के साथ जीना चाहता हूँ | कोलाहल ,आपाधापी ,अजनबी समय के साये से सहमी आत्मा है  वो .... जानती हो इस अपूर्व,निश्छल शांति का नाम शामली  है | ना जाने कितनी मुर्दा आत्माओं की भीड़ में छटपटाती शामली जब  मिली थी मुझेपैसे से नहीं ,आत्मा से आत्मा का सौदा छि: .... सौदा नहीं ! मिलन, एक पवित्र - मिलन जो जिस्म की चारदीवारी के बाहर भी झांकता है |और जानती हो ? इससे मेरे अस्तित्व को कोई खतरा नही |मैं जीने लगा हूँ फिर से , इसे पाकर | यहाँ कोई प्रतिबद्धता नही,कोई लिप्सा नहीं .... आत्मीयता और सिर्फ आत्मीयता है |शरीर तो कई बार मिट चुका था इसका, पर शेष जो था  –वह आत्मा थी इसकी |इसी शेष ने मुझे आज तक जिंदा रखा |मैं जानता हूँ, मेरी मौत मेरे बहुत करीब खड़ी है |पर मुझे डर नही लगता , मैंने कभी सोचा भी नहीं था  प्रीतिका , कि  जीवन का अंत इतना सुखमय होगा| मैंने तुम्हे खोकर, स्वयं को पाया और स्वयं  को खोकर शामली को | लेकिनमैं शामली को खोना नही चाहता |
तुम तक लौटना नामुमकिन है प्रीतिका |शामली भ्रम नही यथार्थ है, सिर्फ़ शरीर नही, आत्मा भी  है, शोर ही नही ,शांति भी है| मरीचिका ही  नही, सागरिका भी है |
जानता हूँ जब तुम इन शब्दों में मेरी रूह ढूंढ रही होगी, मैं मिट चुका हूँगा |लेकिन मेरे जाने के बाद भी मेरे शब्द जीवित रहेंगे .......................................|
               सुबह की हलकी हवा ने कागज़ी कतरनों को बिखेरना शुरू किया | भोर का सूरज उठने लगा |शामली ने भरी हुई आँखों से शिवेन के चिरशांत चेहरे की ओर देखा |भोर की सारी सर्द हवा शिवेन के पूरे जिस्म में उतर आयी  थी मानों |शामली ने अपनी  मुट्ठियों को पूरी ताक़त से  भींच लिया |
चीख भी ना सकी, आत्मा के बिछोह पर |


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